रविवारीय: घुमक्कड़ी
– मनीश वर्मा ‘मनु’
घुमक्कड़ी भी बड़ी अजीब चीज होती है। घूमते हुए आप दुनिया के इंद्रधनुषी रंगों से वाकिफ होते रहते हैं। कब कौन सा रंग आपको दिख जाए कहना मुश्किल होता है। आज की इस भाग दौड़ भरी दुनिया में जहां हर व्यक्ति परेशान हैं, हलकान है, अपनी इस भागदौड़ भरी जिंदगी से पर वो इससे निकले भी तो कैसे? न चाहते हुए भी यह आपकी नियति जो बन गई है । आप उससे बच नहीं सकते हैं पर हाँ, उसको अपने ढंग से किनारे लगा, चैन से जी ज़रूर सकते हैं।
तो जी हां, चलिए आज मैं आपको दिखाने की कोशिश करता हूँ दुनिया की इंद्रधनुषी रंगों में से एक रंग को जो मैंने अपने घुमक्कड़ी के दौरान बड़े करीब से देखा है। महसूस किया है उन पलों को। चलिए मैं आपको ले चलता हूं कोलकाता।
अरे भाई बड़ी मुश्किल से कोलकाता निकल रहा है। अभी तक जुबान पर कलकत्ता ही चढ़ा हुआ है। इसे ही रहने दो ना। मेरी पीढ़ी के बाद वालों से सुधरवा लेना। अपनी घुमक्कड़ी (मुझे अब बुरा नहीं लगता है बल्कि अच्छा लगता है, जब मुझे कोई घुमक्कड़ कहता है) के क्रम में जब मैं कलकत्ता शहर की गलियां नाप रहा था, अनायास एक दिन मेरी नजर वहां के काफी भीड़-भाड़ इलाके गरिया हाट के एक व्यस्ततम चौराहे पर पड़ी। वहां कुछ लोग सड़क के डिवाइडर वाली खाली जगह पर शतरंज खेल रहे थे। शतरंज का खेल जिसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि काफी एकाग्रता वाला खेल होता है। उस भीड़- भाड़ वाले जगह पर, बिल्कुल चौराहे पर स्थित वह जगह जहां हर वक्त सैकड़ों की तादाद में गाड़ियां गुज़र रही हैं। उनके हॉर्न की आवाजें आपको झकझोर कर रख दे रही हों। बिना हॉर्न बजाए तो गाड़ी हम चलाएं भी तो कैसे? आखिर उसे भी तो उपयोग में लाना है। गाड़ी में आखिर उसे लगाने की वज़ह क्या है? अपने आस्ट्रेलिया प्रवास के दौरान मेरे तो कान तरस गए थे , गाड़ियों के हॉर्न की आवाजें सुनने को। पता नहीं क्यों? वहां कोई बजाता ही नहीं है! पता नहीं वहां की गाड़ियों में हॉर्न होता भी है या नहीं।
जहां उस चिल्लपों में एक पल भी गुजारना मुश्किल हो वहां लोगों का शतरंज खेलना वाकई सुखद और आश्चर्यजनक दोनों ही था। कोई भी एक दूसरे को वहां जानता नहीं है। लोग आते हैं, बोर्ड पहले से बिछा रहता है। सामने से कोई भी आकर बैठ सकता है और बस खेल शुरू। शतरंज का बोर्ड , गोटियां और बैठने के लिए सीमेंटेड चबुतरे का निर्माण यह सब कुछ कलकत्ता शहर के एक बड़े ज्वैलर्स पीसी चंद्रा के सौजन्य से है। अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए।
कलकत्ता एक महानगर है। सुबह से शाम तक शहर में भागम भाग की स्थिति है। किसी के पास वक्त नहीं है। सभी कमाने खाने और अपने परिवार और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए इंतज़ाम में लगे हुए हैं। पर, इन्हीं सब चीजों को देखकर लगता है शहर में जान है। सिर्फ मशीन नहीं है यहां के लोग। स्पंदन हीन नहीं है यह शहर। दिल धड़कता है इस शहर का। किसी प्रकार का कोई भेद नहीं । मज़हब, भाषा और वर्ग से परे एक दुनिया । आपस में बस सिर्फ और सिर्फ शतरंज खेलते हुए। कुछ देर के लिए लोग उस भीड़भाड़ वाले जगह पर सुकून की तलाश करते हैं । वह सुकून उन्हें मिलता है शतरंज के खेल में । जी हां शतरंज का खेल। कुछ देर बैठे, दिन भर की थकान को दूर किया और फिर तरोताजा हो चल दिए अपने अपने मुकाम पर।
अब आइए इस इन्द्रधनुष के दूसरे रंग से अब आपका परिचय करवाते हैं।
इसी कलकत्ता शहर के दक्षिण भाग में स्थित है दक्षिणापण । यह एक व्यावसायिक क्षेत्र है। यहां कुछ बड़े सरकारी कार्यालयों के भवनों के अलावा एक बड़ा व्यावसायिक परिसर भी है – दक्षिणापण व्यावसायिक परिसर।
पिछले रविवार की बात है। दक्षिणापण व्यावसायिक परिसर में खरीददारी करते वक्त मेरे कान में बाउल की मधुर आवाज़ आई। बाउल दरअसल पश्चिम बंगाल का लोक संगीत है जो आध्यात्म से परिपूर्ण होता है। बाउल का ध्यान आते ही चैतन्य महाप्रभु की छवि मन के किसी कोने में परिलक्षित होती है। इसी बंगाल में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में एक बाउल मूवमेंट भी हुआ था। इसे गाने वाले को बाउल कहते हैं। खैर! बाउल के बारे में विस्तृत जानकारी फिर कभी।
बाउल की आवाज कानों में आते ही मेरे कदम उस ओर बढ़ चले। बाउल की भाषा मेरी समझ से काफी परे है पर उसका संगीत इतना मधुर और कर्ण प्रिय होता है आप उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते हैं।
खैर! दक्षिणापण व्यावसायिक परिसर से सटे हुए ही कलाप्रेमियों ख़ासकर थियेटर करने वालों के लिए एक कला केन्द्र है जिसका नाम बंगाल के सुप्रसिद्ध कवि माइकल मधूसुदन दत्ता के नाम पर’ मधूसुदन मंच ‘ रखा गया है, उसके मुख्य द्वार पर अपने आप में मगन, बिल्कुल ही तल्लीनता से एक व्यक्ति दीन दुनिया से बेखबर ” इकतारा ” पर बाउल गा रहा था। बगल में उसके उलट कर रखी हुई उसकी टोपी रखी हुई थी। एक संदेश भी उसने छोड़ रखा था। संदेश का सार यह था कि अगर मेरा संगीत आपको पाजिटिविटी देता है तो आप अपना योगदान दे सकते हैं। लोग बाग आ जा रहे थे। जिन्हें योगदान करना होता था वो कर भी रहे थे। इस तरह से चौक चौराहे और प्रमुख प्रतिष्ठानों के परिसरों में गाते और बजाते हुए सर्वप्रथम मैंने पर्थ में देखा था।
बाद में जब मैंने उसके बारे में विस्तार से जानना चाहा तो मुझे मालूम पड़ा कि इस बंदे का नाम रूबल भट्टाचार्य है और वो इसी तरह घूम घूमकर अपने बाउल संगीत के माध्यम से विश्व को एक पोजिटिव संदेश देना चाहता है। ” ट्रेवल फकीरी ” के नाम से उसका एक फेसबुक पेज भी है। वह पुरे बंगाल में घूम घूमकर अपने संगीत के माध्यम से लोगों को एक पोजिटिव संदेश दे रहा है। मैं भी कुछ देर मंत्रमुग्ध हो उसके गायन का आनंद उठाया।
उसी परिसर में ठीक उसके बगल मे ही एक मसाला भुजिया बेचने वाला भी बैठा हुआ था जो मसाला भुजिया तो बेच ही रहा है साथ ही साथ उसके गायन में भी मसाला डाल रहा है। बेहतरीन, सुस्वादु मसाला भुजिया। मसाला भुजिया खाएं और रूबल भट्टाचार्य के बेहतरीन गायन से अपने आपको तृप्त करें।
“मन लागो मेरे यार घुमक्कड़ी में।
जो सुख पावो घुमक्कड़ी में वो कहां बंद कमरे में।।”
घुमक्कड़ी वास्तव में जीवन की एक जीवंत घटना है जिसमे मुझे भी काफी आनंद मिलता है । बंद कमरे से निकल कर घुमक्कड़ी जरूर करना चाहिए।
Bahut hi aacha
Thank you
Beautiful description of Baul music,Chess playing place with masala bhujiya at Kolkata.
घुमक्कड़ी घुमक्कड़ी सब कहे, घुमक्कड़ी जाय न कोय!!
जे जाय घुमक्कड़ी को, ते तन “मनु” हो जाय!!
Thank you for sharing nice lines