व्यंग्य
अखबार में जब से सरकार का यह निर्णय पढ़ा है कि अब ट्रांसफ़र पोस्टिंग में कोई पैरवी नहीं चलेगी और न ही इस मामले में पत्नियों की फरियाद सुनी जाएगी, बाबू-अफसरों मे हड़कंप मच गई है। उनकी रातों की नींद उड़ गई है। पहले तो इत्मीनान रहता था। ताल ठोककर कहते थे कि अरे पैसा और पैरवी हो तो एक ही जगह बरसों पड़े रहो। हमें कोई यहां से हिला नहीं सकता। देखते नहीं हमारा साइड बिजनेस (हालांकि वही मेन बिजनेस है) कितना फल फूल रहा है। इसे छोड़कर कौन गधा ट्रांसफर पर जाएगा?
अब मेरा किस्सा सुनिए। पढ़ाई पूरी करने के बाद मुझे भगवान की दया से केंद्र सरकार की ट्रांसफर वाली नौकरी मिल गई। फिर शादी हुई। भगवान की दया से दो बच्चे भी हुए, पर जीवन बनजारों जैसा हो गया है। हर तीन साल के बाद ट्रांसफर-पोस्टिंग का आर्डर आ जाता है और अपने राम बीबी-बच्चे, बोरिया-बिस्तर, माल असबाब समेटे एक जगह से दूसरी जगह चल देते हैं । मेरे दर्द को कोई ट्रांसफर की नौकरीवाला ही समझ सकता है। आज आप यहां बिहार में बैठे दाल-भात-भुजिया खा रहे हैं। चैन से खा भी नहीं पायेंगे कि तीन साल बाद ट्रांसफर हो जाएगा और आप दक्षिण भारत में जाकर इडली सांबर खाते नजर आएंगे। फिर तीन साल बाद यदि किस्मत में मक्के की रोटी और सरसों का साग लिखा होगा तो पंजाब के किसी शहर में ट्रांसफर होकर पहुंच जाएंगे।
घुमक्कड़ प्रवृत्तिवालों के लिए तो ट्रांसफर की नौकरी ठीक है। नई-नई जगह देखने को मिलती है। पर अधिकतर के लिए ट्रांसफर सिरदर्द ही है। ट्रांसफर की नौकरी वाले ज्यादा सामान, भरी फर्नीचर नहीं खरीद सकते हैं। एक जगह से दूसरी जगह लाने ले जाने में कीमती सामान दचक-पचक जाते हैं या टूट जाते हैं। हर जगह मन माफिक क्वार्टर या मकान नहीं मिलता। बच्चों के स्कूल बदल जाते हैं।
अक्सर ट्रांसफर ऑर्डर आने पर मैं और मेरे बच्चे दुखी हो जाते हैं, मगर मेरी पत्नी बहुत खुश होती है। कहती है- ‘चलो अच्छा हुआ। यहां पड़ोसनें मेरी सभी साड़ियां और जेवर देख चुकी हैं। अब नई जगह में वहां की पड़ोसनों के लिए ये सभी चीजें एकदम नई होंगी।’ मगर एक बात पर मेरी पत्नी भी अड़ी रहती हैं। कहती है, ‘मैं दूर परदेस में पड़ी रह जाऊंगी, पर होम टाउन ट्रांसफर होने पर, कभी नहीं जाऊंगी।’ मैं कहता हूं-‘अरे अपने घर, अपने जिला जाना भला क्यों नहीं अच्छा लगता? तब तुनककर कहती है- ‘तुम्हारा तो खाना-पीना, दोस्तों से गप्पे मारना यानी ज़्यादा टाइम ऑफिस में ही गुजरता है, पर भुगतना तो मुझे पड़ता है। अपने प्रदेश में ट्रांसफर होने से जब देखो तब दूर-पास के रिश्तेदार किसी न किसी काम से धमक जाएंगे। अकेले थोड़े ही आते हैं। तीन चार के ग्रुप में आते हैं। घर के एक दो कमरे, बरामदे पर कब्जा करके रहेंगे। टी. वी. पर कब्जा कर लेंगे। अखबार पकड़ेंगे तो शाम तक नहीं छोड़ेंगे। उनकी सुविधा के अनुसार उन्हें चाय नाश्ता देना पड़ता है।
