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भारत की कोयला नीति भाग 6: विशेष लेख
डॉ. राजेंद्र सिंह*
अब भारत सरकार जनजातियों, जंगली जानवरों और जैव विविधता वाले घने जंगलों में नीजि कंपनियों को कोल खनन की छूट दे रही है। ये घने जंगल वन्यजीवों और जैव विविधता से समृद्ध हैं। यही कई नदियां और उनके जल ग्रहण बनाते हैं। जंगलों में रहने वाले समुदायों की जीवन, नदियाँ ही रेखा है। ये ही इनका जीवन, जीविका और जमीर का प्रवाह क्षेत्र बनाते हैं। इसी से इनका जीवन बनता-चलता है। ये क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत अधिसूचित है। जन जातीय जीवन और संस्कृति के अधिकार को सुरक्षित करता है। यही जन जातीय समुदायों के जीवन, जीविका और जमीर को बनाये रखने के लिए संविधान ने विशेष अधिकार प्रदान किया था। निजीकरण का पुराना अनुभव संविधान विरोधी वातावरण निर्माण करेगा।
निजी कोल खनन की नीलामी से पूर्व पर्यावरणीय प्रभाव का व्यापक मूल्यांकन किया जाना जरूरी है। दूसरी ओर, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय संशोधनों के माध्यम का भाग रहा है। यह पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही की हानि के लिए पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन प्रक्रियाओं को कमजोर करेगा। जबकि निजी खिलाड़ियों द्वारा कोयला खनन सरकार के लिए कुछ सीमित राजस्व ला सकता है, मानव, सामाजिक और पर्यावरणीय मोर्चों पर इसके दीर्घकालिक दुष्प्रभाव का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
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भारत लोकतंत्र में लोक की और तंत्र से गंभीर चिंतायें होना सहज ही है। लोक की निम्नलिखित गंभीर चिंताओं पर भारत सरकार और राज्य सरकार को अत्यंत गंभीरता से पुनः विचार करने की जरुरत है-
आदि वासियों के जीवन पर होने वाला दुष्प्रभाव – संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत, जो इन ब्लॉकों द्वारा कवर किए गए क्षेत्र के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर लागू होता है, दो महत्वपूर्ण केंद्रीय कानून हैं, अर्थात्, पंचायतें (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) अधिनियम, 1996 (पीईएसए) और अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (जिसे वन अधिकार अधिनियम के नाम से जाना जाता है)। ये दोनों अधिनियम जन जातीय ग्राम सभाओं को विशेष अधिकार प्रदान करते हैं।
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इनके तहत, कोई भी परियोजना स्थानीय ग्राम सभा की पूर्व सहमति के बिना नहीं ली जा सकती है। सिविल अपील संख्या 4601-2 / 1997 (आंध्र प्रदेश और ओआरएस में समता बनाम राज्य), शीर्ष अदालत ने 11-7-1997 को संवैधानिक अवधारणा को दोहराते हुए आदेश दिया कि निजी एजेंसियों को अनुसूचित क्षेत्रों में किसी भी खनिज के निष्कर्षण के अधिकार नहीं सौंपा जा सकता है। इस तरह के खनन को विशेष रूप से आदिवासी सहकारी समितियों या सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा ही किया जा सकता है।
चू (ब्) संख्या 180/2011 (उड़ीसा खनन निगम बनाम पर्यावरण और अन्य मंत्रालय) में, शीर्ष अदालत ने 18-4-2013 को एक आदेश सुनाया, जिसमें स्थानीय आदिवासी ग्राम सभा की तलाश के लिए सरकार पर कानूनी दायित्व को दोहराया गया। खनन से पहले या एक निजी खिलाड़ी को उस खनन गति विधि को सौंपने से पहले सहमति लेना बहुत जरुरी है। यह संभव है कि प्रस्तावित कोयला ब्लॉक नीलामी न्यायिक जांच का विषय बन जाए, क्या किसी आदिवासी समूह को इसकी वैधता पर सवाल उठाना चाहिए? इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि आदिवासी इलाकों में कोयला खनन आदि वासियों के जीवन, आजीविका और उनकी संस्कृति को बाधित करेगा। सरकार को कोयला ब्लॉकों की नीलामी पर फैसला लेने से पहले स्थानीय ग्राम सभाओं के विचार मांगने चाहिए। ऐसा करने में विफलता न केवल एक अवैधता का गठन करेगी, बल्कि लोकतंत्र की भावना को भी काउंटर करेगी और संविधान की अवमानना भी होगी। बोली लगाने वाले पहले की शर्तों में ढील लेने हेतु एकजुट हुए है। उसी का परिणाम यह है कि वर्तमान सरकार को ये अपने अनुकूल बना पाये। कोयले का उपयोग केवल पूर्व-निर्दिष्ट बंदी के उपयोग के लिए किया जा सकता है, कोयला मंत्रालय ने 41 कोयला ब्लॉक (11 एमपी, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में 9 और महाराष्ट्र में 3) की नीलामी के लिए पहचान की है।
दूसरे शब्दों में, कोयले का नीजिकरण और अंतिम उपयोग हेतु अब पहली बार खुला हुआ है। सरकार के निर्णय को गंभीरता से लेते हुए, नेशनल वाटर कम्युनिटी राष्ट्रीय जल बिरादरी की छतरी के नीचे पर्यावरण और जल संगठनों – 7800 सदस्यों के साथ 1570 संगठनों का एक महासंघ – शनिवार को कोयला नीलामी के पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की थी और और उसका निष्कर्ष प्रधानमंत्री को लिख कर भेजा है। संबंधित मंत्रियों व विभागों को महासंघ ने अपनी चिंताओं से अवगत कर दिया है। देखना है; हमारी लोकतांत्रिक सरकार लोक की चिंता पर ध्यान देगी या उद्योगपतियों की ही चिंता करेगी।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
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