पर्यावरण एक ऐसा विषय है जिसके सामने सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। आज हम अपने गणतंत्र के 75 साल पूरे कर 76वें साल में कदम रख रहे हैं। गणतंत्र केइन साढे़ सात दशकों में सभी उपलब्धियां के बावजूद पर्यावरण एक ऐसा संकट है जो आज जो भयावह रूप अख्तियार कर चुका है उसके आगे हम बेबस दिखाई देते हैं।
पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं के निराकरण पर अंकुश लगा पाने में मिली विफलता ने इन पचहत्तर सालों में हर भारतीय के जीवन को संकट में डाल दिया है। मनुष्य तो क्या इनसे पक्षियों की आबादी भी अछूती नहीं रही है। यह भी सच है कि यह सब प्रकृति के प्रतिशोध का नतीजा है जिसे हम भुगतने को विवश हैं। धरती पर दिन-ब-दिन गहराता जा रहा संकट इसका जीता-जागता सबूत है जिसमें जलवायु परिवर्तन का योगदान अहम है। इससे साल-दर-साल होते गर्म दिनों की संख्या, चरम मौसमी घटनाओं में बढ़ोतरी, तापमान में बढ़ोतरी के टूटे रिकार्ड, ला-नीना की आशंका के चलते प्राकृतिक आपदायें यथा-बेतहाशा बारिश या सूखे की भयावहता को नकारा नहीं जा सकता। राष्ट्रीय महासागरीय और वायुमंडलीय प्रशासन यानी एन ओ ए ए ने तो इसकी घोषणा ही कर दी है।
जहां तक पर्यावरण नीति का सवाल है, हमारे यहां वह शुरूआत से ही सवालों के घेरे में है। जबकि जरूरी यह है कि पर्यावरण नीति ऐसी होनी चाहिए जो जल, जंगल, जमीन की एकीकृत नीति को प्रदर्शित करती हो। लेकिन यहां ऐसा कतई दिखाई नहीं देता। हकीकत यह है कि हमारे देश में जल, जंगल, जमीन और खनन की अलग-अलग नीतियां है। भारत सरकार ने पर्यावरण नीति- 2006 भी बनायी। उसमें कहा गया है कि स्वस्थ पर्यावरण के लिए कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 33 प्रतिशत क्षेत्र में वनावरण होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में आज भी 23 प्रतिशत से अधिक वनावरण नहीं है।
विकास कार्यों के लिए वनों के कटान को संयमित करने के लिए पर्यावरण प्रभाव के आकलन का प्रावधान है। पर गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने 2023 में वन नीति में नया संशोधन करके पर्यावरण प्रभाव के आकलन की शर्तों को बहुत कमजोर कर दिया है। यही नहीं बॉर्डर एरिया डेवलपमेंट प्रोग्राम के नाम पर पर्यावरण प्रभाव आकलन की जरूरतों को ही खत्म कर दिया गया है। उसके कारण हिमालय के ऊंचे से ऊंचे क्षेत्र में जहां ग्लेशियर और बचे- खुचे वन हैं, वहां विकास के नाम पर बड़े पैमाने पर वनों की हजामत की जा रही है। यह पूरे देश की स्थिति है। आल वैदर रोड व उत्तराखंड को पर्यटन का केन्द्र बनाने की ख़ातिर लाखों देवदार के पेड़ों को विकास यज्ञ की समाधि बना दी गयी है।यह सिलसिला आज भी जारी है जिसका विरोध करना भी आसान नहीं है। यह समूचे देश की स्थिति है।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि हमारे यहां जिस तरह पर्यावरण नीति बनायी गयी है, उसके कई सारे प्रावधानों का विवरण जल, वन और जमीन की नीतियों में भी मिलता है जहां हर रोज कुछ न कुछ नया संशोधन करके एक साजिश के तहत बहुत आसानी से हरियाली को समाप्त किया जा रहा है। उसी का परिणाम है कि उसके कारण ही पर्यावरण नीति के विषय पर राज्य और केंद्र की सरकारें विशेष कदम नहीं उठा पाती हैं। पर्यावरण नीति और वन अधिकार कानून- 2006 को बनाना बहुत अच्छा संदेश था लेकिन इन दोनों कानून को क्रियान्वित करने में बहुत निराशा सामने आती है।
हमारे देश में पर्यावरण जागरूकता के रूप में भी अधिकतर वनों के संरक्षण पर ही चर्चा होती है।लेकिन वनों पर निर्भर जीवधारी, जड़ी बूटियां, छोटी-बड़ी वनस्पतियों का जो समूह है, उसको अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। पर्यावरण नीति में कहीं न कहीं जल, जंगल, जमीन, खनन के विषय पर अलग-अलग विवरण अवश्य है लेकिन जिस तरह से उसे सभी प्राकृतिक संसाधनों की नीति का एक एकीकृत दस्तावेज होना चाहिए था, वह भावना कहीं दिखाई नहीं देती है। इसलिए इन मुद्दों पर आगे विचार की आवश्यकता है क्योंकि प्राकृतिक संसाधन- जल, जंगल, जमीन को पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में ही रखने की जरूरत है।
*वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद।