– शंकराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती*
काशी: काशी में एक ज्योति है इसी कारण लोग काशी को सर्वप्रकाशिका कहते हैं। यहाँ वह ज्योति ज्ञान की ही ज्योति है जिसके प्रचार-प्रसार यहाँ के विद्वानों द्वारा हो रहा है। इसलिए यह नगरी सर्वप्रकाशिका के रूप में विख्यात है। हम सभी जानते है कि यह भौतिक संसार असार है। परन्तु हमारे शास्त्र यह स्पष्ट उद्घोष करते हें कि इस असार संसार में चार ही सार तत्व हैं – काशी का वास, सज्जनों का संग, गंगाजल और भगवान शिव। इनमें क्रमशः चीजें तो अन्य स्थान पर भी उपलब्ध हो जाती हैं परन्तु भगवान शिव तो काशी में ही मिलेंगे।
वेद और शिव में कोई अन्तर नहीं है। वेद ही शिव है और शिव ही वेद है। वेदाध्यायी साक्षात् शिव हैं। लोग जब काशी आते हैं तो वे गोस्वामी तुलसीदास जी की पंक्ति “जहॅ बस शम्भू भवानी” के आधार पर यहाँ भगवान शिव को खोजते हैं पर हमारे शास्त्र यह स्पष्ट उद्घोष करते हुए कहते हैं कि “वेदो शिवः शिवो वेदः वेदमूर्ति सदाशिवः”
अर्थात् वेद और शिव दोनों मे अमेद है और वेदमूर्ति को सदाशिव कहा गया है। इसलिए जो वेद का अध्ययन-अध्यापन करता है वह साक्षात् शिव ही होता है। इसलिए यदि काशी में भगवान शिव का दर्शन करना हो तो वेद-मूर्तियों का दर्शन करना चाहिए।
जिस प्रकार से ऋतुओं में वसन्त ऋतु सबसे अधिक पसन्द को जाती है उसी प्रकार से वेद के सन्दर्भ में वसन्त पूजा सबसे अधिक लोकप्रिय है। इस पूजन के माध्यम से वेद की सभी शाखाओं का समय-समय पर पारायण वैदिकों द्वारा करके वेद को उसके उसी रूप में संरक्षित करने का कार्य किया जाता है।
जब व्यक्ति मन मे भगवती गंगा का स्मरण करता है तो पाप उससे दूर हट जाते हैं और व्यक्ति के गंगा जी की ओर कदम बढ़ाते ही पाप उससे कोसो दूर भाग जाते हैं और जब व्यक्ति भगवती गंगा का जल अपने ऊपर छिड़कता है या गंगा में डुबकी लगाता है तो उसकी 101 पीढियां तर जाती हैं।हम सबका सौभाग्य है कि भगवती गंगा का सानिध्य व कृपा प्राप्त हो रहा है।भगवती गंगा ने ब्रम्हा जी से कहा था कि जिस दिन धरती पर लोगो की आस्था हमसे समाप्त हो जायेगी उसी दिन हम स्वर्ग गमन कर जायेंगे।भगवती गंगा हमलोगों के मध्य चिरकाल तक रहें इसके लिए हमलोगों को निरंतर भगवती की पूजन कर उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करनी होगी।
धर्म का कार्य करने के लिए किसी सिंहासन या उच्च पद की आवश्यकता नही होती अपितु दृढ संकल्प की आवश्यकता होती है। बहुत से लोग बड़े पदों पर नही हैं लेकिन फिर भी धर्म कार्य कर रहे हैं। इसलिए हम यह समझते हैं कि धर्म कार्यों में सिद्धि के लिए किसी संसाधनों की नहीं, अपितु संकल्प की आवश्यकता होती है। पूर्व में भी श्रीविद्यामठ में शास्त्रार्थ सभा आयोजित होती रही है और आगे भी होती ही रहेगी।
*उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर
प्रस्तुति: सजंय पाण्डेय