विचारणीय
– राजेन्द्र सिंह*
बापू ने देश के बंटवारे को अपनी हार मानकर भी सभी संप्रदाय और धर्मों का मन जोड़कर सबको जीने का हक प्रदान किया था
भारतीय धर्म और जीवन पद्धति ‘सार्वभौम’, वसुधैव कुटुम्बकम्‘ और ‘जय जगत’ की सम्पूर्णता को स्वीकारती है। धर्म संगठन उक्त परिधि की संपूर्णता को अस्वीकार करते है। भारतीय धर्म तो सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। मैं, यह जानता और मानता हूँ, इसीलिए मूल भारतीय धर्म आज की बोल-चाल की भाषा में अपने को सनातनी-भारतीय, ‘हिन्दू’ मानता हूँ। मैं, हिन्दू हूँ, इसका मुझे गर्व है, लेकिन यह बार-बार कहना जरूरी नहीं मानता, क्योंकि ‘‘हिन्दू’’ मध्यकाल में दूसरों द्वारा अवज्ञा के भाव से दिया गया ‘शब्द’ है। मेरी जीवन पद्धति को हिन्दू कहा गया था। मैं, उसी परिधि में रहकर अपने को धन्य मानता हूँ। किसी भी मतवादी रूढ़ि से अलग धर्म की उद्भावना को धर्म संगठन नहीं समझते है। मतवादी रूढ़ि से अलग ही मेरे धर्म की उद्भावना हुई है। सभी धर्मों की सद्भावना संपूर्णता और सार्वभौमिकता ही मेरा धर्म है। आज के धर्म संगठन मतवादी बनकर, सत्य को अस्वीकार कर रहे हैं।
सभी को स्वीकारने की स्वाधीनता ही मेरा धर्म है। यह सीमाओं में रहकर, सभी को सरल-सीधा रास्ता दिखता है। क्योंकि दूसरे धर्म विश्वास-आस्था के कुछ भी नुक्ते भारतीय धर्म के सामने रखते आये हैं। इन नुक्तों की पालना नहीं करने वाला पापी और अपराधी घोषित किया जा सकता है। जिस धर्म पर धर्म बीजों की आस्था की शर्त लगी है, उनमें अपराध अथवा पाप की भावना आ ही जाती है। भारतीय धर्म में यह भावना नहीं है। यहाँ धर्म का आधार विश्वास की रूढि और रूचि नहीं रहीं है, बल्कि आचरण और सदाचार रहा है। इसके अपने संकट बार-बार हुए है। रूढियों में बंध जाने से समाज में विकृतियाँ आती हैं। ये विकृतियाँ धर्म संगठनों के मतवाद के कारण पैदा होती हैं।
मतवादी धर्मां ने भारतीय धर्म हेतु भी संकट पैदा किया है। दूसरे इसे धर्म ऐसा-वैसा मानते है। हम क्या मानते है। धर्म बीजों के लिए जो उपयुक्त होता है; उसे ही स्वीकार किया जाता है। भारतीय धर्म बुनियादी मूल्यों पर आधारित है। ये मूल्य मानव के निर्माता पर विश्वास और आस्था के होते हैं। भारतीय धर्म में मानव जिस प्रकृति से बना है, उसी को प्यार और सम्मान से देखता है। उसी सम्मान का आचरण भारतीय धर्म है। इन मूल्यों के सहारे जिया हुआ जीवन स्वस्थ, मंगलमय, सुरक्षित और लोक-कल्याणकारी होता है। इस प्रकार जीवन जीना सबके लिए आनंदमय है।
भारतीय धर्म, अर्थ, सुरक्षा के जीवन मूल्यों पर नहीं चलता है, अपितु आनंद हेतु शुभ कर्म करना होता है। अर्थ और सुरक्षा हेतु केवल लाभकर्म करना पड़ता है। इसीलिए इस धर्म में आजादी और आनंद दोनों है। संयम-साधना, अनुशासन और सदाचार का जीवन ही आनंदमयी होता है। आनंदमय जीवन की साधना, सिद्धी का आनंद भारतीय धर्माचार रहा है। इसीलिए भयमुक्त, पापमुक्त और अपराध मुक्त जीवन ही भारतीय धर्म है। “वसुधैव कुटुम्बकम्” है, आनंदायी जीवन ही इतनी ऊँचाई की उड़न भर सकता है। इस धर्म को किसी का डर नहीं है।
सभी धर्मों की सद्भावना ही मेरी कामना है। संयम, साधना, त्याग, से सत्य के लिए अहिंसामय मेरा जीवन पथ है। हमनें मेवात क्षेत्र , बागपत जिले डौला गाँव में रमेश शर्मा, नरेन्द्र महरोत्रा और डॉ. जे.एस. गिल के साथ मिलकर 1975 में बापू विचार और स्वास्थ्य कार्य शुरू किया था। मेरा वह विद्यार्थीकाल था। बापू महात्मा गांधी ने मेवात को मेवात बनाए रखने के लिए बड़ा जौहर किया था। उस जौहर का परिणाम है कि, आज मेवात अपनी जगह बसा हुआ है।
