विस्थापन मुक्ति हेतु विश्व शांति जल यात्रा भाग-2
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
यह यात्रा तीसरे जलविश्व युद्ध के मूल कारण ‘विस्थापन’ को रोकने हेतु आयोजित हुई थी। यह केवल विस्थापितों के पुनर्वास के लिए ही नहीं थी; विस्थापन न हो, ऐसी व्यवस्था तैयार करना भी इसका उद्देश्य था। यूँ तो विस्थापन बहुत हो रहा है, इसे रोकना भी बहुत कठिन है, लेकिन असंभव नहीं है, इसी आशा हेतु ‘जल नैतिकता न्याय की जल साक्षरता यात्रा’ चली थी। यह यात्रा लगभग 60 से अधिक देशों में कुछ देशों में 1 से 5 बार भी गई है। जहाँ विस्थापन ज्यादा था और जिन देशों में जलवायु प्रभावित शरणार्थी अधिक पहुँच रहे थे, वहीं से मुझे ज्यादा बुलावा आया और मैं वहाँ गया भी था।
इस यात्रा में जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों के साथ मिलना, जहाँ से ये उजड़कर आये थे, उन स्थानों पर जाना-समझना कि ये क्यों उजड़ रहे है? यहाँ वापस बसने की सम्भावनाएँ क्या है। यहाँ से उजड़कर, कैसे जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन, बेल्जियम, ब्रसल्स, बियाना, यू.के., नीदरलैंड, स्पेन आदि देशों में आये? जर्मनी में मुझे ज्यादातर सीरियन, पैलिस्तीनी और जॉर्डन से आये जलवायु शरणार्थी से मिले थे। स्वीडन स्टॉकहोम फ्रांस, पेरिस में केन्या, सोमालिया, इथोपिया, सूडान, साउथ सूडान और जिम्बाब्वे के लोग मिले थे।
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मैं स्वीडन, स्टॉकहोम, लंदन, ब्राईटन, डालटिंगटन में जिन शरणार्थियों से मिला था, वे ज्यादातर सीरियन, इथोपियन, सोमालियन थे। मैंने यूरोप के 20 देश, अफ्रीका के 20 देश और 20 देश पश्चिम-मध्य एशिया के चुने थे। पहले चरण का अनुभव बहुत ही सार्थक रहा। कभी-कभी अन्य देशों में भी इस समस्या को समझने व समाधान ढूँढने गया। अध्ययन, चिंतन , संवाद, सम्पर्क अपने निर्धारित देशों में ही रखा ऐसा संभव नही हुआ। पुर्तगाल, कनाडा व अमेरिका जाकर अंतर समझना था, इसलिए सबसे ज्यादा समय अमेरिका ही पाँच बार जाने में 70 दिन खर्च हो गये। परंतु विस्थापन की गहराई जानने हेतु अमेरिका जाना बहुत सार्थक रहा। यहाँ नदी विस्थापन से एक सभ्यता नष्ट हुई है।
इस यात्रा के दौरान विभिन्न सामाजिक संगठनों से मिलकर उनके कायकर्ताओं द्वारा प्रशिक्षण कार्यशालाएँ, सम्मेलन, नदी पदयात्राएँ आदि बहुत अच्छे से आयोजित कर सका। प्रत्येक देश की यात्राएँ और संवाद अलग-अलग तरह की विविधता वाली होती थी। इस पूरी यात्रा में बहुत ही गहरी विविधता रही है। लेकिन विस्थापन का कारण लगभग एक जैसा ही था। इसे ही समझना मेरा लक्ष्य था।
