खेत-खलिहान -3
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
किसान अपनी आत्मीय ऊर्जा से प्रकृति का बराबरी से सम्मान करके उत्पादन करता है। इसका उत्पादन भगवान द्वारा नीर-नारी-नदी को नारायण मानकर होता है। भगवान् को यही किसान आज भी जानता और पहचानता है। भ-भूमि जिस पर नमी लाकर जुताई-गुड़ाई करता है व उसे तैयार करके बीज बो देता है। ग-गगन में बीज अंकुरित होकर जन्मता, बढ़ता, पकता, कटता, अनाज, सब्जी, दाल-भात व भोजन बनता है। व-वायु ही बीज की अंकुरण प्रक्रिया से लेकर, पकने तक पौधों की श्वसन क्रिया द्वारा जीवित रखने का काम करती है। अ-अग्नि-सूर्य ही ऊर्जा का आधार है। अंकुरण से पकने तक बीज से बीज बनने तक सदैव ऊर्जा की आवश्यकता सूरज ही पूरी कर सकता है। न-नीर (जल ही जीवन है) जीवन की शुरुआत ही जल से हुई है। जीव से ही बीज बना है। बीज को आरंभ से अंत तक जल ने बनाया है। जल जीवन के शुरुआत, अन्न-बीज की शुरुआत से अंत तक है।
किसान अपनी ऊर्जा को समझ कर सृष्टि संसार का अन्नदाता बनता है। यही जीवन बनाने-चलाने के सारे काम प्रकृति के सम्मान से करता है। तभी तो यह नीर को जन्म, नारी को जन्मदात्री, नदी को जीवन प्रवाह सांस्कृतिक, अध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सभी प्रवाहों को आधार मानता है। यही किसान की अपनी आत्मीय ऊर्जा है।
किसान की प्राकृतिक कामना व सद्भावना का जन्म तो आत्मीय ऊर्जा की संवेदनाओं से होता है, लेकिन एटम बम का जन्म पावर (शक्ति) करती है। शक्ति की इच्छा हेतु शक्ति प्राप्त करने की ही खोज होती है और उसका उपयोग भी हम शक्ति पाने की चाह में ही करते हैं। शक्ति से युद्ध होता है; जबकि ऊर्जा से दुनिया में पुनर्जनन प्रक्रिया द्वारा शक्तिमय-शांतिमय समृद्धि बनती है।
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भारत की प्रकृति समझ में ऊर्जा थी। वही भारतीय ज्ञान दुनिया को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ कहकर एक करने वाली ऊर्जा से ओतप्रोत करता था। तभी तो हमारी ऊर्जा से हम जैसलमेर जैसे कम वर्षा वाले क्षेत्र को पुराने जमाने में ही आज के डी.सी. वाशिंगटन से भी बड़ा शुभ व्यापार केन्द्र बना सके थे। लम्बे समय तक हम इस रास्ते काबुल, कंधार, कजाकिस्तान, म्यांमार आदि देशों में ऊंटों के द्वारा व्यापार करते रहे। वह ऊर्जा का प्रतीक था। ऊर्जा और शक्ति में आजकल हमने विभेद करना छोड़ दिया। शक्ति को ही ऊर्जा कहने लगे। शक्ति निजी लाभ के रास्ते पर चलती है, जबकि ऊर्जा शुभ के साथ रास्ता बनाती है। इसलिए शक्ति विनाश और ऊर्जा शुभ, सुरक्षा और समृद्धि प्रदान करती है।
