– रमेश चंद शर्मा*
समूह पूरा ख़राब नहीं होता मगर कुछ के कारण भुगतना सबको पड़ता है
दिल्ली विश्विद्यालय की एन. सी. सी., नेशनल कैडेट कोर की ओर से आर्मी अटेचमेंट देहू रोड पुणें, महाराष्ट्र में भाग लेने के लिए जिन कैडेटों का चयन हुआ उसमें अपना भी नाम शामिल था। रेल से दिल्ली से बंबई, मुंबई का आरक्षण हुआ। वहां से पूना, पुणें मार्ग पर देहू रोड।
स्टेशन के लिए गाड़ी पकड़कर पहुंचे। वहां से आर्मी की अपनी व्यवस्था थी। कैम्प स्थल जंगल के किनारे बड़ी संख्या में टेंट लगे थे। एक टेंट में कई कई साथियों को रहना था। ब्लाक के हिसाब से संडास, स्नान की अलग अलग व्यवस्था बनी हुई थी। सुबह से शाम तक का व्यस्त कार्यक्रम तय था। परेड, सफाई, व्यायाम, दौड़, जंगल मार्च, हथियार शिक्षा, प्रशिक्षण, विशेष ड्यूटी, गेट पर गार्ड, किसी विशेष स्थान की सेवा, सुरक्षा आदि।
सब कुछ अनुशासित ढंग से, शक्ति के साथ चल रहा था। हमारे साथ आए कुछ साथियों को इसमें मजा नहीं आ रहा था। वे शरारत भी भरपूर और तरह तरह की करते, लगभग रोज। शिविर में ऐसे और भी कई प्रदेशों के लोग थे। जिनको जब सजा मिलती तो मालूम पड़ता की और भी कुछ लोग है। दिल्ली के दो तीन तो कुछ ज्यादा ही बदनाम हो गए थे।
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सजा अब व्यक्तिगत ना रहकर समूह की बना दी गई। जिस टेंट में गडबड हुई उसके सभी सदस्यों को सजा मिलती या फिर नाम बताने की शर्त रखी गई। नाम बताकर झगड़ा मोल लेना आसान नहीं क्योंकि मामला यहीं समाप्त होने वाला नहीं था। वापसी रास्ते में साथ यात्रा करनी थी, दिल्ली साथ जाना था। मामला रोज रोज उलझता ही जा रहा था। कुछ नया सीखने से ज्यादा इसमें समय ज्यादा जा रहा था की इन शरारत करने वालों से कैसे बचा जाए। एक भैंस सबको गाद लगा दे या एक खराब फल पूरी टोकरी को ही बिगाड़ दे या हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी लेकर डूबेंगे।
यहाँ तो मामला एक से ज्यादा का था। इसके लिए रात की विशेष ड्यूटी लेना और दिन में सोना। मगर यह रोज रोज करना संभव नहीं था। किसी तरह से ले दे करके समय निकला। जितना देख, सीख पाए उसी से संतोष कर लौट कर बुद्धू घर को आए।
समूह पूरा ख़राब नहीं होता मगर कुछ के कारण भुगतना सबको पड़ता है। करे कोई, भरे कोई। अति, अंधा अनुशासन, कानून के नाम पर अच्छों पर जुल्म करने का इस प्रकार का ढ़ंग ठीक नहीं लगता। इधर पड़े तो कुआँ, और उधर पड़े तो खाई।
सही व्यक्ति क्या करे, कहां जाए? इस मुसीबत से कैसे बचा जा सकता है? यह सवाल अभी तक समझ नहीं आया है। आखिर तय किया कि इस व्यवस्था से दूर हटना ही अच्छा है। अपन ने सोच समझके ऐसे छोड़ दिया।
छोड़ने से पहले गोली चलाना जैसे काम तो सीख लिए थे। नागरिक रायफल्स प्रशिक्षण के माध्यम से भी गोली चलाना सीखा था। आग बुझाने, अग्नि शमन, फर्स्ट एड, सेंट जोन एम्बुलेंस, स्काउट का प्रशिक्षण तो स्कूल के समय ही मिल गया था।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।