देश में जब 18वीं लोकसभा चुनाव की गर्मी तेजी पर थी तो उसके पहले जनवरी 2024 से ही वनों में लगी भीषण आग जून के तीसरे सप्ताह तक आसमान छूती रही। चुनाव परिणाम के बाद भी केंद्र और राज्य सरकार ने ऐसी कोई पहल नहीं की जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि उत्तराखंड, हिमाचल, उत्तर पूर्व और जम्मू कश्मीर के वनों में लगी आग के प्रति किसी की कोई जिम्मेदारी सामने लायी जा सके। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित बिनसर सेंचुरी में आठ वन कर्मी आग बुझाने के दौरान झुलस गए थे। जिसमें से पांच की मौत हो गई है।और राज्य में दर्जनों लोग आग की चपेट में आए हैं।
आग लगाने के लिए अक्सर गांव के लोगों को दोषी माना जाता है जिसके छुटपुट उदाहरण ही सामने आते हैं। निश्चित ही गांव से सटे हुए जंगलों से भी आग लगती है।लेकिन इससे कहीं अधिक घटनायें पर्वतीय क्षेत्रों में 8-9 हजार फीट की ऊंचाई से भी आग लगने की शुरुआत होती हैं। इससे सवाल खड़ा होता है कि उतनी ऊंचाई पर जाकर कौन आग लगता है? जनवरी से जून तक आग इतनी विकराल हो गयी कि उदाहरण के रूप में उत्तराखंड, हिमाचल धुंये का एक कमरा जैसा बना रहा जिसके कारण सूर्य की रोशनी भी धरती पर पूरी तरह नहीं पहुंच पायी।अभी भी आसमान से बारिश के आसार कम है। अकेले उत्तराखंड में ही अब तक हजारों वन क्षेत्रों में आग लगी है।लेकिन वन विभाग केवल 500 स्थानों पर ही आग की घटनाओं का विवरण दे रहा है। जबकि एक ही स्थान पर दर्जनों बार जंगल जल चुके है।
चिंताजनक है कि आग से प्रभावित वन क्षेत्रों की पूरी जानकारी सामने नहीं आ पा रही है। बढ़ती गर्मी में आग प्रभावित पर्वतीय गांव की हालात बहुत बिगड़ चुकी है। सुबह जब उठना है तो राख के ढेर घर की छत और आंगन में फैले हुए रहते है। सांस की तकलीफ वाले लोगों की परेशानियां बढ़ी है। ऐसा महसूस हो रहा है कि जब बिना खिड़की वाले घर में लकड़ी से खाना बनता है तो चूल्हे से धुआं नाक और आंख तक पहुंचता है जिससे आंसू भी आ जाते हैं। यह स्थिति शीतकाल से ही जंगलों में लगी आग के कारण पैदा हुयी है। किसको इसका दोषी माना जा रहा है, पूरी तरह कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है।
केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्री भूपेन्द्र यादव ने देश भर में वनों की आग के प्रबंधन और शमन की समीक्षा के लिए 21 जून 2024 को भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून में एक समीक्षा बैठक की अध्यक्षता की और जन भागीदारी के माध्यम से इसके शमन के लिए एक ठोस रणनीति तैयार करने पर जोर दिया। बैठक के दौरान इस बात पर जोर दिया गया कि साल-दर-साल लगातार आग लगने वाले क्षेत्रों को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए और राज्यों को उनसे निपटने के लिए उपयुक्त तरीके खोजने चाहिए। अग्रिम प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को मजबूत करने और जंगल की आग से निपटने वाले अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं को सुरक्षात्मक गियर प्रदान करने पर भी बैठक के दौरान विचार-विमर्श किया गया।
पर वास्तव में आग लगने की यह कोई नई घटना नहीं है। इसी तरह से हर वर्ष अकस्मात एक पहाड़ी की चोटी पर आग का धुआं पैदा होता है जो धीरे-धीरे घाटी तक पहुंच जाता है। इस बार तो हिमालय के जंगल से लेकर ग्लेशियर के निकट भी आग फैली रही है। सच्चाई ये है कि पिछले 40 वर्षों से आग लगने की घटनाएं तेजी से सामने आ रही हैं जिसका कोई समाधान नहीं है। लेकिन शासन- प्रशासन को गंभीरता पूर्वक इस संवेदनशील विषय पर जो कार्यवाही करनी चाहिए थी वह भी नहीं हुई है। यह जरूर है कि जंगल में आग लगने के बाद वन निगम को