ऊर्जा प्राकृतिक समृद्धि का सातत्य कायम रखते हुए मानवता को उत्पादक सृजनशील बनाकर रखती है, लेकिन शक्ति तो नष्ट करने का आदेश भी देती है। जैस आज दुनिया के सभी हवाई अड्डों पर हर समय घोषणा होती है। लावारिस सामान को नष्ट कर दिया जायेगा, इसलिए कुछ भी लावारिस ना छोडे़ें। लावारिस की परवरिश करने का भाव जब समाज से नष्ट होता है, तो समाज में स्थायी क्रमबद्ध विकास (सनातन विकास) नहीं होता। सदैव नित्य आवर्तन निर्माण नूतन नहीं रहता, नष्ट होता रहता है। सनातन तो कभी नष्ट नहीं होता, बल्कि सदैव नया आवर्तन करता रहता है।
संस्कृत सूत्रों की भाषा है। इसलिए इसमें भगवान को बहुत ही सरलता से परिभाषित किया था। वैदिक काल तक भगवान् की परिभाषा भ-भूमि, ग-गगन, व-वायु, आ-अग्नि तथा न-नीर था। वैदिक काल के बाद व्यक्ति ही भगवान बनने लगा। व्यक्ति को अपनी शक्ति कायम रखने हेतु शास्त्रों का निर्माण करना पड़ा; उसी में व्यक्ति पूजा आरम्भ कराने वाले शास्त्र सृजन किय गये। शास्त्र और शक्ति सृजन एक जैसे ही होते हैं। जीवन शास्त्र तो जीवन को समानता की तरफ बढ़ाता है। हाथी और चींटी दोनों को समान हक देने वाला तो प्राकृतिक कानून है।
मानव व प्राकृतिक हक की समानता ही सत्य है, लेकिन मानवीय बुद्धि में जब अतिक्रमण करने वाली प्रबंधकीय शिक्षा का प्रभाव बढ़ता है, वही प्रकृति के हक पर कब्जा करता है। तब प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी का कौशल बढ़ता है। उसी से वह प्रकृति का शोषण शुरू कर देता है। यही धरती के अंदर से खनन करता है। नदियों की आजादी नष्ट करके उन्हीं का शोषण शुरू कर देता है। शोषण से प्रदूषण शुरू हो जाता है। यह सब जब मानवीय व्यवहार और संस्कार में प्रवेश होता है, तब केवल प्राकृतिक संसाधन धरती, नदी, जल-जंगल, जीवन सभी कुछ शोषण का शिकार होने लगता है। शोषण संस्कृति नहीं, सभ्यता बनकर काम करता है। मानव ही प्राकृति के ऊपर अतिक्रमण करने के तरीके खोजता है। जैसे आजकल नदी सौन्दर्यीकरण के नाम पर नदी का अतिक्रमण हो रहा है।
भू-जल भण्ड़ारों को उपयोगी बनाने के नाम पर भू-जल भण्ड़ारों पर प्रदूषण और अतिक्रमण हो रहा है। आज सुंदर शब्दों का ‘सृजन’ ही अतिक्रमण करने के काम आ रहा है। यह मानवीय शक्ति, प्रौद्योगिकी और अभियांत्रिकी द्वारा ही बढ़ा कर किया जा रहा है। ऊर्जावान लोग अतिक्रमण नहीं करते, वे सदैव नित्य-नूतन आवर्तन निर्माण करते हैं। नित्य नूतन निर्माण में हिंसा नहीं होती है। यह सदैव शक्तिमय अहिंसक सृजन प्रक्रिया है।
आज सृजन प्रक्रिया को रोककर पूरे ब्रह्माण्ड़ में प्रदूषण बढ़ जाता है। केवल प्राकृतिक प्रदूषण बढ़ा है, ऐसा ही नहीं है; हमारी शिक्षा ने मानवीय सभ्यता और सांस्कृतिक प्रदूषण को भी बुरी तरह बढ़ा दिया है। अतिक्रमण, शोषण, प्रदूषण इन तीनों को हमारी आधुनिक शिक्षा ने ही बढ़ाया है। जब विखंडित शिक्षण होता है, तभी आर्थिक लोभ-लालच बढ़कर हिंसक रूप धारण करता है। अतिक्रमण, प्रदूषण, शोषण हमारी हिंसक शिक्षा की ही देन है।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।