संस्मरण: गाँव की रामलीला
हमारे गाँव में हर साल रामलीला होती है। गाँववाले उसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। महिलाएँ शाम का चौका-चूल्हा जल्दी निपटा देती हैं। बाल-बच्चों समेत सजधज कर रामलीला देखने पहुँचती हैं।
एक बार दशहरे की छुट्टियों में हम अपने गाँव गए थे। उस साल भी हमारे गाँव में बड़ी चटपटी रामलीला हुई। चलिए, आपको भी बताते हैं उस रामलीला का आँखों देखा हाल…
रामलीला का मैदान है। एक ओर बहुत बड़ा मंच बना है। रामलीला में भाग लेने वाले कलाकार स्टेज के पीछे अपना मेकअप करवा रहे हैं। दशरथजी का रोल कर रहे कलाकार पैंट-शर्ट पहने, चेहरे पर बड़ी-सी सफेद दाढ़ी-मूंछें लगाए आईने में अपना चेहरा निहार रहे हैं। एक लड़का उनके लिए धोती, अंग वस्त्र और मुकुट लेकर खड़ा है।सीताजी बना दूसरा पतला दुबला लड़का कोने में कुर्सी पर बैठा ऊँघ रहा है। लक्ष्मण बने कलाकार कन्धे पर धनुष रखने की प्रैक्टिस कर रहे हैं।
मैदान में दर्शक अपने-अपने घर से चटाई, दरी आदि बिछाकर उन पर बैठकर जगह लूट रहे हैं। एक लड़की अपना बोरा बिछाकर कहती है- “यहाँ हम बैठेंगे”। एक लड़का वहीं अपनी दरी बिछाकर कहता है- “नहीं, यहाँ हम बैठेंगे।” हम-हम लड़ाई जारी है। अंत में, लड़की जीत जाती है क्योंकि उसकी माँ भी साथ आई है। पड़ोसी परिवार भी झट से उनकी बगल में अपनी दरी बिछाकर बैठ जाता है। सास, बहू, बेटा, पोते-पोतियाँ! दर्शकों की भीड़ बढ़ती जा रही है।
तभी माइक पर कोई चिल्लाता है-“शान्ति, शान्ति, शान्ति।” रामानुज चाचा भड़क उठते हैं- “ई कौन ससुरा हमरी मेहरारू का नाम ले के माइक पे चिल्ला रहा है कपार फोड़ देंगे।” तभी माइक पर फिर से आवाज़ आती है- “आप लोग सांन्ति के साथ बैठिए। सांन्ति के साथ नहीं बैठेंगे तो रामलीला कैसे शुरू होगा?” रामानुज चाचा फिर गरजते हैं- “ऊ देखो, सबको हमरी जोरु सांन्ति के साथ बैठने को कह रहा है। इसको तो हम आज बताइए देंगे।” पास बैठी दमयन्ती भौजी कहती है- “अरे, वो तुमरी जोरू को काहे बुलाएगा? ऊ तो चुप रहने को कह रहा है. सांन्त होके बइठो चाचा।” चाचा शान्त हो जाते हैं।
फिर एक आदमी माइक पर आकर कहता है- “हाँ तो भाइयों और बहनों रामलीला शुरू होने वाला है। अभी राम बनवास का सीन दिखाया जाएगा।” परदा खुलता है. राम-सीता-लक्ष्मण चौदह बरस के लिए बनवास को जा रहे हैं। इधर दशरथ विलाप कर रहे हैं – “हे राम मुझे छोड़कर कहाँ जा रहे हो? मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकूँगा।” ‘हे राम‘ कहते हुए वे धड़ाम से स्टेज पर गिरकर मर जाते हैं। दर्शक तालियाँ बजाते हैं। सीटी मारते हैं– “वाह, बहुत बढ़िया! क्या मरा है? जियो प्यारे, फिर से, फिर से।” मरे हुए दशरथ, फिर से उठकर विलाप करने लगते हैं- “हे पुत्र मुझे छोड़कर मत जा” और फिर एक बार धड़ाम से गिरकर मर जाते हैं। तालियाँ बजती हैं। परदा गिरता है।
तभी माइक पर आवाज़ आती है- “भाइयो और बहनो, एक सूचना है….. बुद्धनजी की गइया खूंटा तुड़ा के रामलीला मैदान में दौड़ रही है। बुद्धनजी किरपा करके अपनी गाय पकड़ लें। और अभी-अभी एक सूचना और आई है। धनेसरी देवी अपने घर में ताला लगाकर आई हैं। उनके पति कह रहे हैं कि घर पर खाना बना हो तो स्टेज पर आकर घर की चाबी दे दें। खाना नहीं बनाया है तो बैठी रहें। वो बाहर खा लेंगे। हलो….हलो सान्त हो जाइए। अब देखिए दूसरा सीन… ।”
