
रविवारीय: विवाह
अख़बार के पूरे पन्ने इसी तरह की ख़बरों से पटे पड़े रहते हैं – कहीं किसी ने, विश्वास में लेकर, उस साथी को — जिसके साथ उसने सात फेरे लेकर साथ साथ जीने-मरने की कसमें खाई थीं — धोखे से मौत की नींद सुला दिया। कहीं मामी अपने भांजे के साथ घर बसाने को आतुर है। हालिया, अलीगढ़ जनपद की घटना जहां सास ने अपने ही दामाद को अपना जीवनसाथी मान लिया है, तो मेरठ शहर में घटी एक घटना जहां मुस्कान ने अपने इतर संबंधों की आग में अपने पति साहिल की ज़िंदगी को भस्म कर डाला। पति को खुद तो जेल गई ही साथ में बेटी को भी अनाथ बना दिया।
इस तरह की ज्यादातर घटनाओं के पीछे कहीं न कहीं अवैध संबंध हैं। रिश्ते तार तार हो रहे हैं। मर्यादा खत्म हो रही है। हमने खुद को सिर्फ ‘पुरुष’ और ‘महिला’ के सांचों में सीमित कर दिया है। रिश्ते अब केवल सौदे बनकर रह गए हैं — भावनाओं का कोई मूल्य नहीं, मर्यादाओं का कोई मान नहीं। जो बातें कभी स्वप्न में भी अकल्पनीय थीं, वे आज निर्विकार रूप से हमारे सामने घट रही हैं। रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। विश्वास का कोई नामोनिशान नहीं बचा।
संवेदनाएं बड़ी प्रबल वेग से हिलोरें मार रही हैं। मन काफी खिन्न और अशांत हो चला है। आज इसी अशांत मन से विवाह नामक संस्था की बात करते हैं।
जी हां, विवाह — केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि एक सदियों पुरानी संस्था है। एक ऐसा बंधन, जिसकी पवित्रता को बचाए रखने के लिए न जाने कितनी पीढ़ियाँ अपनी पूरी ज़िंदगी समर्पित कर चुकी हैं। विवाह दो शरीरों का मिलन मात्र नहीं है, यह दो आत्माओं का, दो परिवारों का, दो संस्कृतियों का मिलन है। यह विश्वास की नींव पर खड़ी एक अदृश्य इमारत है।
परंतु आज… शायद यह संस्था अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। जिस परस्पर विश्वास पर यह टिकी थी, वह विश्वास अब दरक चुका है।
कभी हम संयुक्त परिवारों में रहते थे — सीमित संसाधनों के बावजूद मर्यादा और अनुशासन की दीवारें इतनी मजबूत थीं कि संबंधों की गरिमा अक्षुण्ण रहती थी। समयाभाव था, पर संवेदनाओं का अभाव नहीं था। कभी एक खत, एक तस्वीर, एक स्मृति — जीवन भर की पूंजी बन जाती थी।
आज कहां खो गया वह निश्छल प्रेम ? कहां विलीन हो गई वह पवित्रता, वह आत्मीयता ?
अभी अचानक से ऐसा महसूस होने लगा है कि हम एक भीषण संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। कुछ भी स्थिर नहीं है। चारों ओर अजीब सी उथल-पुथल मची हुई है — जैसे धरती अपनी धुरी से हिल गई हो। आज तो जैसे इंसानियत ही दम तोड़ चुकी है।
कुछ वर्षों पहले तक जब ‘तलाक’ शब्द सुनते थे, तो लगता था कि यह शब्द हमसे बहुत दूर है — केवल गिने-चुने लोगों के लिए बना है। पर आज… यह शब्द हमारे समाज में बड़ी तेजी से घर कर गया है। बिना झिझक, बिना पछतावे के, संबंधों की डोर को तोड़ दिया जाता है — मानो कोई बोझ हल्का किया जा रहा हो।
क्या यही वह समाज है जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी ? क्या यही वह मानवता है जिस पर हम गर्व करते थे ? कभी हमें हमारे संबंधों और रिश्तों पर अभेद्य विश्वास था, पर अफ़सोस वो विश्वास धीरे धीरे टूट की ओर अग्रसर है। हे प्रभु! इन्हें सद्बुद्धि दो। इन्हें समझ दो कि संबंधों की कीमत क्या होती है। उन्हें यह अहसास हो कि विवाह कोई बंधन नहीं, एक तपस्या है। एक व्रत है, जो आजीवन निभाया जाता है।
हम तो जैसे थक चुके हैं। पर हमारी आँखें अभी तलक उम्मीदों से भरी हैं — कि कहीं से कोई उजाला फूटे, कहीं से कोई नया विश्वास जन्म ले। लेकिन इस अंधकार में भी एक प्रार्थना बची है — “हे जीवनदाता! इन भटके हुए पथिकों को सही राह दिखा , ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं ।”
आपने मेरे मन की बात लिख दी है.!
