खेत-खलिहान -4
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
खेती में अतिक्रमण तो हमारी प्रबंधकीय शिक्षा की प्रमुख देन है। सभी प्रबंधकों को बाकायदा वही पढ़ाया जाता है। उनमें स्वयं के बुद्धि कौशल से सभी को प्रकृति और मानवता से संबंधित संसाधनों पर नियंत्रण करने वाली क्षमता विकसित की जाती है। बुद्धि वही विकसित कहलाती है, जो मानवीय संसाधन, प्रबंधक, मानवीय शक्ति को बढ़ा कर उस पर नियंत्रण करती है। प्राकृतिक संसाधन प्रबंधक, प्राकृतिक संसाधनों पर अतिक्रमण कौशल को सभी को जोड़कर अतिक्रमण प्रक्रिया बना देते हैं। यही प्रक्रिया हिंसक शक्ति से शुरू होती है। इसलिए खेती हिंसा और लूट-खसोट साथ-साथ ही रहती है।
नदियों की आजादी और उनके उपयोग के हक की चिंता किसी को नहीं रहती। बस शक्तिशाली लोग ही किसान, मछुआरे आदि सभी का शोषण करते हैं। सदु्पयोग व पोषण मिट जाता है, उसकी जगह पर अतिशोषण का भाव आ जाता है। शोषण का यह भाव हमारे अंदर प्रौद्योगिकी एवं अभियांत्रिकी द्वारा निर्मित मशीनें करती हैं। अतः कहा जा सकता है कि गणनाओं द्वारा होने वाली शोध, हमारी सामुदायिक जन-जरूरत से दूर, भावना-संवेदना रहित लाभ, वह भी सबका नहीं, एकमात्र कर्त्ता के स्वार्थ पूर्ति करती है। गणनाएँ हिंसक शक्ति सृजन का विज्ञान निर्माण करती हैं। इस विज्ञान में प्रकृति और मानवता के साझा हित का विचार नहीं होता। इसलिए आज भौतिक रसायन एवं सभी तरह का विज्ञान युद्ध अस्त्रों की तरफ जा रहा है। कभी-कभी संचार और व्यापार के लिए रेल, मोबाईल, चिकित्सा आदि सर्व हित के कुछ काम निकल आते हैं। ये भी किसी के लिए केवल लाभ का व्यापार बनकर ही उभरते हैं। धर्मार्थ-काममोक्ष, आयुर्वेद आरोग्य रक्षणम् अब नहीं है। चिकित्सा भी लोभ-लालच पूर्ति का व्यापार बन गयी है।
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भागीरथी, गंगा जी सभी की खेती, जीवन, जीविका और जमीर के साथ आस्था व भक्ति भाव की मिसाल बनाने का काम आज की प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी और विज्ञान नहीं कर रहा है। यह काम तो ऊर्जा सृजन से होता है। गंगा जल की विलक्षण प्रदूषण नाशिनी ऊर्जा गंगाजल में पैदा करके, गंगाजल को ब्रह्मसत्व बनाती थी। इसी ब्रह्मसत्व ने गंगाजल को गंगामृत बनाया था। यह गंगाजल का विज्ञान समझने और समझाने वाले ऋषि आज बहुत कम है। ऋषि ही संवेदनाओं व आत्मशोधन से सत्य को खोजता था। विज्ञान और वैज्ञानिक प्रक्रिया मनुष्य के अंदर ऋषित्व पैदा करके सत्य खोजती थी। वही आध्यात्मिक विज्ञान कहलाता था। ऐसे वैज्ञानिक अपनी खोज को साकार कराने हेतु अपना शरीर का त्याग भी कर देते है; जैसे -प्रो. जी.डी. अग्रवाल। उन्हें हम ‘ऋषि सानंद’ के नाम से जानने लगे हैं।
आध्यात्मिक विज्ञान, व्यवहार-संस्कार से जीवन की जरूरत पूरी करने वाला ही अहिंसक विकास के रास्ते पर मानवता और प्राकृतिक को बराबरी से आगे बढ़ाकर ‘अक्षय’ ‘सनातन विकास’ के रास्ते पर चलाता है। भारतीय इस पुनर्जनन प्रक्रिया को ही विकास कहते थे। इस सत्य को केवल संवेदनशील वैज्ञानिक ही जानते व समझते हैं। वही इस विज्ञान के विषय में बिना डरे बोलते हैं।
खेती में संवेदनशील विज्ञान ही हमें आज भी आगे बढ़ा सकता है। इसी रास्ते से खेती प्रधान भारत वर्ष के किसान पूरी दुनिया को कुछ नया सिखा सकते है। यही आधुनिक दुनिया के प्राकृतिक संकट का आधुनिक संकट जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन व उन्मूलन द्वारा समाधान करने वाला विज्ञान, अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी आज भी साकार सिद्ध हो सकते हैं।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।