जब तक रहेंगे बच्चों की पढ़ाई में बाधा आएगी। बच्चे ऊंची क्लासों में पहुंच गए हैं। उन्हें कितना पढ़ना है वे थोड़े ही समझेंगे। फिर रिश्तेदारों के यहां बर्थ-डे, मुंडन, कनछेदन छोटे-मोटे फंक्शन होंगे। हम नहीं जाएंगे तो वे बुरा मान जाएंगे। हमारे बारे में कहेंगे- ‘ये लोग न जाने अपने आपको क्या समझते हैं। हमने बच्चों की बर्थ डे पार्टी में बुलाया, नहीं आए। न देते गिफ्ट-विफ्ट। यहां कौन मरा भूखा बैठा है। कम से कम आकर आशीर्वाद ही दे जाते बच्चे को ।’ अब उन्हें कौन समझाए, कहीं जाने का मतलब है समय की बर्बादी। तैयार होओ। वाहन खर्च, गिफ्ट खर्च अलग। फिर बच्चों की पढ़ाई, होमवर्क छुड़ाकर ले जाना पड़ता है । हमारी अनुपस्थिति में कामवाली आकर लौट जाए तो फिर पार्टी से लौटने के बाद रात को सारे बर्तन खुद ही मांजने पड़ेंगे।’ पत्नी की बक-बक चलती रहती है।
ट्रांसफर की सारी परेशानियों के बावजूद कभी-कभी अच्छा भी लगता है, जब अलग-अलग भाषा, वेशभूषा, खानपान वालों से सामना होता है और नीरस जीवन में कुछ अविस्मरणीय यादें जुड़ जाती हैं। मेरी पिछली पोस्टिंग आसाम में थी। मैं ऑफिस इंचार्ज बनकर वहां गया था। एक दिन मेरे मातहम काम करने वाले असमिया कर्मचारी गोगोई ने उत्तर प्रदेश के चंदन तिवारी से पूछा – ‘तुम साला गया था वहां?’ चंदन तिवारी ‘साला’ सुनते ही भड़क उठे ।गोगोई से बोले-‘हम साला क्यों जाएगा? तुम साला गया होगा ।’ चंदन तिवारी गोगोई से लड़ने पर उतारू हो गए। मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं किसका पक्ष लूं। तभी बहुत दिनों से असम में व्यापार करने वाले बिहारी सज्जन चंद्रमा । सिन्हा ने कहा- ‘भइए, चुप हो जाओ। यह तो बेचारा पूछ रहा है कि बॉस ने तुमसे वहां जाने को कहा था तो तुम चला गया था। असल बात यह है चंदन तिवारी, कि यहां के लोग ‘च’ को ‘स’ बोलते हैं। अब तो समझ गए संदन तिवारी ? , चंदन तिवारी ने भी हंसकर कहा- ‘पूरी तरह समझ गया संद्रमा सिन्हा जी। सलिए, गोगोई को भी ले लीजिए। हम सब साथ-साथ ‘साए’ पिएंगे, उस दिन मैंने भगवान को धन्यवाद दिया था कि मेरी पत्नी का नाम चम्पा, चमेली या चांदनी नहीं हुआ…नहीं तो सम्पा, समेली या सांदनी सुनकर वह मुझे आसाम में छोड़कर बिहार भाग आती।
*डॉ. गीता पुष्प शॉ की रचनाओं का आकाशवाणी पटना, इलाहाबाद तथा बी.बी.सी. से प्रसारण, ‘हवा महल’ से अनेकों नाटिकाएं प्रसारित। गवर्नमेंट होम साइंस कॉलेज, जबलपुर में अध्यापन। सुप्रसिद्ध लेखक ‘राबिन शॉ पुष्प’ से विवाह के पश्चात् पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज में अध्यापन। मेट्रिक से स्नातकोत्तर स्तर तक की पाठ्य पुस्तकों का लेखन। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। तीन बाल-उपन्यास एवं छह हास्य-व्यंग्य संकलन प्रकाशित। राबिन शॉ पुष्प रचनावली (छः खंड) का सम्पादन। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित एवं पुरस्कृत। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से शताब्दी सम्मान एवं साहित्य के लिए काशीनाथ पाण्डेय शिखर सम्मान प्राप्त।
भारत सरकार की नौकरी करते हैं। ट्रांसफर तो होना ही है। भुक्तभोगी हैं