व्यंग्य: भ्रष्टाचार पर हाहाकार आखिर क्यों?
बात सूबे के एक मंडल में स्थित एंटी करप्शन विभाग के एक ईमानदार उत्साही नवयुवक आईपीएस अधिकारी की है जो चाहता था कि विभाग की ओर से एक ऐसी गोष्ठी हो, जिसमें मुख्य अतिथि ऐसा हो जिसने नौकरी, व्यापार या समाज सेवा के दौरान कभी भ्रष्टाचार न किया हो।
वह सबसे पहले समाज सेवा के लिए कथित रुप से विख्यात एनजीओ, समाजसेवियों के पास गया। तो उसने मुख्य अतिथि बनने के लिए जो शर्त रखी तो सबसे पहले समाज सेवा और ईमानदारी की बड़ी बड़ी डींगे मारने वाले एनजीओ के मुख्य कर्ताधर्ता बोले, भाई जी हमारा समाज सेवा का काम ऐसा है कि हम भ्रष्ट न भी हो लेकिन साल में नववर्ष, होली, दीपावली, ईद में हमें भ्रष्ट अधिकारियों को भी अपना काम करवाने के लिए गिफ्ट तो देना ही पड़ता है। इसलिए हम यदि मुख्य अतिथि बने तो सभागार में कोई भी व्यक्ति सवाल उठा सकता है। इस लिए हमें माफ करिये।
फिर उस अफसर ने किसी जनप्रतिनिधि को मुख्य अतिथि बनाना चाहा तो इसके पहले उसने जनता की राय जाननी चाही तो पता चला कि उनके यहां निधियों में कमीशन की भरमार है। समाज में आम धारणा है कि नेता जनप्रतिनिधि बनते ही दोनों हाथों से कमाने में लग जाते हैं।
तब उसने अधिकारियों को मुख्य अतिथि बनाना चाहा, लेकिन उसके पहले जनता की अधिकारियों के बारे मे क्या राय है यह जानने की कोशिश की। जनता के विभिन्न वर्गों के लोगों ने अपनी राय अधिकारियों के बारे बेबाकी से बताई। जनता का कहना था कि वे जब किसी जिले या मंडल में आला अधिकारी का पद ग्रहण करते हैं तो उनके ईमानदारी के आभा मंडल से जनता अभिभूत हो जाती है। और फिर जनता के सामने धीरे धीरे उनके भ्रष्टाचार की परतें खुलना शुरू हो जाती है। तो फिर निरीह जनता हतप्रभ हो जाती है।
इस खोजबीन में उसने शिक्षक और पत्रकारों में से भी अपवाद स्वरुप चेहरे मिले। वह उन्हें मुख्य अतिथि बनाने ही वाला था कि लखनऊ मुख्यालय से बॉस के फोन आने लगे।बॉस गुस्से मे बोले इतने दिन हो गए तुम भ्रष्टाचार की गोष्ठी के लिए मुख्य अतिथि तक नहीं ढूंढ पाए। अच्छा चलो मैं ही फोन पर ही मुख्य अतिथि ढूंढ लेता हूँ। इसके बाद उन्होंने पूछा कि वैसे तुमने किसे ढूंढा है अब तक?
