रविवारीय
– मनीश वर्मा ‘मनु’
ट्रैफिक पुलिसमैन ( बिल्कुल पुलिसिया अंदाज़ में) – गाड़ी का पेपर दिखलाओ।
बेचारा आम आदमी– जी! जी, सर जी। इ रहा सर जी गाड़ी का सारा पेपर।
(एक गन्दे पुराने से पोलीथिन के छोटे से थैली से निकाल कर दिखाता हुआ)।
ट्रैफिक पुलिसमैन– एक एक कागज़ को बड़े ध्यान से देखते हुए। प्रदूषण और इंश्योरेन्स के पेपरों पर अंकित वैधता की अंतिम तिथि को बड़े ध्यान से पढ़ते हुए।
अरे , आरसी दिखलाओ और ज़रा ड्राईविंग लाईसेंस भी दिखलाना। और हां! सारे पेपर ओरिजिनल ही दिखलाना।
बेचारा आम आदमी– उसी थैले में तो है सर जी। लाइए सर जी हम निकाल देते हैं।
ट्रैफिक पुलिस वाला सब कुछ देखते हुए। सब ठीक ठाक ही था। सारे कागज़ दुरूस्त थे। पर, अब गाड़ी तो रोक ली गई है। ऐसे कैसे जाने दें। पुलिसिया रौब भी कोई चीज़ होती है। अब रौब है तो दिखाई भी देनी चाहिए। संस्थागत दंभ का सवाल है। वरना पुलिस से कोई क्यों डरेगा भला !
भारत सरकार के कर संग्रह विभाग का कर संग्रह तो नहीं किया जा रहा है जो फेसलेस (पहचान विहिन) है और बड़े ही प्रभावी ढंग से अपना काम कर रहा है। किसने जोड़ा, किसने घटाया सब फेसलेस। किसी भी पक्ष को कोई शिकवा शिकायत नहीं। कोई गिला नहीं। अगर शिकवा और शिकायत भी है तो वह भी फेसलेस !
खैर! अब गाड़ी तो रूक ही गई है (रोक ली गई है)!
ट्रैफिक पुलिसमैन – ( मन ही मन में) बड़ा ही अकडू मालूम पड़ता है। अरे , थोड़ा खुशामदी लहज़े में बात कर लेगा तो क्या बिगड़ जाएगा। अभी अकड़ निकालता हूं। बातें तो ऐसी कर रहा है कि पूछो मत। बोली में तो शायद क्षमा शब्द हो ही नहीं। शायद इसे पुलिस की क्षमता का अनुमान नहीं है।
कैसे होगा भला उस आम आदमी को पुलिस की क्षमता का अनुमान। दाल रोटी की मशक्कत से ऊपर उठे तो कुछ सोच और समझ पाए। दुनियादारी तो दाल रोटी और परिवार की जरूरतों को पुरी करने में खत्म हो जा रही है। बड़ी मुश्किल से पाई पाई जोड़कर तो एक अदद स्कूटी ख़रीदा है। बैंक ने उसपर थोड़ी मेहरबानी कर दी थी। वाकई आम आदमी को बैंक लोन बैंकों की मेहरबानी से ही तो मिलती है।
खैर! कहां से निकले थे और कहां पहुंच गए। अब देखिए आगे होता क्या है। गाड़ी के पेपर्स तो पूरे के पूरे थे। पर, पुलिस यूं हाथ आए मुर्गे को कहां जाने देने वाली थी।
ट्रैफिक पुलिसमैन– ज़रा आधार कार्ड दिखलाना।
अब बेचारे आम आदमी के सब्र का बांध टूट पड़ा। कार्यालय के लिए उसे वैसे ही देर हो रही थी। पता नहीं साहब का मुड कैसा हो ! क्या और कितना सुनना पड़े । कार्यालय की पुरी की पुरी व्यवस्था तो साहब के मुड पर ही चलती है। घर से निकलते हुए ही थोड़ी देर हो गई थी। पत्नी ने समय पर डिब्बा नहीं पकड़ाया था। गुस्सा तो उसे उसपर भी आ रहा था। पर क्या करे। उसे भी तो घर के बहुतेरे काम करने पड़ते हैं। बच्चों को समय से स्कूल भेजना। बुजुर्ग सास ससुर की देखभाल करना। वक्त ही कहां मिल पाता है उसे। अपने लिए तो बिल्कुल वक्त नहीं है उसके पास। सुबह से शाम तक तो चक्की की तरह पीसती रहती है।
पर खैर! अपने गुस्से पर नियंत्रण रखते हुए उसने कहा- सर जी यह लिजिए आधार कार्ड, जन्म प्रमाण पत्र और ये भी ले लिजिए मेरा मृत्यु प्रमाणपत्र ( थोड़ा खीजते हुए)।
ट्रैफिक पुलिसमैन– ( चौंकते हुए) अरे! यह क्या? मृत्यु प्रमाणपत्र!
बेचारा आम आदमी– जी! सर जी! बनवा के रख लिए थे। हमलोगों को एक दिन तो मरना नहीं है । मरना तो रोज़ रोज़ ही पड़ता है ना!
अद्भुत लेखनी
बहुत सुन्दर सर। यह आम लोगों की सामान्य समस्या है ।बधाई सुन्दर प्रस्तुति और प्रकाशन के लिए ।
सामयिक आलेख के लिए साधुवाद
Great satire on the unprofessional working style of our police.
रोजमर्रा जिंदगी की सटीक वृतांत