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राज्यों से : उत्तर प्रदेश
-ज्ञानेन्द्र रावत*
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा घोषित हरियाली सप्ताह के तहत विशाल स्तर पर किया जाने वाला वृक्षारोपण कार्यक्रम शासन – प्रशासन के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह आमजन के लिए भी महत्वपूर्ण है। कारण यह कि यह असलियत में हमें शास्त्रों की श्रुति परंपरा की वाहक अपनी पुरानी पीढ़ी की याद दिलाती है जो इतनी पढ़ी-लिखी न होने के बावजूद पर्यावरण की चिंता करती थी। विडम्बना देखिए कि आज हमारा समाज विज्ञान के उस युग में पहुंच गया है जहां हम अपनी गौरवशाली संस्कृति, परंपरा और मान्यताओं को विस्मृत करते जा रहे हैं। जबकि हमें अपनी पुरानी पीढ़ी पर गर्व करना चाहिए जो कि हमें पीपल, बरगद, नीम, आंवला, तुलसी और खेजड़ी जैसे पेड़ों की पूजा करने को कहती थी, सुबह सबेरे तुलसी पर जल चढ़ाने की सलाह देती थी। वह पानी बरबाद न करने को कहती थी। यदि अन्न का दाना नाली में चला जाता था तो डांटती थी कि ऐसा मत करो। ऐसा करने पर नाली के कीड़े बनोगे। इस सबके पीछे उसका एकमात्र उद्देश्य प्रकृति से जुड़ाव रखना था।
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असलियत में हरियाली सप्ताह हमें प्रकृति से प्रेम करने, उसके साथ जुड़ने और सामंजस्य बैठाने की ओर प्रेरित करता है। तथागत बुद्ध का भी मत है कि हमारे संकल्प वही हों जिनसे हमारा व दूसरे का कल्याण हो। तात्पर्य यह कि समाज हित सर्वोपरि हो।
इस हरियाली सप्ताह में शासन की योजना पच्चीस करोड़ वृक्षों के पौधारोपण की है ताकि हरियाली बरकरार रखी जा सके। यह प्रयास प्रशंसनीय है। स्तुतियोग्य है। इसमें उचित यह होता कि शासन द्वारा वृक्षारोपण में अन्य पेड़ों के साथ अमलतास, अर्जुन, अरड़ू, खेजड़ी, ढाक, धोकड़ा, पीलू, शीशम और सेंजना जैसे बहुउद्देश्यीय तथा बहुपयोगी औषधि गुणों से भरपूर पेड़ों के पौधों का भी रोपण कराने का प्रयास किया जाता। यह देशज पेड़ जहां इनमें कुछ कम से कम 10-12 मीटर तो कुछ 18 से 20 मीटर ऊंचाई तक पहुंचने वाले ,गुंबजाकार 1से 1.8 मीटर की गोलाई वाले और तेजी से बढ़ने वाले फैलावदार होते हैं, इनकी जड़ें गहराई तक जाती हैं ।यह सभी वृक्षारोपण के लिए उपयुक्त हैं और 1-2 से 40-45 डिग्री तापमान में उथली,पथरीली, दुमट, बलुई, क्षारीय नमी वाली मिट्टी में भी पनप जाते हैं। इनकी पत्तियाँ, फल, छाल, काष्ठ ,गोंद और जड़ें तक उपयोगी मानी गयीं है।
इनमें अर्जुन की छाल जो ओक्जेलिक एसिड से संपृक्त हैं रक्तचाप, व्रण या अलसर में उपयोगी है, अरड़ू की छाल शक्तिवर्धक व ज्वरनाशी है, वहीं खेजड़ी को तो किसान कृषि वानिकी तथा वृक्ष चारागाहों में प्राथमिकता देते हैं। ढाक की लकड़ी की तो हिन्दुओं में पूजा होती है तथा धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग में लायी जाती है। लवणीय चक्कों में जड़ों पर हल्के घाव करने से इसके जड़ैले पनप जाते हैं। इस विधि से हरियाली सुगमता से बनाये रखने में मदद मिलती है। धोख़ड़ा का सफेद गोंद खाने व दवा के काम आता है। पीलू के फल खाये जाते हैं, इसके फल खाने से बढ़ी हुई तिल्ली, गठिया ठीक होती है तथा हल्के बुखार में भी इसका असर होता है। इसके फल खिलाने से पशुओं का दूध बढ़ता है। इसके मीठे गूदे में ग्लूकोज व फ्रक्टोज शर्करा होती है। शीशम को सामुदायिक वृक्ष कुंजों तथा नत्रजन कमी वाली मिट्टी के लिए बहुत अच्छा मानते हैं। नीम की निम्बोली में 40 फीसदी मारगोसा कहें या तेल होता है जो सौंदर्य प्रसाधनों, दवाओं और साबुन बनाने में काम आता है। इसकी खली में नत्रजन तथा कीटनाशक रसायन होता है। नगरीय वानिकी के लिए सर्वोत्तम नीम सारे रोगों को दूर करने वाला माना जाता है। इसकी पत्तियां कीट तथा दीमक को भगाने में लाभदायक मानी जाती हैं।
हरित संपदा का सवाल आज दुनिया में सबसे अहम है। कारण आज हजारों की तादाद में जंगल हर साल विकास यज्ञ की समिधा बन रहे हैं। विडम्बना यह कि यह सब नेतृत्व की जानकारी में हो रहा है। उस हालत में दोष दें भी तो किसे। हरीतिमा की रक्षा की दृष्टि से वृक्षारोपण को छोड़कर न कभी इस ओर ऐसे प्रयास ही किये गये जिनको सराहा जा सके।
60-70 के दशक में यूकिलिप्टस के पेड़ों को प्रमुखता दी गयी जिससे न केवल भूमि की उर्वरा शक्ति का ह्वास हुआ बल्कि भूजल पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वृक्षारोपण कार्यक्रम तो सरकार हर साल चलाती है, दावे भी किये जाते हैं, लेकिन उसके बाद लगाये गये पेड़ों का कोई पुरसा हाल नहीं होता। अभियान के तहत तो पेड़ लगाकर अधिकारी अपने कोटे की पूर्ति दिखाकर कर्त्तव्य की इतिश्री कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। सरकार की वाहवाही भी लूट लेते हैं लेकिन उनका ध्यान न समाज की बहबूदी की ओर होता है और न पर्यावरण की रक्षा की ओर ही रहता है।
देखा जाये तो पर्यावरण रक्षा का सवाल तो सरकारों के शब्दकोष में होता ही नहीं है। फिर जितने पेड़ लगाने का लक्ष्य निर्धारित होता है, उतने लगाये भी नहीं जाते। यह जगजाहिर है। यह तो उनकी संवेदनहीनता को ही दर्शाता है। वृक्षारोपण में फलदार और छायादार पेड़ों को प्रमुखता नहीं दी जाती जो बेहद जरूरी है।
आज से चार-पांच दशक पहले नीम, बरगद, पाकड़, गूलर, जामुन आदि के पेड़ सर्वत्र देखे जा सकते थे जिनके आज दर्शन ही दुर्लभ हैं। जहां तक सड़क किनारे छायादार पेड़ों का सवाल है, विकास के चलते आज वहां पेड़ों का अकाल दिखाई देता है। जिधर भी जाओ वहां सर्वत्र हजारों की तादाद में सड़क किनारे कटे पेड़ों के ठूंठ ही ठूंठ पड़े दिखाई देते हैं। हम यह कभी नहीं सोचते कि जीवन के लिए हरियाली कितनी जरूरी है। इसके बिना मानव जीवन की कल्पना ही बेमानी है। इसलिए यदि हम पृथ्वी को हरा-भरा देखना चाहते हैं तो उसे हरित संपदा से पूर्ण बनाना हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिए।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।
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