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रविवार पर विशेष
घर के खीर खाएं, देवता भला मानें
-रमेश चंद शर्मा*
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भारत आस्था, विश्वास, उत्सव, त्योहारों का देश रहा है। यहाँ जीवन से लेकर मौत ही नहीं बल्कि मौत के बाद के भी अवसर बनाकर कुछ ना कुछ मनाने, बनाने की जुगाड़ नजर आती है। ऐसा लगता है कुछ भी, किसी भी बहाने से करने का प्रबंध कर लिया जाता है। सुख दुःख बाँटने का भी यह एक माध्यम है। व्यक्ति को समूह, समाज से जोड़ने में भी इसकी भूमिका बनती है। काम का बंटवारा, काम धंधे, रोजगार, कला कौशल, परस्परावलम्बन, विभिन्न लोगों की भागीदारी, एक दुसरे का जोड़ने का भी इससे मकसद पूरा होता था। कुम्हार, बढ़ई, तेली, मोची, लुहार, सुनार, कलाकार, बच्चे, बूढ़े, कन्या, नौजवान, महिला, पुरुष सभी की अपनी अपनी भूमिका निश्चित रहती। जन्म से पूर्व गृभ धारण से ही कुछ तैयारियां प्रारम्भ हो जाती। जन्म पर थाली कौन बजाएगा, दिन में थाली बजेगी, रात को आवाज लगाई जाएगी, बच्चे की नाल काटना, नाल को आंगन में दबाना, शहद कौन चटाएगा, छठी पर उत्सव मनाना, बच्चे को चाँद, तारे, सूरज दिखाना जैसे मौको पर अपने अपने ढ़ंग से रीति रिवाजों के अनुसार कुछ आयोजन करना। यहाँ से शुरू होकर हर मोड़ पर मृत्यु तक और उसके बाद भी याद में विभिन्न आयोजन करना जीवन का अंग बना हुआ था। समय के थपेड़ों, आधुनिकता, विज्ञानं, शिक्षा, विकास के नाम पर इनकी बलि चढने लगी। कुछ का तो स्वरूप ऐसे बिगड़ गया था कि उन्हें बदलना ही चाहिए था। अच्छा हुआ वे बदल दिए गए। कुछ अच्छे कदम भी इन झोकों में साथ साथ खत्म हो गए। एकल समाज की ओर कदम बढ़ने लगे। यह उत्सव भी बाजार, उपभोक्तावाद के अंग बना दिए गए। समाज का स्वालम्बन टूटा। परस्पर सहयोग, सहकार तोड़ा गया। ऐसे विभाग, समूह, धंधे खड़े किए गए जिससे शोषण, लूट के द्वार खुले। शिक्षा, स्वास्थ्य, उत्सव, त्यौहार, शादी विवाह सभी बाजार की वस्तु बना दिए गए। इनमें में भी ठेकेदारी घुस गई।
कहां तो कहावत थी, घर के खीर खाए देवता भला माने। सचमुच देवता, भगवान कब, कहां, कुछ खाते है। उनके नाम पर हम या कोई और ही खाते या संग्रह करते है। नाम उसका उल्लू सीधा अपना करते है। आम समाज रोज रोज सादा भोजन करना पसंद करता था। कभी कभी पकवान खाने के लिए कुछ मौके बना दिए गए। अब इसका रूप किसी का कैसा भी कार्यक्रम हो ठेकेदार मजे उडाए हो गया। हँसते हुए जाओ मुंह लटकाकर लौट आओ। पैसा फेंको तमाशा देखो। कार्यक्रमों से जीवनधारा, प्राण, दिल, उत्साह, जोश, ख़ुशी, अपनापन, लगाव, साझापन, पारस्परिकता, भागीदारी, अपने लोग निकल गए। अब प्रबन्धक, घटना आयोजक, ठेकेदार, व्यापारियों के हाथ में मामला पहुँच गया। छोटा आयोजन हो या बड़ा सभी इसी व्यवस्था के घेरे में आ गए। लोगों के काम करने की कला कौशल भी समाप्त होता जा रहा है। सामूहिकता, समाज, समूह की शक्ति भी ख़त्म हो रही हैI जिसके कारण समाज की कला, लोक कला, रचना, सृजनशीलता, विश्वास में कमी आ रही है।
रोली, मौली, धूप, दीप, अगरबती सभी छोटी से छोटी वस्तु जो घर, गाँव में लोगों को रोजगार देती थी। उनपर बड़ी कम्पनियों ने कब्ज़ा कर लिया। पहले लुहार जो औजार, सुआ, चिमटा, खुरपा, दैरांति, झर, पलटा, फावड़ा बनाते थे, अब बड़ी कम्पनियों के मिलते है। तेल, साबुन, मंजन, गमछा, तौलिया, रुमाल, दीया बाती, खिलौने, लट्टू, चक्करी, कूदने की रस्सी, धनुष, गदा, बच्चों का सामान, टोकरी, हाथ के पंखे, बिजना, जैसी वस्तुएं भी बड़ी कम्पनी ने हथिया ली। गाँव को अपाहिज बनाया गया। किसानी, खेती, बागवानी, प्लेज को भी ऐसा स्वरूप दिया गया कि किसान, मजदूर कम्पनी के मक्कड़ जाल में फंस गया। सरकारी कानून भी कम्पनियों के अनुकूल बना दिए गए। ठेकेदारी प्रथा ने मजदूरों का शोषण और अधिक बढ़ा दिया। किसान की उत्पादन की गई सामग्री का दाम सरकार तय करती है मगर उसी उत्पादन का रूप परिवर्तन करके मन माने दाम पर बेचा जाता है।
किसान, मजदूर, गरीब के विरोध में सरकार भी खड़ी नजर आती है। व्यवस्था परिवर्तन का बड़ा सवाल सामने है। गरीब अमीर की खाई कम हो। समता की ओर कदम बढे। विकेन्द्रीयकरण की राह अपनाई जाए। ग्रामोद्योग का विकास हो, गाँव में काम धंधे खुले, कमाई के साधन बनाए जाए। ग्राम आधारित कानून, योजना बनें। ग्राम सभाओं को अधिकार मिले। ग्राम स्वराज्य की स्थापना हो। गाँव का अपना ग्राम कोष हो। हर गाँव में खेलकूद, सफाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, जल, जंगल, जमीन, मनोरंजन, योजना बनाने की अपनी व्यवस्था हो। गाँव मजबूत देश मजबूत। गाँव स्वावलम्बी देश स्वावलम्बी। गाँव सुरक्षित देश सुरक्षित।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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