विश्व मरुस्थलीकरण दिवस
– डॉ राजेंद्र सिंह*
आज 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण रोक दिवस को मनाने का कोई उत्सव नहीं है, बल्कि हम सबको आज के दिन धरती पर हरियाली बढ़ाने हेतु जल, जंगल व मिट्टी का संरक्षण करने की जरूरत है।
अब दुनिया में धरती को बुखार चढ़ने और मौसम का मिज़ाज बिगड़ने (जलवायु परिवर्तन) के कारण मरुस्थलीकरण तेजी से बढ़ रहा है। इसको रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने एक सक्षम विभाग बनाकर पूरी दुनिया में चेतना जगाने के लिए विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस 17 जून 1994 से मनाना शुरू किया था।
राजस्थान में अलवर जिला के भीकमपुरा स्थित तरुण भारत संघ इस काम में चार दशक से ज्यादा समय से लगा हुआ है। दस हजार आठ सौ वर्ग कि.मी. भूमि पर जल व मिट्टी का संरक्षण करके हरियाली बढ़ाई है। इसी तरह पूरी दुनिया को यह काम करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित दिवसों पर इकट्ठे होकर केवल कुछ बातचीत करने से काम नहीं चलेगा। बातचीत के अनुरूप धरती पर प्रत्यक्ष काम करने से ही मरुस्थलीकरण रुकेगा। यह कार्य धरती और प्रकृति को तीर्थ रुप में देखने से आगे बढ़ेगा।
तीर्थों पर संकट पैदा होने का प्रमुख कारण आधुनिक भोगवाद, निजीवाद, पूँजीवाद, साम्यवाद और समाजवाद ही है; क्योंकि इस वक्त दुनिया में आर्थिक लाभ की प्रतियोगिता का एक बहुत बड़ा जंजाल खड़ा हो गया है। इसका सर्जन ईज्म (वाद) ही करता है। पूंजीवाद और समाजवाद दोनों ही इसी को जन्म देते है। आर्थिक लोभ-लालच हमें साझा जीवन पद्धति, साझे सुख व शांति से दूर ले जाता है। वह स्त्रीलिंग व पुल्लिंग में भेद करता है और उन्हें आपस में लड़ाता है। इन लड़ाइयों के कारण समुदाय भी एकांगी और एकलिंगी बनने के रास्ते पर चल निकले हैं। दुनिया में मरुस्थलीकरण भी मानवीय लोभ और लालच ने पैदा किया है।
जब कोई सिद्धांत धर्म बनता है, तो वह आस्था और साझे भविष्य की चिंता करता है। लेकिन जब इन धर्मों के संगठन बन जाते हैं, तो वह धर्म, आर्थिक प्रतियोगिता से सत्ता के क्षेत्र में आ जाता है। सत्ता का केन्द्र जब धर्म बन जाता है, तब वह साझे भविष्य की चिंता छोड़ देता है। तब उसमें से नैतिकता, न्याय व शांति का चिंतन खत्म होने लगता है; तब वह चंद लोगों के लोभ-लालच का केन्द्र बन जाता है। सामुदायिकता, सम्मान और प्यार सब हटता-घटता जाता है। सत्ता के लालच से मरुस्थलीकरण बढ़ जाता है और फिर धर्म अपनी अनुकूल सत्ता को राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक सभी रूपों में पुष्ट करने में लग जाता है। वे पूर्णतः प्रकृति और मानवता के मूल्यों का सम्मान भूल जाते हैं।
अभी दुनिया के सभी धर्मों में यही अधिक दिख रहा है। धर्मसत्ता झूठ का सहारा लेकर सभी को भयभीत बना देती है। इससे जीवन का अनुशासन मिटता है। लाभ प्रतियोगिता में आगे निकलना ही लक्ष्य बन जाता है। लाभ जल, जंगल, जमीन का शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण कराता है।
आर्थिक, धार्मिक भटकाव स्वार्थमय बनकर ही मानव ने प्रकृति का शोषण, अतिक्रमण और प्रदूषण बढ़ा दिया है। जिससे दुनिया में प्रकृति के प्रति विश्वास और प्यार घट गया है। इसी से प्राकृतिकतीर्थां के प्रति प्यार, सम्मान, विश्वास, आस्था, श्रद्धा, ईष्ट और भक्ति का भाव समाप्त होता जा रहा है। यही आज के तीर्थों पर संकट है। इस भाव को लोभ, लालच और लाभ की प्रतियोगिता ने समाप्त किया है। इसका पुनर्जीवन केवल ‘शुभ्‘ और सभी के सुरक्षा भाव से होगा। प्रतियोगिता मुक्त जीवन में ही शुभ् और सुरक्षा आती है।
मरुस्थलीकरण भी संरक्षणमय जीवन जीने से ही रुकेगा। उसी से हम सभी को जीवन सुरक्षा मिलेगी। हालातों को जानने वाले लोग आज मरुस्थलीकरण के कारण जीवन पर आने वाले संकट से आशंकित हैं। इसीलिए इन जल, जंगल व जमीन को बचाने के लिए एक सहज, विनम्रता व समता मूलक समुदाय बनाने की जरूरत का अहसास हुआ है। ‘शुभ्‘ और सभी के सुरक्षा भाव द्वारा ही मरुस्थलीकरण रुकना सम्भव है। लाभ से ज्यादा सभी लोग शुभ और सबकी सुरक्षा कार्य में जुटे और मरुस्थलीकरण रोकें।
जीवन का आनंद बचाने के इस कार्य में दुनिया भर के ऐसे ही लोग, जिन्हें सत्ता का मोह नहीं है, उनके मन में प्रकृति और मानवता का सम्मान अभी भी गहराई से बना हुआ है। वे उसी प्यार और प्रकृति के सम्मान को बचाने का जुनून मन में रखे हुए हैं। ऐसे लोगों ने आज तरुण आश्रम, भीकमपुरा में इकट्ठे होकर गहरे शुभ और सब को सुरक्षा भाव व विश्वास से सर्किल संवाद में सहज व सरल रूप से अंतिम निर्णय किया है कि हम सब बराबरी से मिलकर हमारा जल, जीवन, जंगल, जमीन जो दुनिया में एक ही हैं। इसे बचाने का काम करेंगे। तभी दुनिया में मरुस्थलीकरण रुकेगा।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।