
रविवारीय: सरकारी नौकरी
मां और पिताजी, दोनों ही सरकारी नौकरी में थे। घर का माहौल कुछ यूं था कि पढ़ाई-लिखाई का अंतिम लक्ष्य नौकरी हासिल करना ही था और वह भी सरकारी नौकरी। कोई विकल्प नहीं, कोई और ख़्वाब नहीं। आपकी स्थिति बिल्कुल वैसी ही जैसे कोई घोड़ा तांगे में जुता हो और उसकी आंखों पर पट्टी बंधी हो—उसे केवल सीधा रास्ता दिखता है, इधर-उधर देखने का ना कोई अधिकार, ना उसकी आदत। अगर गुस्ताखी कर दिया तो फ़िर कोचवान की चाबुक तो है ही।
सच कहूं, तो आज से तीस-चालीस साल पहले वैसे भी विकल्प कहां थे ? अगर बच्चा विज्ञान में अच्छा है तो डॉक्टर बनेगा या इंजीनियर—बस दो ही रास्ते। अगर आर्ट्स की ओर रुझान है, तो फिर सिविल सेवा—यही एकमात्र विकल्प समझा जाता था। बाक़ी सारे सपने, सारी संभावनाएं उस एक संभावना के बाद ही आती थीं, अगर आती भी थीं तो। कला, संगीत, लेखन – ये सब ‘ शौक ‘ की श्रेणी में आते थे ‘ करियर ‘ की नहीं।
मां हमेशा कहती थीं—“नौकरी की नहीं निभाई जाती है।” और पिताजी का अंदाज़ कुछ और ही था—“नौकरी ना करी और करी तो ना, ना करी।”
तब ये बातें किसी पहेली जैसी लगती थीं। लगता था, ये लोग कुछ ज़्यादा ही पुराने ख्यालों के हैं। सच कहें तो गुलामी सी लगती थी ये सारी बातें।तब तो यही लगता था कि दुनिया मेरी मुट्ठी में है। मैं जो चाहूँ, कर सकता हूँ।
लेकिन वक्त ने धीरे-धीरे, बहुत सलीके से ये सबक समझा दिया। तीन दशक की नौकरी के बाद अब जाकर समझ में आता है कि मां-बाप की बातें सिर्फ कहावतें नहीं थीं, वो अनुभव की निचोड़ थीं। ऐसी सच्चाइयां, जो किताबों में नहीं मिलतीं, लेकिन हर नौकरीपेशा के दिल में लिखी होती हैं।
आज जब सेवा नियमावली का पहला पन्ना पलटता हूं, तो हर शब्द जैसे चुभता नहीं, समझ आता है।
ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रोमोशन, विजिलेंस जांच—ये शब्द महज़ औपचारिक प्रक्रियाएं नहीं हैं, ये हमारी पूरी ज़िंदगी की दिशा तय कर सकते हैं।
“आपका पद आपकी पहचान नहीं है। व्यवस्था की डोर थामे रहना ही आपकी जिम्मेदारी है।” इसे समझने की जरूरत है।
कभी आधी रात किसी दूर के जिले का ट्रांसफर ऑर्डर आता है, जो आपके मन माफिक नहीं है, तो कभी प्रमोशन की आस लेकर सालों बैठना पड़ता है। हर बार आपको एक निर्णय का पालन करना होता है, जो आपने खुद नहीं लिया। कभी वह निर्णय आपकी ज़िंदगी को संवार देता है, तो कभी एक ही पल में सब कुछ उथल-पुथल कर देता है। आपको बेपटरी कर दे सकता है, पर इन सबके बीच आप मुस्कराते रहते हैं, रोज़ दफ्तर जाते हैं, फाइलें पलटते हैं, कंप्यूटर पर आंखें गड़ाए रहते हैं, मीटिंग्स करते हैं, मीटिंग्स का हिस्सा बनते हैं। क्योंकि यही आपकी ज़िम्मेदारी है, यही आपकी पहचान है। पर सुकून ? वह तो शायद उस दिन आता है जब आप “सेवानिवृत्त” होते हैं—बशर्ते कि आप उस दिन तक खुद को सही सलामत, मानसिक और शारीरिक रूप से, बचाकर ला सके हों।
अब आपकी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू होती है, पर प्रभाव कहीं ना कहीं पहली पारी का ही होता है।
