रविवारीय
– मनीश वर्मा’मनु’
कल जब स्कूल के छोटे छोटे बच्चों को पीठ पर कोचिंग क्लासेस के लेबल लगे बैग लेकर पढ़ने के लिए जाते हुए देखा तो मुझे अपना बचपन याद आ गया। मुझे क्या हम सभी को अपना बचपन याद आएगा।
वो टिन का छोटा बक्सा ! हां हममें से कुछ समृद्ध परिवार के बच्चे स्टील के बक्से में अपनी किताबें लाया करते थे। बड़े करीने से एक तरफ़ रखी हुई किताबें और दूसरी तरफ़ लंचबॉक्स रखने के लिए बनायी गई जगह । बाद में गांधी जी वाला कंधे के एक तरफ़ लटकाए रखने वाले थैले ने अपनी जगह बना ली। हाथों में किताब ले जाना भी चल जाता था। बहुत कंसर्नड यानि कहा जाये तो चिंतित नहीं थे हम सभी। पढ़ाई का बोझ भी कम था शायद! अब तो छोटे छोटे बच्चों को पीठ पर भारी भरकम किताबों के बोझ तले देखना, बड़ा ही अजीब लगता है।
पीठ पर रखा जाने वाला “पिट्ठू” तो बहुत बाद में आया।
नए क्लास में जाना एक उत्सव के समान होता था। तब के स्कूल ने आपको बुक लिस्ट दे दिया और अब आपकी मर्ज़ी आप किताबें दुकान से खरीदें या फ़िर स्कूल से। कोई बात नहीं। आज जैसी बाध्यता नहीं थी। खरीदी गई किताबों पर फ़िर उसपर नाम लिखने के लिए चिपकी साटना । वो किताबों में जिल्द (कवर) लगाना। अमुमन जिल्द ब्राउन पेपर का लगाया जाता था। जनाब, ब्राउन पेपर कोई ब्रांडेड पेपर नहीं था। बस उसका रंग भुरा था। नहीं मिल पाया तो अखबार के पन्ने से ही काम चला लिया। किताबों के बीच मोर पंख का रखना। मखमल के पत्तों को भी किताबों के बीच रखा जाता था। नहीं मालूम था उस पौधे का नाम। हम सभी उसे मखमल का पौधा ही कहते थे।
वो बाटा का नाॅटी बोॅय जूता। सबके पास लगभग एक जैसा। एक दो तो ब्रांड ही थे। कहां आज जैसी ब्रांड की मारा मारी थी? आज तो हर स्कूल अपने अपने तरीके से अपने आपको ब्रांडिंग करता हुआ नजर आ रहा है। शिक्षा बाजार में बिकने वाली वस्तु की तरह हो गईं है। हर कोई अपनी दुकान सजाए बाजार में खड़ा है।
बाजारवाद ने तब शायद अपने पांव शायद नहीं पसारे थे। स्कूल तब तक हम कह सकते हैं वाकई एक मंदिर हुआ करता था – विद्या का मंदिर। कुछ ग़लत होने पर ‘विद्या’ के नाम की कसमें खाना। बहुत बड़ी बात थी। जानबूझकर शायद ही कोई ग़लत कसम खाता था। एक विश्वास था। एक भरोसा था ‘विद्या’ के नाम पर। सबकुछ अनायास ही याद आ गया। भूल गए थे हम।
शिक्षकों की हम सभी मां बाप से ज्यादा कद्र करते थे। क्या मजाल की उनकी बातों की अवहेलना कर दें। आज़ उनके हालात पर तरस आता है। क्या से क्या हो गया। जिस तबके को समाज में सबसे ज्यादा तवज्जो मिलनी चाहिए थी , आज वो तबका हाशिये पर खड़ा है। शायद ही कोई बच्चा पूछने पर यह कहे कि उसे शिक्षक बनना है। शायद उसकी प्राथमिकताओं में शुमार नहीं है यह शब्द।
परिणाम हम सभी देख और झेल रहे हैं। पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों की पहली सीढ़ी चढ़ना जो तबका हमें सिखाता था वो तो कहीं दूर उपेक्षित सा खड़ा है। क्या उम्मीद करें हम। आज हम जो भी हैं उन्हीं शिक्षकों की बदौलत।एक मलाल अभी भी है। हमें उनसे कुछ ज़्यादा हासिल करना था। अफसोस है नहीं कर पाए। एक से एक सक्षम और विद्वान शिक्षक। उनकी क्षमता पर कोई सवालिया निशान नहीं। कोई शक शुबहा नहीं। नाम ज़ेहन में आते ही सर श्रद्धा से झुक जाता है। शिक्षकों की मार का कोई बुरा नहीं मानता था। पिटाई को आशीर्वाद के रूप में लिया जाता था। ऐसा माना जाता था कि पिटाई उसकी होती थी जो शिक्षक के दिल के करीब होता था। भुलाए नहीं भूलते वो दिन।
आज़ बड़ी विकट स्थिति है। अपनी बातों को मनवाने के लिए उन्हें सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। कभी कभी तो उनपर लाठियां भी चटकाई जाती हैं। क्या करें, बाजारीकरण ने हमें अंधा कर दिया है। हम घुप्प अंधेरे में हाथ पांव मार रहे हैं। परिणाम शुन्य! पर चलिए शायद कभी तो वो सुनहरे दिन लौट कर आएंगे। उम्मीद पर ही तो है दुनिया कायम!
अद्भुत संप्रेषण लेखनी की अद्भुत रचना
बस इसी तरह हौसला अफजाई करते रहें
कल और आज की शिक्षा व्यवस्था को सीमांकित करती एक सटिक प्रस्तुति,फिर “कल” की तो कल्पना ही की जा सकती है।