तब इंतजार रहता था तिल सकरात का। जी हां! उस वक्त हमें कहां पता था उत्तरायण और मकर संक्रान्ति का? हमने तो जो अपने घर में मां के शब्दों में जो सुना उसे ही मान लिया। जैसे जैसे बड़े हुए तब मकर संक्रान्ति और उत्तरायण शब्दों से साबका पड़ा।। दही चूड़ा मतलब 14 जनवरी। खगोलीय गणना कर आप चाहें इसे पंद्रह जनवरी को कर दें, पर दिल है कि मानता नहीं। आखिर बचपन की यादें हैं!
आज दूध – दही की किल्लत नहीं। जब चाहें जितना चाहें मिल जाता है। तब की बात अलग थी। जगह जगह दूध का बूथ हुआ करता था। बोतलों में तब दूध आया करता था। भोर में लाइन लगा कर लेना पड़ता था।
धूंधली सी यादें हैं। तिल सकरात ( मकर संक्रान्ति) के लिए दूध इंतजाम करने की कवायद पहले से ही शुरू हो जाती थी। बूथ वाले के पास पहले ही जाकर दूध के लिए अग्रिम दे दिया जाता था। उसके बाद भी उनका कहना होता था कि सुबह-सुबह आकर ले लेंगे अन्यथा हम नहीं दे पाएंगे।
इस तरह होती थी तिल सकरात ( मकर संक्रान्ति) के पहले दही के लिए दूध लेने की कवायद और फिर शुरू होता था दही जमाना। मां बड़ी ही रिलिजियस होकर दूध को खौलाने (औंटने) के बाद उसके गुनगुने होने का इंतजार करती थी ताकि अब उसमें दही का जोरन डाला जा सके। ठंड का दिन हुआ करता था तो दही के नहीं जमने का भी खतरा था। वैसी स्थिति में मैंने मां को देखा था जिस तरह से ठंड के दिनों में छोटे बच्चे की हिफाज़त होती है बिल्कुल उसी तरह से दूध वाले बर्तन जिसमें दही का जोरन डाला गया था उसे गर्म कपड़ों से ढंक कर रखतीं थीं ताकि समय रहते दही जम जाए। कभी मेरे याद्दाश्त में ऐसा नहीं हुआ कि दही न जमा हो।
अब तिल सकरात के दिन मां की हिदायत होती थी बिना नहाए आज़ खाना नहीं मिलेगा। अब आप बताएं जिस तिल सकरात का हम इंतजार करते थे, दही के लिए दूध के इंतजाम में तमाम मुश्किलों को हल करते थे, अब ऐसा कैसे हो सकता है कि दही चूड़ा से खुद को दूर रखें? सुबह सुबह कड़ाके की ठण्ड में भी किसी तरह मन को समझा बुझाकर कर उस दिन नहाना ही पड़ता था।
जब तक हम लोग तैयार होते थे तब तक मां उस मौसम में मिलने वाली तमाम तरह की सब्जियां मिलाकर मिक्स सब्जी बनातीं थी। बाद में जब नौकरी के लिए गुजरात पहुंचे तब मालूम पड़ा कि मां की बनाई हुई वही मिक्स वेज दरअसल उंधियू है। बस फ़र्क इतना सा था कि हमलोग सब्जियों में मीठा नहीं डालते हैं और उंधियू में मीठा डाला जाता है। तिल सकरात जिसे गुजरात में उत्तरायण के नाम से ज़्यादा जाना जाता है, वहां आज के दिन बड़े बड़े होटलों और रेस्तरां में उंधियू के लिए लोग पंक्तिबद्ध होते हैं।
अब मां की लगभग सारी तैयारियां पूरी हो जाती थी। सबसे पहले पूजा कर मां हमलोगों को काले तिल से बने हुए लड्डू या फिर तिलकतरी खिलाती थी उसके बाद ही चूड़ा दही खाने को मिलता था। दो चार दिन ठंडी को भूलकर हम सभी सुबह-शाम बस दही चूड़ा दे दनादन।
हां एक बात कहना तो हम भूल ही गए। हम सभी सरकारी क्वार्टर में रहा करते थे। लगभग 70 परिवार रहते थे। छः सात मुस्लिम परिवार भी थे। तिल सकरात ( मकर संक्रान्ति ) के दिन मां सभी के यहां चूड़ा, दही और तिल के लड्डू भिजवाया करतीं थीं। वो भी हमारा इंतज़ार करते थे। अब वो बातें कहां? सब लोग अपने-अपने घरों में कैद हो कर रह गए हैं। दड़बों की जिंदगी है। फ़्लैट का दरवाज़ा बंद और आप का कनेक्शन बाहर की दुनिया से बिल्कुल खत्म। बाहर क्या हो रहा है उससे बिल्कुल बेखबर। सामाजिकता कहां से निभा पाएंगे? बस सुबह सुबह सोशल मीडिया पर संदेश भेज दिया और बस अपने कर्तव्यों की इतिश्री।
अब मां हमारे साथ नहीं हैं, लेकिन उनकी दी हुई यादें और परंपराएं अब भी हमारे साथ हैं। उन्हीं की बताई बातों और सहेजे हुए पलों के सहारे हम तिल सकरात और अन्य त्योहार मनाते हैं। उनकी यादें आज भी इस त्योहार को जीवंत बनाए रखती हैं।
इस तरह, तिल सकरात हमारे बचपन और पारिवारिक परंपराओं का एक अमूल्य हिस्सा है, जो हर साल हमें हमारे जड़ों से जोड़ता है।
पुरानी यादें ताजा हो गयी । बहुत अच्छी तरह से प्रस्तुत किया गया