अफसोस ये है कि हमलोग कुछ कर नहीं पा रहे.
अब अपने परिवार की नई पीढ़ी को संस्कारवान बनाना और रिश्तों का मूल्य समझाना बहुत ही जरूरी हो गया है.
सार्थक लेख!
Aaj k samaj k bare m ye vibrant bilkul sahi hai sentiments ka koi jagah hi nhi hai illegal relation ki aar m kuchh bhi possible ho ja raha hai jinke bare m sochna bhi paap thha Aaj bina hichak anjam ho raha hai hme inn sabse aage badh k ek healthy samaj k nirman k baare m sochna padegaa nhi to anne wale dino m.relatoins ka koi importance ho nhi rah jayega
“विवाह ” जो एक सामाजिक संस्था है पर आधारित यह ब्लॉग समकालीन समाज में संबंधों के विघटन और विवाह संस्था के संकट को अत्यंत संवेदनशीलता एवं पैनी दृष्टि से उद्घाटित करता है। इस ब्लॉग में जिस प्रकार पारंपरिक मूल्यों के क्षरण और भावनात्मक शून्यता की पीड़ा को उकेरा गया है, वह पाठक के अंतर्मन को गहरे तक झकझोर देता है। ब्लॉगर श्री वर्मा जी ने विवाह को केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि एक आत्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मिलन के रूप में चित्रित किया है। वे दिखाते हैं कि कैसे आज अवैध संबंधों, स्वार्थपरता और संवेदनहीनता ने इस पवित्र संस्था की नींव को ही हिलाकर रख दिया है। विश्वास, मर्यादा और संयम — जो कभी विवाह के अभिन्न स्तंभ थे — अब खंडित और बिखरते प्रतीत होते हैं। इस ब्लॉग में संयुक्त परिवारों के सीमित साधनों में भी प्रेम, मर्यादा और अनुशासन के सौंदर्य को अत्यंत मार्मिकता से चित्रित किया है, वहीं आज के एकाकी जीवन के भावनात्मक रिक्तता और संबंधों के कृत्रिम स्वरूप की गहन आलोचना भी की गई है। तलाक जैसी घटनाओं की बढ़ती प्रवृत्ति को लेकर उठाई गई चिंता समाज के नैतिक पतन पर करारी चोट करती है।
निष्कर्षतः “विवाह ” पर आधारित यह ब्लॉग न केवल आज के समाज का एक यथार्थवादी दर्पण प्रस्तुत करता है, बल्कि एक मौन पुकार भी है — अपने मूल्यों, अपनी संवेदनाओं और अपनी सांस्कृतिक विरासत को पुनः पहचानने और सहेजने की।
सही कहा आपने. रिश्तों का कोई मोल ही नही रहा अब. जन्म जन्म के रिश्ते कभी भी एकदम से खत्म हो जा रहे हैं. ये सभी तरह के संबंधों मे हो रहे हैं. लोग या तो दुश्मन या अजनबी हो जा रहे हैं. जिंदगी अब उतनी सरल नही रही, इसलिए लोगों की कुछ भी बर्दास्त करने की क्षमता कम होती का रही है.
Lakhaiyar