बापू ने आजादी के बाद देश के बंटवारे को अपनी हार मानकर भी सभी संप्रदाय और धर्मों (हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई) का मन जोड़कर अपने राष्ट्र के गौरव को बचाने हेतु सद्भावनापूर्वक भारत में सबको जीने का हक प्रदान किया था। इसी हक को दिलाने के लिए वे समर्पित हो गए। भारत में उनका सर्वधर्म सद्भाव बढ़ाने का संकल्प पूर्ण करने में सिद्धांत सफल रहा। उनका जीवन और व्यवहार तो एक था ही लेकिन हमारे व्यवहार में कुछ खराब घटनाएं देखने-सुनने को आज भी मिलती हैं। फिर भी बापू के कारण ही हम एक ऐसे राष्ट्र में बने रहे, जिसमें सभी को जीने का समान हक मिल गया।
सबको समान जीवन दिलाने हेतु बापू शहीद नहीं हुए। बल्कि उन्होंने जौहर किया था। जौहर जीत के अहसास से किया जाता है। हार होने पर भी लगे रहे, तो भी उन्हें जीत का आभास करके अंतिम क्षण तक अपने राष्ट्र का गौरव बचाना ही उनका लक्ष्य रहा है। बापू ने मेवात में यही किया है। अपने अंतिम क्षण का उन्हें पता था, फिर भी अधिक शक्ति से दिल्ली के पास पूर्वी पंजाब ‘मेवात’ की संप्रदाय को शांत किया। अपनी समझ और शक्ति मेवात को उजड़ने से बचाने में लगा दी। पूर्वी पंजाब के प्रधानमंत्री श्री गोपीचंद भार्गव सहित सरदार पटेल और नेहरू जी को बराबर से बचाने में लगाया। वे अपने अंतिम दिनों में कमजोर तो थे फिर भी पूरी संकल्प शक्ति से बापू इस चुनौती से जूझने में जुट गए। उन्हें सफलता मिलने लगी थी, इसलिए कई बार मौन रहकर उपवास करके समाज में चेतना जगाई। बापू के जौहर से शांति कायम होने लगी थी। शांतिमय और अहिंसा से बनते वातावरण से व्यथित होकर कुछ ने बापू की हत्या का निर्णय कर लिया था। इस कार्य में धर्म संगठन और राजा शामिल थे।
बापू आजाद भारत बनने के बाद कुल 167 दिन जीवित रहे। ये दिन इनके जौहर करने के ही दिन थे। बापू ने पूरा जौहर किया जो आज भी जारी रही है। उनकी प्रेरणा उनकी अंतः चेतना की तरंगों से प्रभावित बहुत से लोग उनके रास्ते पर आज भी चल रहे हैं। मैं भी अपने बचपन और तरुणाई को उनके जौहर से प्रभावित मानता हूं। तभी तो उन्हीं के रास्ते अंजाने ही चल पड़ा। समाज की समझ और उन्हीं के निर्णय से ही ग्राम स्वावलम्बन और उजड़े गांवों को बसाने हेतु पानी के कार्य में जाकर जुट गया।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
सहिष्णु, समभावपूर्ण और समन्वयवादी हिन्दू दृष्टिकोण का निश्चय ही कोई अन्य विकल्प नहीं। किंतु एक ऐसे विश्व में जहाँ अन्य धर्मावलम्बी धर्म को एक आध्यत्मिक अनुभव के स्थान पर एक दमनकारी, आक्रांता, राजनैतिक विस्तारवाद के अस्त्र के रूप में सतत प्रयोग करते आ रहे हों वहाँ गाँधी के विचारों की जगह कृष्ण का कर्मयोग और राम का पौरुष सम्भवतः ज्यादा प्रभावकारी जीवन दर्शन प्रतीत होता है। फिर काल, पात्र और स्थान के साथ धर्म की अवधारणा भी तो बदलती है। जिसे कुछ लोग ‘हिंदुत्व’ कह कर तिरस्कृत करने का प्रयास करते हैं वे सम्भवतः यह भूल रहे हैं कि वो ही आज का युगधर्म है। यही कर्मयोग है। हम शायद इसे इस दृष्टिकोण से भी समझने का प्रयास कर सकते है। वैसे आपके विचार बहुत सारगर्भित और प्रेरक हैं। सादर प्रणाम
प्रोफ़ेसर मिहिर भोले
अहमदाबाद