परदा उठता है। रामजी सरयू नदी के किनारे सीता और लक्ष्मण को लेकर खड़े हैं। भवसागर पार करानेवाले भगवान राम केवट के बेटे से कहते हैं- “अपने बापू से कहो नाव लेकर आएँ। हमें पार उतरना है।” केवट दूर से राम को अवाक् देखता रह जाता है। ‘माँगी नाव न केवट आना।‘ उसे डर है कि राम के छूने से पत्थर की अहिल्या नारी बन सकती है तो कहीं राम के बैठने से लकड़ी की नाव नारी न बन जाए। उसकी रोजी-रोटी तो जाएगी ही, ऊपर से दो नारियों के भरण-पोषण की समस्या आ जाएगी…
अचानक लाइट चली गई। हल्ला-गुल्ला। परदा गिर गया। लाइट आ गई फिर माइक पर “हलो, हलो, एक सूचना है। लालजी जहाँ कहीं हों, घर चले जाएं। भौजी बुला रही हैं। हलो, मैं रामलीला मंडली का मनीजर बोल रहा हूँ… बीच में ही आवाज़ आती है – ‘ए हट, हट हमें दे माइक….जीतूलालजी जहाँ कहीं हों जल्दी से स्टेज पर आएँ हनुमान जी की पूँछ नहीं मिल रही है…” फिर एक आवाज़… “हलो, देखिए बड़ी सरम की बात है। कल जब लाइट चली गई तो अंधेरे में किसी ने मनीजर को थप्पड़ मार दिया था। तू कौन है पूछा, तो बोला कि मैं भूत हूँ। आज भी जब लाइट गई तो मनीजर को फिर से थप्पड़ मारा। भूत से प्रार्थना है, थप्पड़ न मारे…सांत बैठे।”
परदा उठने वाला है। एक सूचना और है- “जो रावण बनने वाले थे, रेल्वे में डलेवर हैं। उनकी नाइट ड्यूटी लग गई है। उनकी जगह अब हमारे गांव के नेताजी ने रावण का रोल करना स्वीकार किया है। हलो, हलो कृपया सांत हो जाइए। इस बार हम जो रावण-वध दिखाएंगे, उसमें सच में रावण को मारा जाएगा। एक निवेदन है, पिछले साल जब रावण जल रहा था तो किसी ने दमकल विभाग को फोन कर दिया था। इस साल कृपया ऐसा न करें। रावण को पूरा जलने दें।”
सूचना चल रही थी कि इसी बीच दर्शक महिलाओं के बीच किसी कारण युद्ध छिड़ गया। उनके पति भी आमने-सामने आकर लड़ने लगे। महिलाएँ और जोश से लड़ने लगीं। फिर उस दिन की रामलीला का अंत महिलाओं के महाभारत से हुआ।
*डॉ. गीता पुष्प शॉ की रचनाओं का आकाशवाणी पटना, इलाहाबाद तथा बी.बी.सी. से प्रसारण, ‘हवा महल’ से अनेकों नाटिकाएं प्रसारित। गवर्नमेंट होम साइंस कॉलेज, जबलपुर में अध्यापन। सुप्रसिद्ध लेखक ‘राबिन शॉ पुष्प’ से विवाह के पश्चात् पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज में अध्यापन। मेट्रिक से स्नातकोत्तर स्तर तक की पाठ्य पुस्तकों का लेखन। देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। तीन बाल-उपन्यास एवं छह हास्य-व्यंग्य संकलन प्रकाशित। राबिन शॉ पुष्प रचनावली (छः खंड) का सम्पादन। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित एवं पुरस्कृत। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से शताब्दी सम्मान एवं साहित्य के लिए काशीनाथ पाण्डेय शिखर सम्मान प्राप्त।
वाह… बहुत ही शानदार व्यंग्य 👏👏👏👏👌👌
प्रस्तुत लेख में गांव की रामलीला का वर्णन किया गया है। गांव में खेली जाने वाली रामलीला शहरों की रामलीला से भिन्न होती है। शहरों में रामलीला बहुत ही व्यवस्थित और अनुशासित होती है। वह आम जीवन से कटी होती है। इसके विपरीत गांव की रामलीला में पूरे गांव का चरित्र उभरकर आता है। इसीलिए हम पाते हैं कि किसी के निजी जीवन की समस्या मंच से संबोधित होने लगती है तो आवारा फिर रही गायों का प्रसंग भी आ जाता है। यही नहीं गांव सुलभ भोलापन भी दर्शकों के आपसी संवाद में देखने को मिलता है। गांव में रामलीला के कलाकारों से अपेक्षाएं भी अलग क़िस्म की होती हैं और वे उनके अनुसार रामलीला का मंचन चाहते हैं भले ही वह उसका हो या न हो। कुल मिलाकर ग्रामीण रामलीला में ग्रामीण जीवन के रंग और छटाएं देखने को मिलती हैं।
बहुत आभार रचना पसंद करने के लिए।
कहानी बहुत बढ़िया लगी।
मैं तो कुछ देर तक उसी गाँव के मेला में अपने आप को खो दी थी। कहानी काफ़ी रोचक थी। आभार आदरणीया इस तरह की रचना के लिए… !