
मेरे शहर में शाम कहां होती है?
मेरे शहर में शाम कहां होती है?
फक्त रात के अंधेरे में बात होती है
धुंधली रोशनी और चेहरा स्याह होता है
चेहरे की पहचान कहां होती है?
मेरे शहर में शाम कहां होती है?
यहां न सूरज ढलता है ना आसमां का रंग बदलता है
बस एक डरावना काला साया हर गली में बसता है
लोग मिलते हैं, मगर ऐसे जैसे अनजाने,
एक-दूसरे को देखते हुए भी, अनदेखा करते हुए
हर शब्द, हर हंसी, एक मुखौटे में छिपी होती है
मेरे शहर में शाम कहां होती है?
आवाजें आती हैं, पर उनमें अपनापन कहां?
सिर्फ और सिर्फ औपचारिकता का ही तो बंधन है यहां
दीवारों पर चिपकी पोस्टरों की तरह,
चेहरे भी बेजान हैं, सब दिखावटी है
मेरे शहर में शाम कहां होती है?
शाम का वो ठहराव, वो नर्म गुदगुदाती हवा,
वो धीमे से हौले-हौले बढ़ते कदम, अब कहां ?
यहां तो बस एक दौड़, एक अंधी दौड़ है
जहां हर कोई रात के अंधेरे में भाग रहा है
थकान, उलझन, और खोखली हंसी है
यही इस शहर का सच्चाई भी है
कहां गई वो शाम, जो घरों में दीयों का उजाला लाती थी ?
कहां गई वो शाम, जो छतों पर चाय की चुस्कियों के साथ शुरू होती थी ?
अब यहां न तो सूरज ढलता है, और न चांद निकलता है,
बस एक न खत्म होने वाली काली अंधेरी रात होती है
मेरे शहर में शाम कहां होती है?
*(इस कविता के प्रकाशित होने के कुछ देर बाद ही एक पाठक ने अर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा इसे लयबद्ध कर गीत के रूप में एक आकर दिया और हमें भेजा है जिसे हमने यहाँ प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है। उस पाठक ने संगीत का श्रेय लेने से इंकार कर दिया है और हम उनके निर्णय का सम्मान करते हैं।)
-सम्पादक
लाजवाब सर
Wah bahut sundar chitran hai manish kafi achhe se tumne Aaj ki tasveer ko mention Kiya hai abb pahle wali baat kahan abb logon ko waqt hi nhi hai evening acche se gujarne ka
एक नए रूप में रविवारीय आया है सर
इंसानी जज्बात और सोच को समेटे एक शानदार कविता।
क्या बात सर। जिस पाठक ने इसे लयबद्ध किया है उनको दिल से सलाम। कठिन कार्य है ऐसे कविता को लयबद्ध करना। बिना AI के मदद के यह कहीं से भी संभव नहीं लग रहा। टेक्नोलॉजी का इससे बेहतर उपयोग नहीं हो सकता।
Hats off to him.
कवि महोदय प्रतिक्रिया देने हेतु शब्द नहीं है………पर सत्यता यही है ❤🌹🙏🙏
कवि के रूप में पदार्पण, एक लाजवाब प्रस्तुति के साथ। बधाई हो !
यह कविता एक शहर की भागदौड़ भरी जीवनशैली और वहां के लोगों की मानसिकता पर एक गहरी टिप्पणी है। दूसरे शब्दों में कहें तो श्री वर्मा जी ने कविता के माध्यम से शहरी जीवनशैली में मानवीय मूल्यों व संबंधों के खोखलेपन पर भी करारा प्रहार किया है। इस प्रहार के मूलभाव में कवि की चिंता भी साफ -साफ महसूस की जा सकती है। कवि की यही चिंता समाज के प्रति उनकी संवेदनशीलता को उदघाटित करती है। श्री वर्मा जी की एक और विशेषता है कि वह अपने आसपास के हर बदलाव पर पैनी निगाह रखते हैं और बेबाकी से सबके सम्मुख कह भी देते हैं।
उपरोक्त संदर्भ के साथ ही वर्तमान में प्रासंगिक कुछ पंक्तियां निवेदित हैं–
एक दिन
मैंने,
शिल्प मेले से
खरीदा एक मुखौटा
हँसता हुआ
ऐसा नहीं की वहां
कुछ और नहीं था
पर ! किसी और चीज से ज्यादा
जरूरत उसी की थी
सुबह तैयार होते समय
विदेशी चश्में की तरह
लगा लिया चेहरे पर अपने
वह मुखौटा हंसता हुआ ,
परिचित हैरान थे,
कितना बदल गया है यह
कितना हंसमुख है
सोंचते, मिलने जुलने वाले लोग,
सबको हैरान करने के बाद
दिन डूबे घर लौट कर अपने
उतारता हूँ जब मुखौटा
निहारता हूँ आईने में
बुन रही होती हैं जहां
चेहरे पर
आठ पैरों वाली मकड़ी
महीन जाला , और
एक कोने में पड़ा मुखौटा
हंस रहा होता है
वैसे ही……।।
पुनश्च..
जब शब्दों का संगम सुरों से होता है तो शब्द-शब्द जीवन्त हो उठते हैं। इस काव्यपाठ का श्रवणपान करने से यही अनुभूति होती है। श्री वर्मा जी द्वारा रचित इस कविता को सुरबद्ध करके कविता के सौंदर्यबोध को बड़ी ही खूबसूरती के साथ गेय बनाने वाले को साधुवाद है।💐💐
Excellent