चिंतन मनन
– रमेश चंद शर्मा*
मानव तेजी से विकास के नाम पर अति का भंयकर दोहन, शोषण, विनाश करने पर तुला है। नदियों के किनारे कर्मकांड बढ़ाए जा रहे है। सौंदर्यकरण के नाम पर लूट मची है।हमारे जोहड़, तालाब, पोखर, झील, नदी, नाले, जलस्रोत को आजाद करो।
नदी की निर्मलता, अविरलता, पवित्रता में रत्ती भर अंतर नहीं पड़ा है। नदी को जानें, मानें, सम्मान करें। बचपन में जो देखा, वह कुछ और था। लेकिन आज? आज हमारी नदियां मां गंदगी, मैले से भरी है। धरती मां भी प्लास्टिक कचरे रसायनिक जहर से पीड़ित है। गौरेया कई क्षेत्र से गायब है। गौ, गऊ, गाय माता कूड़े कचरे के ढेर से खाने को मजबूर है। गौ धन सड़कों पर आवारा घूम रहा है। अपने को भारतीय संस्कृति का पोषक मानने वालों के राज में भारत मांस निर्यातकों में पहले नंबर पर है।
गंगा, यमुना के नाम पर हजारों करोड़ बहाएं मगर दोनों की स्थिति पर रोना आता है। दिल्ली में ही देख लीजिए। यमुना पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद क्या एक गज भी शुद्ध कर पाए?
उत्थान, प्रगति हो मगर प्रकृति भी बचें। आविष्कार हो रहें हैं मगर उनका जबर्दस्त गलत प्रयोग भी किया जा रहा है। युद्ध, हिंसा, दोहन, शोषण, लूट, लालच बढ़ रहा है। एक तरफ कुछ गिने चुने लोगों के पास बेइंतहा संपत्ति का पहाड़ खड़ा हो गया है तो दूसरी ओर अधिक संख्या में लोगो की आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो पा रही है। भंयकर चौड़ी खाई बना दी गई है।
दुनिया एक मकड़जाल में केवल फंसी ही नहीं है बल्कि उसमें दिनों दिन उलझती जा रही है। नए नए रोग, विषाणु, किटाणु, वायरस, जिवाणु पैदा होकर चुनौती दे रहे हैं। कैंसर, हृदयाघात से मरने वालों की बड़ी तादाद है। इसकी पूरी रोकथाम करने में डाक्टर, वैज्ञानिक असफल रहे हैं। तनाव, मधुमेह बढ़ रहा है। जनसंख्या बढ़ रही है। औसत आयु बढ़ी है। रोग और रोगियों की संख्या भी काफी तेजी से बढ़ती जा रही है।
करुणा, परहित, प्रेम, सांझ, एकजुटता, एकता, अखंडता, संप्रभुता, शांति, सदभावना, सौह्रार्द, साझापन समझदारी खतरे में है।
समता, समानता, बराबरी की खाई भंयकर, बेकाबू रुप में बढ़ाई गई है। नफरत, द्वैष, कड़वाहट, अलगाव, झूठ, हिंसा का माहौल बढ़ाया जा रहा है। मंहगाई, बेकारी, बेरोजगारी बेभाव बढ़ाई गई है।
शिक्षा, स्वास्थ्य धंधा बना दिया है। सुरक्षा के स्थान पर भय दहशत डर घबराहट बढ़ा है।
अति वर्जते! अधिकता किसी की भी बुराई बन जाती है। अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
सत्ता की अति भी भ्रष्टाचार, शोषण, लूट, लालच, लोभ, स्वार्थ बढ़ाती है। महानगरों के विस्तार पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। दिल्ली और उसके आसपास का जो कंक्रीट का विस्तार बन चुका है, वह भी अति में आता है। प्राणधारी जीवों के लिए जितनी शुद्ध हवा, पानी, हरियाली, खुला स्थान चाहिए वह कभी का पार हो चुका है। सत्ता महाठगिनी झूठी दिखावटी बनती जा रही है। महानगर का इतना भार, वजन भी धरती उठाने में सक्षम नहीं है।
महानगरों में कितने ही घर खाली पड़े हैं, ताले लगे हैं। महानगरों में विशेषकर तरह तरह के माफिया विकसित हो रहे हैं। महानगरों पर रोक लगे। इनका विकेन्द्रीयकरण हो। सत्ता, सरकार, प्रशासन सभी का। स्थानीयता का विकास किया जाए। गांव संस्कृति संस्कार की ओर मुख तो करो। ग्रामीण मानसिकता तो अपनाओ। गांव जो कुछ बचें है उन्हें तो बचाओ और शेष को वापिस लाने का प्रयास शुरू किया जाए।
आंकड़ों, औसत प्रतिशत का खेल खेला खेलना बंद करो। शौचालयों से ज्यादा सोच और शौच को साफ करने की आवश्यकता है। दिमाग में भरी गंदगी को पहले निकालना पड़ेगा तभी तो जो खाली स्थान होगा उसमें अच्छाई सच्चाई भरी जा सकेगी।
विचार, चिंतन मनन करने की आवश्यकता है। आओ रुकें, समझें, सोचें, कोई राह खोजें। आओ भारत को साथ मिलकर शांति, सदभावना, सौह्रार्द, साझापन, एकजुटता, प्रेम, अमन, एकता, समता, ममता का घर बनाएं।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।