रविवारीय: घड़ी की सूइयां
– मनीश वर्मा ‘मनु’
घड़ी की सूइयां निरंतर बढ़ती रहती हैं। पीछे छोड़ जाती हैं यादें।
हाल ही में मेरी एक पुस्तक “मनु कहिन” प्रकाशित हुई है और आज कुछ उसी संदर्भ में मैं अपने प्रकाशक के यहां गया था। संबंधित व्यक्ति के नहीं मिलने से मैं उनका इंतजार बाहर खड़े होकर कर रहा था। पटना का अशोक राजपथ, पता नहीं कब और कैसे इसका नाम राजपथ पड़ा। विश्वविद्यालय का इलाका, हर वक्त छात्रों से अटा पड़ा।
सारे बिहार से यहां बच्चे पढ़ने आते हैं। एक अलग ही दुनिया है। हर गली, नुक्कड़ चाय की दुकान पर छात्रों की भीड़। समसामयिक विषयों और घटनाओं पर एक बहसबाज़ी का दौर चल रहा होता है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर अपने अपने ढंग से विचार व्यक्त और विवेचना करते हुए छात्र।
आप न चाहते हुए भी उस दौर में चले जाते हैं। खो जाते हैं, घड़ी की सूईयों को थोड़ा पीछे खिसका कर। भूल जाते हैं आप अपनी वर्तमान स्थिति। आपकी गाड़ी बैक गियर में चलती जा रही है। जिंदगी एक फ़्लैश बैक की तरह परत दर परत आपकी जिंदगी के कुछ पुराने, कुछ अनछुए पहलुओं से आपका दीदार करवा रही है। खैर! हम कहां थे और कहां पहुंच गए।
कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ। इंतज़ार कर रहा था मैं अपने प्रकाशक के आने का। वहीं दो युवक बातें कर रहे थे। अचानक से मेरे कान उनके कुछ शब्द पड़े। मैं उनकी बातें ध्यानपूर्वक सूनने लगा। ऐसा लगा कि मेरी ही जिंदगी के पन्ने उघारे जा रहें हों। मैं कहीं खो सा गया। जिंदगी फ़्लैश बैक में चलने लगी। ऐसा लगा मैं फ़िर से अपनी जिंदगी जीने लगा। तभी एक जानी पहचानी आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई। मेरे प्रकाशक अमित जी मुझे आवाज़ लगा रहे थे। कहां खो गए ? कहीं फ़्लैश बैक में तो नहीं चले गए थे।
मैंने कहा ! हां मैं फ़्लैश बैक में ही चला गया था शायद!
हर किसी की जिंदगी में कभी न कभी एक ऐसा वक़्त , एक पल ऐसा भी आता है जब वह अपने आप से ही मुंह चुराने लगता है। जब कोई अपने आप से ही मुंह चुरा रहा होता हो, तो उसे समाज की क्या फिक्र हो सकती है भला।सामाजिक कार्यक्रमों में जाना अनदेखा कर जाता है। पसंद नहीं आता है उसे किसी भी तरह के सामाजिक और पारिवारिक कार्यक्रमों में जाना। लोगों का जमावड़ा अच्छा नहीं लगता है उसे। एक छटपटाहट सी होती है, विश्रामावस्था में आने की।आत्म केंद्रित होना उसे पसंद आता है।
बड़ी विडंबना है, पर क्या किया जाए ।कोई भी हो, पढ़ाई कर रहा हो, आगे बिजनेस करना हो, विरासत को संभालना हो, सभी अपनी अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपने भविष्य को लेकर आशंकित रहते हैं। सभी के जिंदगी में यह घड़ी आती है। हम सभी इससे दो चार हुए हैं। मेरी जिंदगी में भी यह दौर आया था। बंद कर दिया था मैंने सामाजिक और पारिवारिक कार्यक्रमों में जाना। लोगों की सवाल पूछतीं निगाहें, जो बिल्कुल स्वभाविक थीं ” क्या कर रहे हो “? बड़ा ही स्वाभाविक सा सवाल होता था पर, मुझे असहज कर जाता था।
अरे, क्या कर रहा हूँ ? कुछ कर रहा होता तो शायद आप यह सवाल नहीं पूछते मुझसे। मन करता ऐसा ही कुछ अटपटा सा जवाब दे निकल चलूं वहां से। पर, किस किस को ज़वाब देता। अपना ही व्यवहार ख़राब होता। कुछ टालमटोल सा जवाब देकर आगे बढ़ चलता था।
सब को मालूम चल जाता गर मैं कुछ करता होता।
यह वह दौर होता है जब आप जिंदगी में एक मुकाम हासिल करने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। आपकी पढ़ाई बस ख़त्म होने को हो रही होती है । आप अब आगे की सोच रहे होते हैं। भविष्य की चिंता आपको परेशान कर रही होती है। आप सशंकित और आशंकित होते हैं। आप जल्द से जल्द जीवन में व्यवस्थित होना चाहते हैं।
यह तो बात और है कि सही घड़ी आने पर आने पर ही सब कुछ होता है। चीजें एक तय समय पर ही आपको मिलती हैं। पर, सुकून कहां मिलता है ! आप कुछ भी जो हासिल करना चाहते हैं, आप चाहते हैं जल्द से जल्द हो जाए। प्रारब्ध तो बाद में आता है। यह शब्द तो उम्र के कुछ पड़ावों के बाद ही आता है।
आज़ मैं भी पूछ्ता हूँ। पर, जैसे ही मुझे अपना समय याद आता है , थोड़ा ठिठक जाता हूँ। अपने आप को थोड़ा पीछे कर लेता हूँ।
फ्लैश बैक में ले जाती सरल शब्दों से संयोजित एक सहज प्रस्तुति।
बिलकुल सत्य :
भविष्य की चिंता आपको परेशान कर रही होती है। आप सशंकित और आशंकित होते हैं।
किंतु सही घड़ी आने पर ही सब कुछ होता है।