विशेष आलेख – 2
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
भारत की विरासत को नकारते राजनेता नागरिक को नागरिक से अलग करने का काम करते रहे है; जबकि इनका मूल काम नागरिक को नागरिक से जोड़कर ‘नेता’ बनना है। पूरी दुनिया को भाईचारें में बाँधने का काम विवेकानंद और विनोबा भावे तो कर रहे थे। दोनों ही 19 वीं व 20 वीं सदी के संत व सामाजिक-आध्यात्मिक नेता थे। आज एक भी नेता ऐसा नही है, जो दुनिया को जोड़ता हो। आज तो नेता अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए सभी में धर्म-जाति, वर्ग-भेद के नाम पर बाँटता ही रहता है। अब तो धर्म के नाम पर देशों को बाँटना, जातियों के नाम पर गाँव, जिला, राज्यों और देशों के नागरिकों को नागरिकों से तोड़ने का ही काम करते हैं। सभी को जोड़ने की कला राजनेताओं में अब दिखती ही नही हैं।
भारत के राजनेता गाँव-गाँव, शहर-शहर, नगर-नगर की प्रशासनिक सीमाओं में ही भारतीय समाज को बाँध रहे हैं। नागरिक को नागरिक से अलग करना, राजनेताओं को सुरक्षित व उनकी स्वार्थपूर्ति हेतु अनुकूल दिखाई देता है। इसलिए नगर के नागरिक और गाँव के ग्रामीणों को अलग-अलग बनाकर रखना और धर्म व जातियों के फेरे में समाज को फंसाना हमारे नेताओं की ही देन है।
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हो क्या रहा है कि धर्म, जाति की राजनीति कर ही आज नेता बन रहे हैं। सत्ता का नशा ही कुछ ऐसा होता है कि वे सबको एक साथ लेकर चलने की बजाय बन्दर बाँट को बढ़ावा देते हैं। पर अब मतदाता भी जागरूक हो चले हैं। भविष्य में वे ऐसा नहीं करने देंगे। एक दिन वे सभी, जो धर्म और जाति की राजनीति कर, लोगों को उकसा कर राजनीति की पायदान में ऊपर चढ़े थे, वे नीचे आयेंगे; तब उन्हें अपनी हिंसा से सताये लोगों की आह, श्राप-पीड़ा उन्हें स्वंय भुगतनी पड़ेगी।
जो लोग अपना आगे(भविष्य), पीछे(भूत) व आज (वर्तमान) सब कुछ भूल जाते है; वे ही लोगों को बाँटते और तोड़ते हैं। समाज को तोड़ना या बाँटना पहले हमारी आदत, व्यवहार या संस्कार में नहीं था। जब नागरिक पीड़ित होते हैं तो एक-दूसरे को ढूँढ़ते हैं। फिर समूहों में बँटते हैं। समूह एक दूसरे से जुड़ते नहीं है, आपस में लड़ते ही है। आपसी लड़ाई में मदद करने वाले को बाद में अपना नेता बनाते हैं। नेता बनने के बाद, बस अपना लोभ-लालच सर्वापरि तथा उसकी पूर्ति-सिद्धि बन जाती है। उसी के लिए ही जिस समूह ने नेता बनाया था, उसी को तोड़ना फिर शुरु करते हैं। इनके लिए दुनिया भाई – बहिन नहीं बनते, बल्कि इंसान एक खंडित इकाई हो जाता है। यही बँटवारा हो रहा है।
भक्त-भगवान को जोड़ने का नाटक करने वाले पुजारी व साधु-संत भी अपने को धर्म समुदाय में बाँटकर बैठ गये हैं। इसीलिए नागरिक भी नेताओें को अब जानने लगे हैं। इसीलिए अब कोई भी स्थायी नेतृत्व नहीं रहता; बदलते रहते हैं। लेकिन आज के नेता अपना दायित्व नहीं समझ रहे। उनका काम तो नागरिकों को नागरिकों से जोड़ना है, वही करना चाहिए। यह सब आज संस्कृति की ऊपरी दुहाई देने वाले नेताओं की देन है। उनके अंदर की हिंसा, धर्म का नाम लेकर उन्हें बाँट रही है। अब ये स्वंय भी बँटने की प्रक्रिया में है।
बाँटने और तोड़ने वाला एक दिन स्वयं टूटेगा, तब तक देश-दुनिया में बहुत बिगाड़ हो जाता है। कहते है कि ‘’पाप का घड़ा भरने पर ही फूटता है।’’ पाप का प्रभाव तब तक बहुत कुछ बिगाड़ कर देता है, आज वही हो रहा है। उसके बाद यह बिगाड़ फिर क्रांति और परिवर्तन से भी नहीं रुकता है। उसके बाद कुछ नया घटने और बनने लगता है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।