जब उसने बॉस को डरते डरते एक शिक्षक और एक पत्रकार का नाम बताया तो उन्होने अजीब सा मुंह बनाते हुए फोन पर कहा, यह नाम स्तरीय नहीं है। फिर पूछा कि तुम भ्रष्टाचार विरोधी गोष्ठी कर कहाँ कर रहे हो। जैसे ही उसने कहा कि विश्वविद्यालय के सभागार में, यह सुनकर वह एकदम खुश हो गए और बोले, बहुत अच्छा है कि आप कुलपति जी को ही मुख्य अतिथि बना लो। उसने तत्काल मुख्य अतिथि के लिए कुलपति जी का नाम फाइनल कर दिया और बॉस के ईमेल में मुख्य अतिथि और कार्यक्रम का स्थान डाल दिया।
लेकिन ईमानदार नवयुवक आईपीएस की आत्मा और दिमाग में यह उधेड़बुन बनी रही कि कुलपति ईमानदार है या नहीं यह तो वह पता ही नहीं कर पाया। उसने तत्काल अपने दो अधीनस्थों को कुलपति के बारे में पता करके जानकारी देने को कहा।तो उसके अधीनस्थ सिर्फ 48 घंटे मे उनका पूरा कच्चा चिठ्ठा ही ले आये।पता चला कि कुलपति जी तो भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे हुए हैं। विश्वविद्यालय में कई तरह के भ्रष्टाचार होते हैं। नमूने के तौर पर रेगुलर प्रवक्ताओं के पदों के लिए 25 से 30 लाख रुपये तक का खुला रेट है। लेकिन उसमें यह गोपनीय शर्त है कि यदि अभ्यार्थी शादीशुदा या बच्चे वाली है तो उससे सिर्फ रुपया लिया जायेगा लेकिन कहीं सरस्वती की पुत्री नव-‘यौवना है तो उसे विश्वविद्यालय कुलपति के सामने ‘ऑडिशन’ से गुजरना पड़ सकता है। लेकिन यदि नियुक्तियां टीचिंग असिस्टेंट की है तो उसे पांच से दस लाख रुपये और संविदा में है तो साल में एक माह का मानदेय देना पड़ता है। इसके अलावा विश्वविद्यालय परिसर में होने वाले निर्माण कार्य में कुलपति का बढ़िया कमीशन फिक्स है। इसी तरह विश्वविद्यालय में पर्चेज़िंग,, मेंटीनेंस में भी अच्छा कमीशन मिलता है। इसके अलावा विश्वविद्यालय की होने वाली परीक्षाओं में जो पेपर प्रिंट होते हैं और दीक्षांत समारोह होते है, दोनों ही मदों में होने वाले खर्च का ऑडिट नहीं होता है। लिहाजा कुलपति के हिस्से में मोटा कमीशन आता है।
यह सब कच्चा चिट्ठा जानते ही वह नवयुवक आईपीएस अधिकारी भीतर तक हिल गया कि वह जिसे भ्रष्टाचार पर होने वाली गोष्ठी में मुख्य अतिथि बना रहा है वह कितना बडा भ्रष्ट है यह सोच-सोच कर ही उसका दिल बैठने लगा। लेकिन मजबूरी यह थी कि वह बॉस को मेल भेज चुका था। बॉस इस गोष्ठी की अध्यक्षता करने वाले थे। खैर बॉस की अध्यक्षता और कुलपति के मुख्य अतिथि में भ्रष्टाचार विरोधी गोष्ठी विश्वविद्यालय के फूलों से सजे हुए सभागार में शुरू हुई। जैसे ही मुख्य अतिथि कुलपति जी भ्रष्टाचार के विरोध में बोलना शुरु किया तो सभागार में मौजूद महिला प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रवक्ता, निर्माण कार्य में लगे ठेकेदार, सप्लायर, प्रिंटिंग प्रेस के मैनेजर और दीक्षांत समारोह को ईवेंट का रुप बनाने वाले ईवेंट मैनेजर सब के सब सभागार में मुंह दबाकर हंसने लगे।
उधर मायूस आईपीएस अधिकारी बुदबुदाया, इट इज़ अ परफेक्ट केस ऑफ़ सीबीआई। पर वास्तव में वह यही सोच रहा था कि भ्रष्टाचार पर इतना हाहाकार आखिर करता है कौन? और फिर क्यों? साथ ही वह बुदबुदाया कि कम से कम शिक्षा का क्षेत्र को तो बख्श दिया जाता।पर एक दु:खद हक़ीक़त तो यही है कि भ्रष्टाचार नामक नासूर का इलाज बड़े से बड़े वैद्य भी नहीं ढूंढ पाए तो फिर यह युवा आईपीएस अधिकारी भला क्या बला है?