विशेष आलेख
– अरुण तिवारी
एजुकेटेड बनाम क्वालीफाइड
आठ सितंबर को साक्षरता दिवस होता है और पांच सितंबर को शिक्षक दिवस। क्या आपको नहीं लगता कि इन दोनों दिवसों के बीच कहीं फंस गई है अपनी प्यारी शिक्षाजी ? मुझे लगता है। एजुकेशन शब्द ‘एजुकेयर’ नामक जिस मूल शब्द से निकला है, उसका मतलब होता है – विकसित करना,… उभार देना। हर शिक्षार्थी के भीतर कोई न कोई प्रतिभा, कौशल या गुण जरूर होता है। जो कुछ भी शिक्षार्थी के भीतर है, उसे उभार कर विकसित कर देना….भीतर से बाहर ले आना ही उसे शिक्षित करना है। यह बात मैं कभी नहीं भूलता। खासकर जब मैं कालेज और पाठशालाओं में जाता हूं। संवाद शैली में अपनी बात रखते-रखते मै विद्यार्थियों से अक्सर सवाल पूछता हूं या उन्हे सवाल पूछने को कहता हूं। जहां कहीं उन्हे मौन पाता हूं, वहां इसी परिभाषा को सामने रखकर कहता हूं – ’’यदि आपके भीतर से कुछ बाहर नहीं आ रहा… कोई जिज्ञासा पैदा नहीं हो रही,… कोई सवाल, कोई कौशल बाहर आने को बेताब नहीं हो रहा, तो इसका मतलब है कि आप शिक्षित नहीं हो रहे।’’ बावजूद इसके कि हर पाठशाला के बाहर एक से फैशन में लिखा मिलता है – ’’शिक्षार्थ आइए: सेवार्थ जाइए।’’ ’’इन फॉर एजुकेशन: आउट फॉर नेशन।’’
ऐसे में मेरा चिंतित होना स्वाभाविक है। सवाल पूछना लाजमी है कि भारत में स्कूल-कॉलेज बढ़ रहे हैं। शिक्षक बढ़ रहे हैं। शिक्षार्थी बढ़ रहे हैं। साक्षरता बढ़ रही है। बावजूद इसके हम शिक्षित क्यों नहीं हो रहे ? एक जवाब आया- ’’हम क्वालीफाई करने के लिए पढ़ रहे हैं। इसीलिए क्वालीफाइड हो रहे हैं; एजुकेटेड नहीं।’’ मेरी संतुष्टि नहीं हुई। हम क्वालीफाई करते-करते भी तो एजुकेटेड हो सकते हैं। उन्होने कहा – ’’क्वालीफाई करने से ही बसर है। एजुकेटिड होने से नौकरी नहीं मिलती। डिग्री चाहिए, डिग्री! चाहे ऐसे लाओ, चाहे पैसे से लाओ। आखिर यूथ के कैरियर का सवाल है। इसीलिए क्वालीफाइड होने का इतना प्रेशर है कि एजुकेटिड होने की न किसी को फुर्सत है और न बहुत जरूरत। दुनिया बदल चुकी है भाईसाहब ! आप भी बदलिए। यू अॅालसो नीड टू बी वैल क्वालीफाइड !!’’
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मै, 1984 का एजुकेटेड; कम्प्यूटर क्रांति से पहले का टीनेज; ’’शिक्षे ! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी।’’ वाली कविता की घूंटी पीकर बड़ा हुआ। जब तक जवाब न आ जाये, भला कैसे संतुष्ट हो सकता था ! एजुकेशन के मूल शब्द की परिभाषा का सिरा पकड़ कर मैंने सोच लिया कि मैं तो पूरी तरह एजुकेटेड होकर ही छोड़ूंगा। एक जवाब और मिला। उसने शिक्षा प्रणाली पर ही सवाल उठा दिया। ’’भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली में शिक्षित करना प्राथमिकता है ही नहीं। प्राथमिकता है – विद्यार्थी के भीतर ठूंसना। अंक, रेखा, रसायन, भौतिक, भूगोल, जीव और जाने क्या- क्या। ’’
जवाब सही है या नहीं; इसकी तसल्ली करने के लिए मैंने एक स्कूल की भरी सभा में बगैर किसी भूमिका के सवाल उछाला- ’’बच्चो ! बताओ कि हमारे गुरुजन हमारे दिमाग में क्या डाल रहे हैं ?’’ यह वी वी आई पी लोकसभा क्षेत्र कही जाने वाले अमेठी का धम्मौर स्थित हनुमत इंटर कॉलेज था। जो जवाब आया, उससे मैं हतप्रभ हो गया। ठीक वैसा ही हतप्रभ, जैसा राहुल गांधी पिछले चुनाव नतीजे से हुए होंगे और प्रियंका गांधी रायबरेली के लोगों के व्यवहार से। कक्षा छह का एक साधारण सा दिखने वाला बालक उठा। उसने मेरी ओर देखा। चीखकर जवाब दिया -’’गोबर!’’ सभा में सन्नाटा छा गया। सब भौंचक !! सभी की बोलती बंद !! हमारे गुरुजन विद्यार्थियों के दिमाग में गोबर डाल रहे हैं। इस जवाब के तत्काल आकलन मात्र से वहां उपस्थित गुरुजनों की गर्दनें झुक गई। जबकि उनकी गर्दनें गौरव से तन जानी चाहिए थी। उनका गांधी बालक सचमुच शिक्षित हो रहा है। उसके भीतर का गुण बाहर जो आ रहा है।
