रविवारीय: गश्त
सुबह सुबह शहर के मुख्य बाजार में पंद्रह बीस सिपाहियों के साथ इंस्पेक्टर साहब की गश्त जारी थी। आगे आगे इंस्पेक्टर साहब और पीछे पीछे उनका अमला। चलते चलते साहब निर्देश भी दिए जा रहे थे। चारों तरफ़ साहब और उनके पीछे-पीछे चल रहे अमले की नज़र थी। देखने वालों को ऐसा लग रहा था मानों कोई संगीन बात हो गई हो जिसकी वजह से पुलिस को गश्त लगानी पड़ रही है। खैर, उत्सुकतावश हमने जानने की कोशिश की, आखिर मामला क्या है ? सुबह का वक्त था जैसा हमने बताया। अभी तो दुकानें भी पूरी तरह से नहीं खुली थीं।
कुछ लोग अपनी अपनी दुकानों को खोलने में लगे थे तो कुछ झाड़ू बुहारू कर रहे थे। फुटपाथ पर दुकान लगाने वाले बड़े असमंजस में थे कि क्या किया जाए। वे चौकन्नी निगाहों से निगरानी में लगे थे कि कब गश्त लगा कर ये पुलिस वाले हटें और हम अपनी दाल रोटी के इंतजाम में लगे।
कहां सभी को दो गज ज़मीन मयस्सर होती है? जिंदगी यूं ही बीत जाती है। चलिए, हम भी फुरसत में थे। जानने की जुगत में लग गए, आखिर माजरा क्या है? मालूम चला, कल (बीता हुआ दिन ) किसी बड़े साहब की गाड़ी इस जगह पर ट्राफ़िक जाम में फंस गई थी। बस, इसके लिए ही सारी कवायद हो रही थी।
पर, क्या फर्क पड़ता है! आम आदमी की एक फितरत होती है। कर कुछ नहीं पाता है, पर बहुत कुछ करना चाहता है। हम उनसे परे कहां हैं? हमने वहां खड़े लोगों के बीच बिन मांगे अपनी राय देनी शुरू कर दी। ये होना चाहिए… और वो होना चाहिए…।
दरअसल, यह हमारी भड़ास होती है जो निकल रही थी है। अधिकार और कर्तव्य दोनों के बीच सामंजस्य हम कहां बिठा पाते हैं? नहीं बिठाने की वज़ह से ही सारी समस्या होती है।
अब साहब की गाड़ी फंस गई तो साहब के अख्तियार में जो चीजें थीं, साहब ने उनका इस्तेमाल कर लिया। आम आदमी क्या कर सकता है बेचारा?
कुछ दिन पहले की ही बात है। पटना से हम लखनऊ आ रहे थे। सुबह सुबह पटना से यह सोचकर निकले थे कि समय पर आराम से लखनऊ पहुंच जाएंगे। सुबह का वक्त शायद सड़क पर ट्राफ़िक भी अमूमन कम ही होता है, ऐसा मान कर घर से निकले थे,पर हमें क्या मालूम था कि हम भ्रम की दुनिया में जी रहे हैं। शुरुआत तो अच्छी रही। जैसे ही हम शहर की दहलीज़ से बाहर आए, हम फंस गए बेतरतीब ट्रेफिक जाम में। कुछ देर इंतज़ार किए यह सोचकर कि शायद कहीं ट्राफ़िक शुरू हो जाए। पुलिस वाले मुस्तैद हों और धीरे धीरे ही सही रास्ता खुलवा दें।अभी रूक कर जब तक कुछ सोच और समझ पाते तभी एक गाड़ी वाले ने बताया आप यहां इंतजार ना करें। रात से ही हम यहां फंसे हुए हैं। आप पीछे के रास्ते के गांव से होकर निकल जाएं। क्या बताएं आपको! पांच किलोमीटर की दूरी जो ट्रैफिक जाम का मुख्य हिस्सा था उसे पार करने में दो घंटे से ज़्यादा लग गए। गांव के छोटे-छोटे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर निकलना एवरेस्ट फतह करने जैसा था, पर क्या करें। अपना दुखड़ा किसे बताते? एक भी व्यक्ति वहां नहीं था जो इस पर ध्यान देता। यह तो उनके लिए एक आम बात थी। आम आदमी की दुनिया तो भगवान भरोसे ही तो चलती है। जीवन में कुछ भी विघ्न बाधा आए, भगवान तत्काल याद आते हैं। और किस पर भरोसा करें?
खैर! भगवान का नाम लेकर किसी तरह जाम से बाहर आए तो लगा जान में जान आई। देर होने की वजह से सारे समीकरण गड़बड़ा गए। क्या करें साहब अपनी तो दुनिया ही कुछ ऐसी है। सब कुछ को अपनी नियति मान बैठते हैं। अब हम कोई पुलिस के बड़े साहब तो नहीं हैं कि कल अपने जवानों की वहां गश्त लगवा दें और अपनी भड़ास को निकाल लें या यूं कहें कि अपनी बेबसी को मिटा सकें कुछ ही पल के लिए ही सही।
Sir
Ye jaam kaha lagi thi ?
श्री वर्मा जी ने हमेशा की तरह इस बार भी एक बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक विषय पर अपने अनुभवों को शब्दों में पिरोया है। हमारे समाज में आम आदमी की समस्याओं और उनके अधिकारों की उपेक्षा एक बड़ी समस्या है।
श्री वर्मा जी ने बहुत ही सुंदर तरीके से आम आदमी रोजमर्रा के जीवन में अनुभूत की जाने वाली समस्याओं को उजागर किया है। उन्होंने अत्यंत संजीदगी से वर्णित किया है कि कैसे आम आदमी की समस्याओं को अनदेखा किया जाता है और कैसे उनके अधिकारों की उपेक्षा की जाती है। उन्होंने यह भी बताया है कि कैसे आम आदमी को अपनी समस्याओं का समाधान खुद ढूंढना पड़ता है और कैसे उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
मेरा भी मानना है कि हमें आम आदमी की समस्याओं को गंभीरता से लेना चाहिए और उनके अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए।