रविवारीय
– मनीश वर्मा ‘मनु’
सफ़रनामा: मेघाहातुबुरू और किरीबुरू
इस सफ़रनामा में चलिए, झारखंड और उड़ीसा के सीमा पर स्थित बहुत ही खूबसूरत मेघाहातुबुरू और किरीबुरू से एक सफ़र की शुरुआत करते हैं।
किरीबुरू — किरी मतलब हाथी और बुरू मतलब जंगल। मेघाहाताबुरू — मेघ मतलब बादल, हाता मतलब गांव और बुरू मतलब जंगल। हमेशा बादलों से आच्छादित जंगलों के बीच एक गांव। अब मुझे नही लगता है कि इनके नाम की सार्थकता को बताने की जरूरत है।
‘सारंडा’ मतलब हाथी। सारंडा के घने जंगलों और सारंडा के ही लगभग सात सौ छोटी बड़ी पहाड़ियों से आच्छादित यह जगह खूबसूरती की मिसाल है। कभी कुछ कारणों से सारंडा का इलाका थोड़ा चर्चा में था पर आज़ वैसी बात नही।यहां के सूर्यास्त के दृश्यों का आनंद उठाने लोग दूर-दूर से आते हैं। कुछ विहंगम दृश्य सूर्यास्त के, जिसे मेरी नज़रों से कैमरे ने भी कैद किया। नज़रें हालांकि हटने का नाम नहीं ले रही थीं। पर, सूर्य को तो अस्त होना ही था कहीं और उदय होने के लिए। यही तो जिंदगी और उसका फ़लसफ़ा है!
किरीबुरू और मेघाहातुबुरू – आप इन्हें जुड़वां कह सकते हैं। पूरा का पूरा इलाका लौह अयस्क के लिए विख्यात है। सिर्फ यही नहीं पूरा पश्चिम सिंहभूम लौह अयस्क के लिए विश्व विख्यात है। यहां स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (सेल) की अपनी लौह अयस्क की खदानें हैं। वैसे आस-पास के क्षेत्रों में और भी कई छोटी बड़ी सरकारी और निजी खदानें हैं पर, सेल ने यहां माइनिंग के साथ ही साथ अपने परिजनों के लिए एक खूबसूरत सी दुनिया ही बसा रखी है।
मैंने यहां रह रहे लोगों के लिए ” सेल के परिजनों ” शब्द का इस्तेमाल किया है। वाकई ये सभी ‘ सेल परिवार’ के अहम सदस्य हैं। अगर आपने यहां रहने और काम करने के दौरान अपने आप को सेल परिवार का सदस्य नही समझा तो इस जंगल में रह पाना आपके लिए मुश्किल ही नही असंभव होगा। टाटा के द्वारा स्थापित, पोषित और संरक्षित झारखंड राज्य का एक खूबसूरत औधोगिक शहर जमशेदपुर से कोई 160 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम सिंहभूम के मुख्यालय चाईबासा से लगभग 100 किलोमीटर दूर स्थित बहुत ही छोटा सा कस्बानूमा जगह है मेघाहातुबुरू और किरीबुरू। रहने के लिए यहां सिर्फ और सिर्फ सेल और दूसरी कंपनियों के गेस्ट हाउस हैं। रिहायशी होटल नहीं है। पर्यटन के दृष्टिकोण से अनुकूल नहीं है। पर एक बेहद ही खूबसूरत और आकर्षक जगह। जिसने देखा वो बार बार आना चाहेगा।
वैसे तो झारखंड की प्राकृतिक खूबसूरती का अहसास तो जमशेदपुर से निकलते ही हो जाता है। जैसे जैसे आप आगे बढ़ते जाते हैं आपकी आंखें कैमरे में बदल जाती हैं। सभी को अपनी आंखों मे क़ैद करने की कोशिश। चाहे वहां के लोगों का जनजीवन हो या फ़िर प्राकृतिक नज़ारा। पर, ऐसा भला कहां संभव है? कैमरे और आंखों के बीच एक कशमकश जारी। पर जैसे ही आप आख़िरी, लगभग बीस किलोमीटर की दूरी की शुरुआत सुरम्य वादियों और छोटे छोटे पहाड़ों के बीच से करते हैं, दिल और दिमाग जैसे कहीं खो से जाते हैं । पुरी इन्द्रियां सिर्फ और सिर्फ एक ही जगह केन्द्रित हो जाती हैं। आप यहां की सुरम्य और खूबसूरत वादियों के बीच अपने को छोड़ देते हैं।
चलिए अब आप मेघाहाताबुरू पहुंच गए – लौह अयस्क की माइनिंग के लिए प्रसिद्ध एक बहुत ही मनोरम जगह।
मेघाहाताबुरू के प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेने के बाद मेघाहाताबुरू में हम लोगों ने वहां के अपने स्थानीय संपर्क के लोगों से विख्यात लौह अयस्क की खदानों को देखने की ख्वाहिश ज़ाहिर किया। किरीबुरू आयरन ओर माइन्स और मेघाहाताबुरू आयरन ओर माइन्स। जी हां! यही नाम है उन खदानों का। बिना किसी स्थानीय और वह भी सेल से जुड़े हुए संपर्क के लोगों के आप खदानों को नहीं देख सकते हैं। पूरी की पूरी खदानें केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के हवाले है। आखिरकार सुरक्षा और संरक्षा का सवाल है। हम लोगों के वहां जाने के लिए पास बनवाया गया। खदान में जाने वाली गाड़ी और वहीं के ड्राइवर के साथ चल पड़े हम सभी लौह अयस्क की खदानों को देखने के लिए। आख़िर कैसे खदानों से लौह अयस्क निकलता है और विभिन्न चरणों में प्रोसेसिंग होने के बाद फाइन और लंप इन दो रूपों में रेलगाड़ियों के द्वारा इन्हें कारखानों तक पहुंचाया जाता है।
एक अलग ही अनुभव रहा। शब्दों में शायद बयां नही किया जा सकता है। बड़ी बड़ी विशालकाय मशीनों के बीच हम बहुत छोटे नज़र आ रहे थे। आमतौर पर वैसी मशीनें और वहां पर काम पर लगी गाड़ियां देख पाना संभव नहीं। जंगल के भीतर एक अलग ही दुनिया। उन सबों के बीच एक अलहदा ही अनुभव।
मेघाहाताबुरू से लौटते हुए हम लोगों की सवारी कुछ देर के लिए जगन्नाथपुर के पास “सिरिंगसिया घाटी” में रुकी। घाटी की शुरुआत में ही वनदेवी की एक प्राचीन मंदिर है जहां घाटी पार करने से पहले सभी ख़ासकर वाहन चालक पत्ते चढ़ाकर उनकी पूजा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि वनदेवी की पूजा करने से उनकी आगे की यात्रा सुखद एवं मंगलमय होती है।हम सभी ने भी वहां गाड़ी रोककर वहां पत्ते चढ़ाकर पूजा की। वैसे अमूमन हर जगह जंगलों में घाटी की शुरुआत में वनदेवी या फ़िर वन देवता की पूजा की जाती है।
खैर! हम फ़िलहाल बातें कर रहे हैं सेरेंगसिया घाटी और उससे जुड़ी हुई विरासत की। हालांकि इसे इतिहास में बहुत बड़ा स्थान नही दिया गया है पर, इसके महत्व को और इसकी सच्चाई को कैसे नकारा जा सकता है। ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ सन्1937 में सिरिंगसिया घाटी में कोल विद्रोह हुआ था। इस विद्रोह का नेतृत्व राजाबासा निवासी “पोटो हो” ने किया था। पश्चिम सिंहभूम जिले में हो जनजाति का बाहुल्य है। पोटो हो के नेतृत्व में आदिवासी विद्रोहियों ने बड़ी ही बहादुरी के साथ अपने परंपरागत हथियार तीर धनुष के साथ आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेज़ सैनिकों के साथ युद्ध किया था। इस युद्ध में करीब 26 आदिवासी लड़ाके शहीद हुए थे। आदिवासियों ने इस लड़ाई में अपने सरदार पोटो हो के नेतृत्व में अंग्रेजों को बुरी तरीके से हराया था । हालांकि, उन्हें इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। इन्हीं शहीदों की याद में सिरिंगसिया घाटी में कोल विद्रोह के नायकों पोटो हो, बेराई हो, पुंडुवा हो, बडाए हो, नारा हो, देवी हो, वो सुगुनी हो के स्मारक बनाए गए हैं। आज़ भी वहां हर वर्ष दो फ़रवरी को शहीदों की याद में एक समारोह आयोजित कर आदिवासी समाज परंपरागत परिधानों में, परंपरागत तरीकों से पूजा कर, शहीदों को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
जमशेदपुर से चाईबासा होते हुए किरीबुरू और मेघाहातुबुरू जाने और आने के क्रम में हमलोगों ने रास्ते में जगह-जगह पर आदिवासी समाज की महिलाओं को बड़े बड़े अल्यूमिनियम या फिर मिट्टी के बर्तनों में कुछ पेय पदार्थ बेचते हुए देखा। जहां वे महिलाएं इसे बेच रही थीं कुछ लोग बड़े ही चाव से कटोरे में उस पेय पदार्थ को पीते हुए हमने देखा। हमारे साथ, हमारे जो मित्र थे जिनके सौजन्य से हम इस ट्रिप पर थे वे आदिवासी समाज से ही आते हैं। कौतुहुलता वश हमने उनसे इस बारे में बातें की। उन्होंने बताया कि यह “हंडिया” है जो उनके समाज का एक अभिन्न हिस्सा है। इसे वे सभी स्थानीय भाषा में ” डियांग” कहते हैं। आज उनके समाज में चाहे कोई भी उत्सव मनाया जा रहा हो। भले ही वह जीवन से जुड़ा हुआ हो अथवा मृत्यु से। ख़ुशी का माहौल हो या फ़िर ग़म का । हंडिया न हो इसकी कल्पना भी नही की जा सकती है। ऐसा कहा जाता है कि आप आदिवासी समाज के लोगों को चाहे कितना भी अच्छा भोजन परोस दें पर , यदि हंडिया नहीं तो कुछ भी नहीं। सब बेकार है। मिथ्या है सब कुछ। हंडिया उनके जीवन का एक अभिन्न अंग है। हंडिया या जिसे स्थानीय लोग डियांग कहते हैं दरअसल चावल से बना हुआ एक पेय पदार्थ है। इसे बनाने के लिए चावल को पानी की उचित मात्रा के साथ पकाते हैं। बने हुए चावल के ‘भात’ को एक चटाई पर रखकर उसे बिल्कुल ठंडा होने तक छोड़ देते हैं। ठंडा होने के बाद उसमें बिल्कुल अच्छे तरीके से विभिन्न प्रकार के जड़ी बूटियों के मिश्रण को मिलाया जाता है। इस जड़ी बूटी के मिश्रण को वे लोग “रानू ” के नाम से जानते हैं। कौन सी जड़ी बूटी वे लोग मिलाते हैं यह बहुत हद तक अभी निकल कर बाहर नही आ पाया है। जान कर भी हमलोग क्या कर लेंगे? जंगल की चीजें हैं। भटकते रह जाएंगे। ऐसी कोई चीज़ तो है नहीं कि पंसारी के यहां से खरीदा जा सके। भात और रानू के मिश्रण को दो तीन दिन छोड़ देने से फर्मेंटेशन की प्रक्रिया से जो सामान बनता है उसे “रासी ” कहते हैं। यह बिल्कुल ही शुद्ध है। इसे छानकर थोड़ा इसमें पानी मिलाकर बने पेय पदार्थ को हंडिया कहते हैं। मट्ठे सा थोड़ा तीख़ा स्वाद। ज़्यादा दिन तक फर्मेंटेशन की प्रक्रिया से गुजरने पर यह थोड़ा कड़ा और नशे का काम करता है। आदिवासी समाज तो दो कटोरा हंडिया पीकर ही काम पर निकलता है। उनके लिए हंडिया उनके जीवन का अभिन्न अंग है। उनके दिनचर्या का हिस्सा है। भले ही हम “दिक्कू” ( बाहरी लोगों के लिए आदिवासियों के द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द) इसके लिए कुछ और कह लें।
इस सफ़रनामा में अंतत: यही कहूंगा किजाने पहचाने और लोकप्रिय जगहों पर तो अक्सर ही लोग जाते हैं पर कभी ऑफबीट जगहों पर जाएं, चित्त प्रसन्न हो जाएगा।
अद्भुत अविस्मरणीय लेखनी लगा जैसे आपके साथ ही मैं वहां घूम रहा हूं साथ ही ऐतिहासिक ज्ञान भी बड़ा जैसे आपका आभार साझा करने के लिए
Beautiful description
Thank you bro
ज्ञानवर्धक यात्रा-वृतांत