-डॉ. राजेन्द्र सिंह*
मानवता व प्रकृति से प्रेम और ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत की पालना करना भारत की विरासत है। उसी ने हमें भारतीय आस्था से हमारी पर्यावरण रक्षा को दुनिया का गुरु बनाया था। हमारे जीवन को जीने के सभी रास्ते सरल और सीधे थे। सादगी, सरलता और सहजता ने हमें दुनिया का गुरु बनाया था। हमने जब तक जीवन को सबसे बड़ा तीर्थ माना था, तब तक हम ‘नीर-नारी-नदी’ का सम्मान करने वाले बने रहे थे। हम जिसे भगवान् कहते थे, उसे भी जानते थे। उससे हमारी बहुत अच्छी पहचान थी। वह हमें भी जानता था। भक्त और भगवान् को मिलाने हेतु बीच में कोई पुजारी या व्यापारी नहीं था। उत्पादक और उपभोक्ता के बीच कोई दलाल नहीं था। उत्पादनकर्ता और उपभोगकर्ता सीधे एक दूजे से जुडे़ हुए थे।
भारतीय ज्ञानतंत्र दुनिया को सिखाता था। आज हम अपने आपसे और अपनों से सीखना भूले, तो अपनी विरासत को भी भूल गये। अब हम अपना कुछ भी नहीं सीखते। हमारी जो कुछ भी सीख है, वह विरासत से ही है। उनका अपना कुछ भी नहीं, जो विरासत से सम्बन्ध नहीं रखते हैं। सभी शोषक, प्रदूषक, हिंसक, अतिक्रमक सभ्यता जो कुछ भी है, वह केवल लूटकर बनी थी। लूटने वाले ही हिंसक व संवेदनहीन होते हैं। हिंसक सभ्यता और संस्कृति वाले दूसरों को भी वही सिखाते हैं। हम आज उन्हीं के रास्ते पर चलने वाली शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
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हमारी विरासत अपने पसीने की कमाई से ही खाती थी। मेहनत किये बिना हम प्रकृति से लेने वाले नहीं थे। हमारे शास्त्रों में त्याग करके ग्रहण करना ही कूट-कूट कर भरा था। प्रातः उठते ही अपनी ‘जन्मदात्री माँ’ और ‘पोषक माँ’ (धरती) को हाथ जोड़कर प्रणाम करते थे। आनन्ददात्री आध्यात्मिक गंगा माँ का स्मरण करके अपना दिन शुरू करते थे। आज हम गंगा, गायत्री, गोतम, गांधी, गाँव, गाय सब कुछ भूलते ही जा रहे हैं। हमें ये ही अपनी मूल संस्कृति से जोड़कर रखते थे। हमारी कथित शिक्षा ने ही इन्हें भुलाया है। विरासत को जाने बिना शिक्षा होती ही नहीं है। भारत जैसे देश की अपनी विरासत को जाने बिना कोई आधुनिक कैसे होगा?
जो अपने मूल ज्ञान को जानकर उसकी गहराई से आज के सवालों का समाधान ढूँढ़ता है, वही आधुनिक होता है। वह समस्या ही नहीं, स्थिति को पहचानकर उसका अहसास करके समाधान हेतु आभास लगाकर अपने अनुभवों से अनुभूत होकर आगे बढ़ता है। भारत में गणनाओं की शिक्षा की अपेक्षा अनुभूतियों का सम्मान बहुत ज्यादा था। इसीलिए अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हमें बुनियादी शिक्षा और सीख देती थी। वही सीख गुरुकुल के गुरु देते थे। वही माँ-बाप और बडे़ बुर्जुग देते थे। हमारे यहाँ नित्य प्रति सिखाने का चलन था।
हम इस सत्य का सम्मान करते रहे हैं कि, ज्ञान बाँटने से ज्ञान बढ़ता है। जीवन से संबंधित ज्ञान, व्यवहार और संस्कार को हम सम्मान से जीते थे। हम कभी भी जीवन मूल्यों को नकारते नहीं थे। हमारा ज्ञान जीवन मूल्यों के प्रकाश से ही बनता था। वही हमारी विरासत है। इससे प्रकाश और ऊर्जा पाना ही हमारी अपनी जीवन पद्धति का मूल हिस्सा था। यही हमारा धर्म था। हम सदैव धर्म को धारण करके रहते थे। धर्म हमें डराता नहीं था। वह जीवन में आनंद देने वाली अध्यात्मिक प्रक्रिया थी। हमारा अध्यात्म और विज्ञान परस्पर बहुत गहराई से जुड़ा हुआ था। ये अलग नहीं समग्र थे। हम पर राज्य करने वाले समग्र नहीं थे, वे तो पश्चिमी विखण्डित जीवन पद्धति वाले राज्यकर्ता थे। जब राज्यकर्ता सर्वोपरी बन जाता है, तब उन्हें देखकर समाज भी वैसा ही करने लग जाता है। इसी सोच ने भारतीय ज्ञानतंत्र पर चोट करके हमें अपनी समग्र विरासत से अलग किया था। विरासत से अलग आधुनिक नहीं होते हैं। हमें आधुनिक बनना है, तो अपनी विरासत को जानना जरूरी है। विरासत को जानकर उससे प्रेम शुरू होगा। प्रेम उसका सम्मान बढ़ाएगा। सम्मान तो विश्वास के बाद ही बढ़ेगा। भारतीय को अपनी विरासत सबसे अच्छी लगना ही उसके प्यार का पैमाना है। जब हम दुनिया के सामने अपनी विरासत को अच्छा बोलने लगेंगे, तभी हमारा विश्वास बनेगा। इसी से हमें अपनी विरासत में आस्था पैदा होगी। यही आस्था हमें आधुनिक वर्तमान में जोड़ती थी। हमारा वर्तमान और भूत परस्पर जुड़ा रहता था। इसलिए हम भूत-भविष्य को जोड़कर वर्तमान में ही जीते-जागते थे। यही हमारी विरासत है।
वर्तमान में जीने वाला ही आधुनिक होता है। वर्तमान में विरासत को जान मानकर ही जी सकते हैं। अन्यथा हम भ्रम में, लोभ-लालच में और लाभ के लिए ही जीवन गवाँ देते हैं। लोभ-लालच से भयभीत इंसान कभी भी अनुशासित और निर्भय नहीं हो सकता। वह वर्तमान में भी नहीं जी सकता। इसलिए आधुनिक भी नहीं बन सकता। हमें विरासत वर्तमान से जोड़कर आधुनिक बनाती रहती है। आज का जलवायु परिवर्तन और गर्मी का बढ़ना भी पर्यावरण रक्षा और भारतीय आस्था में कमी है। जिस आस्था ने पर्यावरणीय रक्षा की थी, उसी विरासत को जानना और उसका सम्मान करके ही हमें जीना होगा। जिस विरासत से हम दुनिया के गुरु बने थे, उसी को पुनः जीना होगा, तभी हम आधुनिक होंगे।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात और मैग्सेसे तथा स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित पर्यावरणविद हैं।