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रविवार पर विशेष
रमेश चंद शर्मा*
गाँव अपनी स्थाई व्यवस्था बनाकर सोचकर चलता, फसल पर ही साल भर की चीजें, आवश्यकतानुसार भर कर रख लेते। अन्न, बाजरा, जौ, चना, मक्का, जुवार, गेहूं, चावल, मुंग, उडद, मोठ, चोला, मीठा, तेल, नमक, मसाले आदि। मसालों में आमतौर पर मिर्च, हल्दी, धनिया, जीरा, मेथी, सौंफ़, कलौंजी, खटाई जिसे अमचूर भी कहते शामिल होते। अचार बनाना उपयोगी कदम रहता। आम, नींबू, मिर्च, लेहसुवा(लसुड़ा), कैर आदि के अचार साल भर खूब काम आतेI अचार को लगन भी कहते थे। पुराना चावल अच्छा माना जाता, पुराना अचार, गुड, घी दवा के काम आता था।
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दादी, नानी, ताई, चाची के अपने नुस्खे वक्त बेवक्त काम आते। प्रशिक्षित वैद्य, डाक्टर, नर्स आदि की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण इन्हीं से काम चलाया जाता। छोटी मोटी बीमारी को तो ध्यान ही नहीं करते थे। ताप, निवाई, बुखार, सर्दी, जुकाम, सर दर्द के समय गुड्यानी बनवाते और उसे गर्म गर्म पी कर सो जाते। गर्मियों में छाछ राबड़ी पीकर सो जातेI कभी घाट की, कभी बाजरे, मक्का, जौ के आटे की राबड़ी बनती। राबड़ी के गहल की खूब चर्चा चलती, यह ठंडक प्रदान करती, इसे गर्म और बासी दोनों तरह से उपयोग में लिया जाता था। बाजरे की खिचड़ी, मीठा बाजरा, बाजरे की रोटी मक्खन, लूनी, घी, दूध, छाछ के साथ समय अनुसार खाई जातीI सर्दियों में सुबह सवेरे बासी बाजरे की रोटी पूर आग पर सेंक कर खाने का अपना ही मजा रहता।
चुरा कर मलाई खाने का अपना ही आनंद था। हारे में कढ़ावनी में सुबह से औट रहे दूध में खूब मोटी मलाई जम जाती थी। जब दोपहर बाद माँ गाय को बाँट न्यार चारा डालने जाती तब कभी कभी मलाई खाने की योजना बनती और उसके लिए कोई ना कोई बहाना तलाशा जाता। बिल्ली का बहाना अच्छा रहता। कुछ मलाई खाने के बाद एक खड़े होकर देखता की माँ घर के नजदीक कब पहुँच रही है, तभी जोर से चिल्लाते बिल्ली मलाई खा गई, भगाओ, हटाओ। माँ आकर वाहवाही देती और बिल्ली से मलाई बचाने के उपलक्ष्य में कुछ ना कुछ मीठा खाने को मिलता। आम के आम और गुठलियों के भी दाम मील जातेi, मलाई चोर कर खाई और मिठाई माँ से पाई। कभी कभी मामला उल्टा पद जाता तो मिठाई के स्थान पर पिटाई मील जाती। मगर चोर चोर से तो जाए हेराफेरी से नहीं। और कुछ समय बाद फिर से वही कुल्हाड़ी, वही बैंसा, अर्थात जैसे थे वैसे ही बन जाते। और इस तरह के नए नए खेल, योजना बनती रहती।
मानव दिमाग बहुत कुछ भूलकर फिर से चल पड़ता है। छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी घटना को याद रखना, भूल जाना उसका स्वभाव का हिस्सा है। इसे श्मशान वैराग्य भी कहते है। समाज खड़ा होता है और चल पड़ता है। अपने जीवन में परिवार, मोहल्ले, गाँव, प्रान्त, देश, दुनिया की ऐसी अनेक घटनाएँ देखने, सुनने को मिली हैं। जिनका वर्णन आपको जरुर पढ़ने को मिलेगा।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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