सूखे, सिरटूटे और जड़ समेत उखड़े हुए पेड़ों के नाम पर वनों का कटान करने में विरोध का सामना नहीं करना पड़ता है। वनों में आग लग गयी तो वन विदोहन के रास्ते खुल जाते हैं। क्योंकि चारों ओर सूखे हुए पेड़ तो बहुत दिखाई देने लगते हैं जिसका निस्तारण करने के लिए वन निगम को लौट आसानी से आवंटित किए जा सकते हैं, और इस नाम पर प्रतिवर्ष लाखों हरे पेड़ काटे जाते हैं जिसका विरोध करने पर भी संबंधित विभाग आग के कारण जले हुए पेड़ों का हवाला देकर बच जाते हैं। कोरोना काल में जब लोग लॉकडाउन में थे, तो उस समय भी जंगल माफियाओं ने बड़े पैमाने पर पहाड़ी इलाकों में आग के कारण सूखे पेड़ों के नाम पर वनों का अवैध दोहन किया है। यहां बचे हुए हरे पेड़ों का अंधाधुंध कटान किया गया है।
पहले शीतकाल में पर्याप्त बर्फ और बारिश होती थी तो आग जंगलों में नहीं फैल पाती थी। अब जहां सारे दुनिया के लोग पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षों की अहम भूमिका पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं वनों की इस दुर्दशा से कैसे पर्यावरण की रक्षा हो सकेगी? यह प्रश्न हर साल लग रही आग से पैदा हो रहा है। अतः ज़रूरी है कि वनों में अग्नि नियंत्रण के लिए हर ग्राम पंचायत और वन पंचायत की भूमिका जब तक नीतिगत रूप से शामिल नहीं की जाएगी तब तक वनों को आग से बचाना बहुत चुनौतीपूर्ण होगा।
राज्य सरकारें अग्नि नियंत्रण के नाम पर जो खर्च करती है यदि उसे सीधे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के काम के साथ जोड़कर ग्राम पंचायतों को आर्थिक मदद दी जाय तो लोग गांव के वनों में लगने वाली आग को रोकने के लिए जंगल में जा सकते हैं।लोग लंबी अवधि तक लगने वाली आग के नियंत्रण में इसलिए भी भागीदार नहीं हो पाते हैं कि उन्हें अधिकांश समय अपनी आजीविका के लिए रोजी-रोटी के काम में लगना पड़ता है।यदि उन्हें मनरेगा के अंतर्गत नियमानुसार रोजगार मिलें और साथ ही सूखी हुई जंगल की लकड़ी उन्हें आसानी से उपलब्ध करवायी जाय तो वे अग्नि नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
वन विभाग भी वन निगम को यदि सूखे पेड़ों के नाम पर वन विदोहन की स्वीकृति देते वक्त भी ग्राम प्रधान, महिला संगठन, स्वयं सहायता समूह से लेकर क्षेत्र पंचायत के प्रमुख तक को भागीदार बनाया जा सके तो जंगल में लगी आग को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।और वनों में हरे पेड़ों की कटाई पर भी रोक लगा सकते है।इस प्रकार के नीतिगत फैसले राज्य व्यवस्था कर दे तो वनों में आग लगने वाले दोषियों को भी सलाखों में डाला जा सकता है। क्योंकि लोग अग्नि नियंत्रण के नाम पर यदि वनों के बीच में भ्रमण करेंगे तो उनका सबसे पहला प्रयास यही रहेगा कि आखिर उनके जंगल में आग कौन लगाता है? इसके साथ ही वे अपने जंगल के खाली स्थानों पर वृक्षारोपण भी कर सकते हैं।और सुरक्षा की जिम्मेदारी भी ले सकते हैं। जंगल के बीच में फायर लाइन बना सकते हैं। यदि सरकार यह व्यवस्था बना सके तो इससे शासन- प्रशासन को अग्नि नियंत्रण में बहुत मदद मिल सकती है। इसके संबंधित सुझाव पत्र भी उत्तराखंड की मुख्य सचिव राधा रतूड़ी को प्रेषित किया गया था। लेकिन अभी तक उन्होंने इस पर कोई जवाब नहीं दिया है।वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने से भी वनाग्नि नियंत्रण किया जा सकता है। इसके अलावा परंपरागत वन व्यवस्था लोगों को लौटाने की आवश्यकता है।
चिंताजनक है कि जब तक बारिश नहीं होगी तब तक जंगल जलते रहेंगे। गत दो-तीन महीने पूर्व आग के धुएं के कारण चिन्यालीसौड़ हवाई पट्टी से भी विमानों को उड़ाने और उतरने में समय लग रहा था।
*लेखक सामाजिक एवं पर्यावरण कार्यकर्ता हैं।