हर फॉर्म, हर फाइल, हर आदेश आपकी स्वतंत्रता की एक परत छीलता है। और फिर भी, हर महीने की पहली तारीख को मिलने वाली तनख्वाह ( महीने भर तन खपाने के बाद मिलने वाला ), उस छिले हुए आत्मसम्मान पर एक मरहम बन जाती है।कराता
ये नौकरी है साहब—कभी वरदान, कभी अभिशाप। लेकिन अंततः एक ऐसा अनुभव, जो आपको जीवन के हर रंग से रूबरू है।
श्री वर्मा जी का यह आत्मकथात्मक अनुभव आज भी लाखों भारतीयों की सच्चाई है। सरकारी नौकरी, जो कभी सामाजिक प्रतिष्ठा और स्थायित्व का प्रतीक थी, आज भी बहुतों के लिए ‘सुरक्षित भविष्य’ का पर्याय बनी हुई है। इस ब्लॉग में बहुत संवेदनशीलता के साथ यह दर्शाया गया है कि सुरक्षित भविष्य का पर्याय ‘सरकारी नौकरी’ कितनी कीमत पर मिलती है—स्वतंत्रता की कुर्बानी, मानसिक दबाव, और एक ऐसा जीवन जिसमें निर्णय आपके नहीं होते। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, जहां निजी क्षेत्र और स्टार्टअप कल्चर तेजी से उभर रहे हैं, तब भी सरकारी नौकरी का मोह कम नहीं हुआ है। यह ब्लॉग न केवल एक बीते दौर की झलक देता है, बल्कि आज भी उन लाखों युवाओं की सोच को प्रतिबिंबित करता है जो इस ‘स्थायित्व’ या यूं कहें ‘सुरक्षित भविष्य’ की तलाश में हैं। सरकारी नौकरी भी अनुकूलता और प्रतिकूलता का अदभुत संगम है, जिसमें ‘सुकून’ हमेशा अपना आस्तित्व बनाये रखने हेतु संघर्षरत रहता है। पर शायद हर ईमानदार सरकारी सेवक इस ‘सुकून’ के स्थायित्व की तलाश में सेवानिवृत्ति की बाट जोहता है।
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निस्संदेह, नौकरी के सिद्धांत और व्यवहार में काफी विषमता है। हमें ऐसा लगता है कि सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए हम अपना काम कर सकते हैं और “सुरक्षित” रह सकते हैं। समय बीतने पर पता चलता है कि व्यवहारिक पहलू का महत्व तो कुछ ज्यादा ही है, खासकर यदि अपने BOSS के किसी आदेश का पालन करना हो। कार्य निस्संदेह उनकी भृकुटि के इशारे पर ही होना है, भले ही वह प्रशासनिक सिद्धांत के विपरीत हो। यदि गलती से भी अपने मुखारविंद से यह निकल गया कि “हुजूर” ऐसा करना नियमानुकूल नहीं प्रतीत होता। बस, जनाब आपके खिलाफ ऐसे–ऐसे मामलों की संचिकाएं खुल जाएंगी कि आप खुद ही खुद को कोसने लगेंगे कि मुझे भी क्या खुजली हो रही थी “सिद्धांतवादी” बनने की, अब भुगतो।
एक बानगी लेते हैं, यदि “हुजूर” को कोई विभागीय टेंडर करना होता है तो वे एक ऐसी “टेक्निकल कमिटी” का गठन कर देते हैं जिसमें 2–3 विभागीय अधिकारी होते हैं। उन्हें पहले से ही यह दिशा – निर्देश होता है कि क्या प्रतिवेदन देना है, भूलकर भी कुछ और नहीं लिखना है। बाद में “हुजूर” के द्वारा उसी फाइल में यह लिखा जाता है कि “टेक्निकल कमिटी” की अनुशंसा के आधार पर ऐसा निर्णय लिया जाता है। बाद में यदि कोई बात हुई तो “कमिटी” वाले समझें।
पद सोपान की इस नौकरी वाली व्यवस्था में सदैव ” समरथ को नहीं दोष गोसाईं” वाली व्यवस्था ही लागू रहती है।