शरणार्थियों से संवाद करने पर पता चला कि ये जलवायु परिवर्तन से पैदा हुई मजबूरीवश उजड़े हैं। शरणार्थियों के पाँच प्रकार के जबाव थे। 30 प्रतिशत का कहना था कि जीवन और जीविका के लिए उजड़े हैं; क्योंकि लाचारी-बेकारी-बीमारी ने उन्हें घेर लिया था। इनसे जब गहराई से सवाल दर सवाल पूछते थे, तब वे कहते थे पानी की कमी से उत्पन्न जल संकट के कारण हमारा उजाड़ आरंभ हुआ था। 20 प्रतिशत लोगों का कहना है, मार-धाड़, लूट-खसोट, मारा-मारी शुरू हुई थी, इस आपसी लड़ाई व कबिलों में मारकाट ने हमें उजाड़कर भगाया है। 25 प्रतिशत लोग शांत रहे। इनका मानना है कि सरकारें ही हमें उजाड़ रही हैं। सरकारी आर्मी हमें संरक्षण नहीं देती, वह हमें अपराधी मानकर उजाड़ रही है। हमारी जमीनों और घरों में सरकार ही दूसरों को बसा रही है।
25 प्रतिशत का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा ठीक से नहीं होती है, इसलिए खेती, पशुपालन, उद्योग-धंधे भी नहीं हैं, इसलिए भी अब हम बहुत ही लाचार, बेकार, बीमार होकर उज़ड रहे हैं। जब गहराई तक चर्चा करते हैं, तब ही लोगों को वर्षा की बिगड़ती व्यवस्था समझ में आती हैं; तभी ये जल, जलवायु आदि पर बोलते हैं। कुछ ने तो कहा भी कि हम जलवायु परिवर्तन के शिकार बनकर अपना देश छोड़कर उजड़े हैं।
इस यात्रा में उजड़ने (विस्थापन) का कारण जानने से ज्यादा, उजड़ने से अब लोगों को कैसे रोकें, इस पर ही बातचीत एवं संवाद हुआ। इस संवाद को चलाने के लिए मैं उनके मूल जल स्रोतों पर उन्हें ही लेकर जाता था। उनकी आज की स्थिति, 20-40-60 वर्ष आगे की जल स्थिति कैसी होगी और पहले की स्थिति कैसी थी। यह स्थिति क्यों बिगड़ी? अब कैसे सुधार सकते है? इन विषयों पर केन्द्रित संवाद के बाद, सुधार का व्यावहारिक तरीका क्या-कैसा हो सकता है? इस विषय पर विचार विमर्श होता था।
सुधार का काम सरकार करेगी या स्वयं करना होगा? ज्यादातर लोग सरकार से अपेक्षा रखते हैं। सरकार ने सहायता अब तक क्यों नहीं की है? आगे जल संरक्षण क्यों और कैसे करेगी? यह संवाद ज्यादातर देशों के लोगों में स्वयं ही काम करने का आभास पैदा कर देता है। मैं जिनमें स्वयं करने की मैं तैयारी देखता था, उन्हें फिर दोबारा मौके पर ले जाकर, नाप कराके, वही श्रम, सामग्री मशीन सभी जरूरी बातें करते तो स्थानीय लोगों को अपना काम स्वयं पूरा करने का आभास हो जाता। बस फिर इनके कुछ आंतरिक विवाद बचते, तो उनके समाधान बताने का प्रयास भी अपने अनुभव के आधार पर करता रहा हूँ।
आधे से ज्यादा कामों में सफलता भी मिली है। केन्या और दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिआ राज्य में तो सफलता बहुत सरलता से मिल गई थी। इस प्रकार काम करके सिखाने में मुझे ज्यादा शब्दों की आवश्यकता नहीं हुई। अपने अनुभव की अनुभूति बिना शब्द, काम से ही बहुत हो जाती है।
मैंने इस यात्रा में कम बात करके, काम से ज्यादा सीखो और सिखाओ विधि को काम में लिया। मैं सभी देशों में अपने मित्रों के माध्यम से गया था। मित्रगण, उनके संगठनों और सरकारी विभागों, विश्व विद्यालयों में तो काम करने व करवाने वाले थे ही; मैंने भी शांति और धीरज से उनके साथ, जहाँ वे ले गये, वहाँ जाकर काम सिखाया। मित्र भी आनंदित और मैं भी आनंदित होकर उन्हें ही उनका काम संभाल कर आगे बढ़ गया। मुझे ऐसी यात्रा करने में बहुत खुशी होती है। यह स्वयं सीखने, सिखाने का काम मेरे दिल का ही काम है।
