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3 thoughts on “रविवारीय: सरकारी नौकरी

  1. श्री वर्मा जी का यह आत्मकथात्मक अनुभव आज भी लाखों भारतीयों की सच्चाई है। सरकारी नौकरी, जो कभी सामाजिक प्रतिष्ठा और स्थायित्व का प्रतीक थी, आज भी बहुतों के लिए ‘सुरक्षित भविष्य’ का पर्याय बनी हुई है। इस ब्लॉग में बहुत संवेदनशीलता के साथ यह दर्शाया गया है कि सुरक्षित भविष्य का पर्याय ‘सरकारी नौकरी’ कितनी कीमत पर मिलती है—स्वतंत्रता की कुर्बानी, मानसिक दबाव, और एक ऐसा जीवन जिसमें निर्णय आपके नहीं होते। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, जहां निजी क्षेत्र और स्टार्टअप कल्चर तेजी से उभर रहे हैं, तब भी सरकारी नौकरी का मोह कम नहीं हुआ है। यह ब्लॉग न केवल एक बीते दौर की झलक देता है, बल्कि आज भी उन लाखों युवाओं की सोच को प्रतिबिंबित करता है जो इस ‘स्थायित्व’ या यूं कहें ‘सुरक्षित भविष्य’ की तलाश में हैं। सरकारी नौकरी भी अनुकूलता और प्रतिकूलता का अदभुत संगम है, जिसमें ‘सुकून’ हमेशा अपना आस्तित्व बनाये रखने हेतु संघर्षरत रहता है। पर शायद हर ईमानदार सरकारी सेवक इस ‘सुकून’ के स्थायित्व की तलाश में सेवानिवृत्ति की बाट जोहता है।

  2. निस्संदेह, नौकरी के सिद्धांत और व्यवहार में काफी विषमता है। हमें ऐसा लगता है कि सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए हम अपना काम कर सकते हैं और “सुरक्षित” रह सकते हैं। समय बीतने पर पता चलता है कि व्यवहारिक पहलू का महत्व तो कुछ ज्यादा ही है, खासकर यदि अपने BOSS के किसी आदेश का पालन करना हो। कार्य निस्संदेह उनकी भृकुटि के इशारे पर ही होना है, भले ही वह प्रशासनिक सिद्धांत के विपरीत हो। यदि गलती से भी अपने मुखारविंद से यह निकल गया कि “हुजूर” ऐसा करना नियमानुकूल नहीं प्रतीत होता। बस, जनाब आपके खिलाफ ऐसे–ऐसे मामलों की संचिकाएं खुल जाएंगी कि आप खुद ही खुद को कोसने लगेंगे कि मुझे भी क्या खुजली हो रही थी “सिद्धांतवादी” बनने की, अब भुगतो।
    एक बानगी लेते हैं, यदि “हुजूर” को कोई विभागीय टेंडर करना होता है तो वे एक ऐसी “टेक्निकल कमिटी” का गठन कर देते हैं जिसमें 2–3 विभागीय अधिकारी होते हैं। उन्हें पहले से ही यह दिशा – निर्देश होता है कि क्या प्रतिवेदन देना है, भूलकर भी कुछ और नहीं लिखना है। बाद में “हुजूर” के द्वारा उसी फाइल में यह लिखा जाता है कि “टेक्निकल कमिटी” की अनुशंसा के आधार पर ऐसा निर्णय लिया जाता है। बाद में यदि कोई बात हुई तो “कमिटी” वाले समझें।
    पद सोपान की इस नौकरी वाली व्यवस्था में सदैव ” समरथ को नहीं दोष गोसाईं” वाली व्यवस्था ही लागू रहती है।

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