मैंने कई जगह यह सवाल पूछा। लेकिन ऐसा जवाब फिर कभी नहीं आया। इसीलिए एक सवाल ने फिर दिमाग खुजलाया -’’यदि शिक्षा प्रणाली सिर्फ डाल ही रही है, तो आज हमारे भीतर से निकलता दिखाई दे रहा है; भ्रष्ट आचार! … यह किसकी देन है ? इसे निकालने का काम कौन कर रहा है ?’’ प्रबंधन! भाईसाहब प्रबंधन !! विद्यालय का प्रबंधन निकालता है मां-बाप की जेब से डोनेशन। विद्यार्थी नहीं, वह विद्यार्थी के मां-बाप को करता है शिक्षित। निकालो जो कुछ है जेब के भीतर। पढ़ो ! खूब पढ़ो!! बच्चे का होमवर्क कराओ या फिर ट्युशन लगाओ। लेकिन निकल तो मां -बाप की जेब से रहा है। तो क्या मां-बाप की जेब में पहले से भ्रष्ट आचार था या जिस टेलर ने जेब सिली, उसने डाल दिया था अंचार समझ कर।
खैर ! मान लिया प्रबंधन दोषी है। लेकिन कक्षायें तो शिक्षक के ही पास हैं न। प्रणाली कुछ भी हो, प्रबंधन कैसा भी हो; शिक्षक चाहे तो विद्यार्थी को शिक्षित होने से कौन रोक सकता है ? वही तो पूरी पीढ़ी का निर्माता है। गुरु है। एक वर्तमान शंकराचार्य ने कहा – ’’गुरु गोरू हो गये हैं।’’ मैं क्या जवाब देता ? लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है। मैंने फिर पूछा। फिर टटोला। फिर जवाब आया – ’’आप बिल्कुल दुरुस्त हैं भाईजान ! लेकिन आजकल शिक्षक भर्ती हो कहां हो रहे है ? नौकरी पाने के लिए जो होड़ लगी है। एक ही उम्मीदवार शिक्षक के लिए भी आवेदन कर रहा है, फौजी लेफ्टिनेंट के लिए भी और सिविलियन बनकर सिविल सर्विसेज के लिए भी। तसदीक करनी हो, तो मैं आपको यू पी की बी टी सी में बी टेक क्वालीफाइड दिखा सकता हूं। आई आई टी में इंजीनियरिंग करके नाक बहाते बच्चों को ककहरा पढ़ाते हुए। इसीलिए भाईजान, मैं कह रहा हूं। शिक्षक भर्ती नहीं भर्ती हो रहे। नौकर भर्ती हो रहे हैं। नौकरी पाने से पहले चाहे कोई जो कुछ हों, नौकरी पाने के बाद जो जिस नौकरी में है, आज वह सिर्फ नौकर बनकर रह गया है या फिर साहब।’’
मुझे मेरा जवाब मिल गया कि हम क्यों सिर्फ क्वालीफाई हो रहे हैं। एजुकेशन क्यों हमारी प्राथमिकता नहीं हैं। जब से नौकरियों के लिए खासकर प्रोफेशनल क्वालीफिकेशन जरूरी कर दी गई है, तब से प्रोफेशनल आगे रहे हैं, पैसन पीछे जा रहा है। शायद इसीलिए मेरे आगे जो दुनिया दिख रही है, कलमा पढ़ने वाले बढ़े हैं। पत्र बढ़े हैं, कारें बढ़ी हैं, कार वाले पत्रकार बढ़े हैं, लेकिन असल पत्रकार कम हो रहे हैं। कलाकार बढ़े हैं, लेकिन असल कलम और कला पीछे चली गई है। चैनल बढ़े हैं, लेकिन चैन छिन गया है। खबरों में स्यापा बढ़ गया है। इंजीनियर बढ़ गये है; इंजीनियरिंग कहीं खो रही है। डॉक्टर बढ गये हैं; डॉक्टरों को भगवान कहने वाले लुट रहे हैं। खातों में हेराफेरी पकङने वाले सी ए बढ़ गये हैं; साथ-साथ खातों की हेराफेरी भी; दलाली भी। वकील बढ़े हैं; वकालत की फीस फिक्स हुई है और साथ-साथ न्याय भी। समाजकार्य के डिग्रीधारी भी बढ़े हैं। लेकिन दुखद है कि सामाजिक कार्यकर्ता बनाने का काम बंद हो गया है। दुआ कीजिए ! हम फिर से एजुकेटेड होना शुरु करें।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
Very nice