स्वीडन, स्टॉकहोम में मेरी यात्रा हर वर्ष अगस्त में ‘विश्व जल सप्ताह’ में होती ही है। इसमें दो भारतीय- ऋषभ खन्ना और सुनीता राउत ने मुझे अटैरिया, सोमालिया, केन्या, इथोपिया सीरिया आदि देशों के शरणार्थियों से मिलाया। इनसे खूब हुई बातों के बाद मुझे भारत लौटने पर जूम के माध्यम से इन्होंने अपने आप जलनायक का प्रशिक्षण, शरणार्थियों के साथ मुझसे 20 दिन तक लिया। मैं अपने आश्रम से ही इन्हें प्रशिक्षित करता रहा। प्रशिक्षण के बाद शरणार्थियों के साथ ये उनके देश में गये और काम शुरू कराये। इन्होंने शरणार्थियों का डर दूर किया और उन्हें प्यार दिया, उन्हें साथ लिया। जहाँ से ये उजड़कर आये थे, उनको उसी स्थान पर पहुँचाकर बताया कि उजड़ना समाधान नहीं है, इस बात को इनके मन में बिठाया और ये स्वयं शरणार्थियों के काम में जुट गये। जब मैं पूछता था कि वहाँ क्या हो रहा है? तब ऋषभ खन्ना और सुनीता राउत जी समाचार देते रहते। ये प्रशिक्षण के बाद बराबर काम सम्भालकर अफ़्रीकी देशों में पूर्णकालिक काम में जुट गये है। ये सभी प्रकार के साधन और लोगों को तैयार करने में सक्षम है।
हमने पूरी दुनिया में ऐसे ही काम किये हैं। सब का विवरण एक पुस्तक ‘‘न्याय नैतिकता जल साक्षरता यात्रा’’ में देना भी सम्भव तो नहीं हुआ, लेकिन जब कभी भी यह काम देखने जाता हूँ; कुछ जगह तो बहुत अच्छा लगता है, कहीं दुःख के साथ आनंद का मिश्रण, पर आधे से ज्यादा तो पुनः जाकर देखने पर केवल दुख ही होता है। लेकिन मेरी इस यात्रा के दौरान विस्थापन को कम करने व रोकने का काम शुरू करने हेतु मुझे वहाँ कुछ देशों में तो मुड़-मुड़कर कई बार जाना पड़ा है। जैसे- सेनेगल, केन्या, सोमालिया, इथोपिया – यहाँ के उत्साह वर्द्धक अनुभव व सार्थक काम मेरे लिए बहुत ही सुखद रहे हैं। यह पूरी यात्रा कुल मिलाकर मेरे लिए विस्थापन मुक्ति की राह बन गई है। इसमें जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन, यू. के., ऑस्ट्रिया , बेल्जियम , नीदरलैंड आदि ऐसे देश हैं, जहाँ विस्थापितों का प्रवेश आज भी सबसे ज्यादा है। ये देश विस्थापन मुक्ति की राह पर चलकर जिन देशों में विस्थापन है, उन देशों में अधिक रुचि नहीं रखते।
मैं पाँच वर्षों में यूरोप के अधिकतर शहरों व सरकारों में कह चुका हूँ कि आपकी विस्थापन मुक्ति की राह आपके देश में नही है। जहाँ से लोग विस्थापित होकर आ रहे हैं वहीं जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन व उन्मूलन की दिशा में काम शुरू करो, तब ही आपको शरणार्थियों से मुक्ति मिलेगी।
यूरोप के सभी शहरों पर शरणार्थियों के बढ़ते जन दबाव को रोकने हेतु वे बहुत चिंतित है। वे इस विषय पर सम्मेलन तो कर रहे है, लेकिन उनके लिए काम करने की तैयारी नहीं दिख रही है। यह बड़ी निराशा की बात है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं।