रविवारीय: ऊंचाई – एक फिल्म!
– मनीश वर्मा ‘मनु’
ऊंचाई से दुनिया कैसी दिखती है? वैसे तो दुनिया बड़ी ही खूबसूरत है। और जब आप ऊंचाई पर हों तो कहना ही क्या। अभी अभी एक फिल्म आई है – ऊंचाई ।नाम शुरू में थोड़ा अटपटा सा लगा। लगा, पता नहीं फ़िल्म कैसी होगी। हिरोइन परिणीति चोपड़ा। हीरो का स्लॉट खाली। बाकी सारे नामचीन कलाकारों से फ़िल्म भरी हुई। कुछ गुज़रे ज़माने के अदाकार भी। मन में एक सवाल सा उठा। स्वाभाविक ही था। समीक्षा अभी आई नहीं थी।
ख़ैर! फ़िल्म में चार दोस्त होते हैं। सभी अपने अपने जिंदगी के महत्वपूर्ण दिनों को जी चुके हैं।पर, उनकी जीवन जीने की जिजीविषा अब भी क़ायम है। सभी गुज़रे ज़माने के बेहतरीन कलाकार। पर, इस फिल्म को देखकर कहीं से भी ऐसा नहीं लगता है कि उनके दिन ख़त्म हो चुके हैं।
फिल्म की शुरुआत होती है डैनी डेन्जोंगपा की जन्मदिन पार्टी से। जी हां कन्फ्यूज मत होइएगा। ये वही डैनी हैं। अपने समय के बेहतरीन कलाकार। कहानी के मुताबिक कहीं भी फिट कर लो। बाकी, द लिविंग लीजेंड अमिताभ बच्चन, चरित्र अभिनेता अनुपम खेर और बोमन ईरानी। इन सभी की अदाकारी के बारे में कुछ भी कहना मानो सूरज को दिया दिखाना है।सभी मिलते हैं। हंसी मज़ाक, खाना पीना और गाना बजाना होता है।
डैनी जो एक नेपाली व्यक्ति का किरदार निभा रहे हैं, उनकी बचपन की यादें पहाड़ों से जुड़ी है। हिमालय की वादियों में उनका बचपन और जवानी कैद है। बातें एक पहाड़न और उसकी बेमिसाल खुबसूरती की होती है। पार्टी में ही तय होता है कि कुछ दिनों के बाद सभी माउंट एवरेस्ट के बेस कैंप तक चलेंगे। जन्मदिन के अगले दिन ही डैनी की हार्ट अटैक से मौत हो जाती है।
बस यहीं से ऊंचाई की शुरुआत होती है। डैनी के घर पर चारों दोस्तों के लिए बेस कैंप तक जाने के लिए टिकट मिलता है। मित्र की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए, शुरूआती ना नुकुर के बाद, सभी जाने को तैयार हो जाते हैं। हालांकि उम्र इस बात की इजाज़त नहीं देता है। यहीं तो पता चलता है कि उम्र तो बस नंबरों का खेल है। असल बात तो जिंदगी जीना है।
अब कहानी फ़्लैश बैक में चलती है। कुंवारी पहाड़न से शुरू हुई यह फ़िल्म हर कुछ देर पर जिंदगी का एक नया फलसफा बताती हुई आगे बढ़ती है। दो पीढ़ियों के बीच के अंतर्द्वंद्व को दर्शाती हुई और उनके साथ सामंजस्य बिठाती हुई हमारी बुजुर्ग पीढ़ी। फ़िल्म आगे बढ़ रही है। बीच में लंबे सफ़र, माउंट एवरेस्ट के बेस कैंप तक जाने की यात्रा पर निकली युवा बुजुर्गों की खुद से ड्राइव करती हुई टोली। हल्के फुल्के अंदाज में मज़ाक और नोंक झोंक चलता हुआ।
बीच बीच में नीना गुप्ता, नफीसा अली और बहुत दिनों के बाद रुपहले पर्दे पर आई सारिका के साथ खरामा खरामा फिल्म आगे बढ़ती हुई…संयुक्त परिवार की कुछ मुश्किलें भी दिखाती हुई।
इस फ़िल्म की हर बात एक खास है। फ़िल्म पुरी तरह से बुजुर्गों को समर्पित है। फ़िल्म के सभी कलाकार सिर्फ परिणीति चोपड़ा को छोड़कर, सभी लगभग सत्तर साल से ऊपर के हैं। फ़िल्म में कोई हीरो नहीं है। पेड़ों के इर्द गिर्द नाच गाना और क्लबों में युवाओं की मस्ती भी नहीं है। फिर भी आप कहीं बोर नहीं होते हैं। कहीं कहीं पर तो फ़िल्म देखते हुए आप बिल्कुल ही संजीदा हो जाते हैं। आंखों के कोर पर आ चुके आंसू को बमुश्किल रोकने की कवायद शुरू हो जाती है। ट्रेकिंग लीडर के रोल में परिणीती चोपड़ा का काम सराहनीय है।
यह फ़िल्म संदेशों का एक पिटारा है। हिमालय के बेस कैंप तक जाना जहां युवाओं के लिए एक दुरूह काम है उसे अंजाम दिया है सत्तर और पिचहतर की उम्र पार कर चुके युवा बुजुर्गों ने। जी हां, मैं तो उन्हें यही कहूंगा ” युवा बुजुर्ग ” ।
प्रारब्ध तो तय है तो फिर किस बात से परहेज़। जिंदगी जीना तो एक कला है। यह कला तो आनी ही चाहिए।
फिल्म देखने की उत्सुकता पैदा करती एक समीक्षा
आपकी अभिव्यक्ति से तो फिल्म का भूमिका और प्रारूप बहुत ही आकर्षक है धन्यवाद एवं साधुवाद हम सभी लोगों तक इस भूमिका को प्रस्तुत करने के लिए
फिल्म समीक्षकों की भीड़ से अलग हट कर, फिल्म समीक्षा की विधा में भी अपने ही ‘स्टाइल’ में परचम लहराते मनीश “मनु” जी। फिल्म के कथानक के संक्षिप्त विवरण के साथ आकर्षक टिप्पणी एवं उनका दृष्टिकोण काफी सराहनीय है।
Wah Manu film samiksha m bhi parangat qya khubsoorti se tumne tippni Ankit ki hai bahut badhiya baki Film dekhne k baad
समीक्षा तो बाध्य कर रही है फिल्म देखने को पर असल सवाल तो यह कि यह फिल्म मेरे शहर में लगेगी?लगेगी भी तो कितने दिन चलेगी?
वैसे प्रयास रहेगा कि दूसरे माध्यमों से देखी जाय।
Qya khoob samiksha Kiya hai Manu ab to film dekhna hi padega writer se tum achhe samikchak bhi ban gaye bahut bahut Mubarak