प्राकृतिक स्रोतों की खराब स्थितियों को देखते हुए आर्द्रभूमि को बचाने और उसकी महत्ता को लोगों तक पहुंचाने के लिए हर साल 2 फरवरी को वर्ल्ड वेटलैंड डे के रुप में मनाया जाता है। वेटलैंड यानी आर्द्रभूमि जहां वर्ष भर आंशिक या पूर्ण रूप से जल भरा रहता है। यह भूमि मनुष्य के जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। आर्थिक और पारिस्थितिकीय संतुलन में सहायक जैव विविधता से संपन्न यह हिस्सा दुनिया भर में मौजूद है। 1971 में इसी दिन ईरान के रामसर में वेटलैंड कन्वेंशन को अपनाया गया था।
वेटलैंड जंतुओं के अलावा पौधों के लिए भी तंत्र के रूप में काम करता है। 2024 की थीम “वेटलैंड एंड ह्यूमन वेल बींइग” वेटलैंड और शारीरिक, मानसिक और पर्यावरणीय स्वास्थ्य सहित मानव कल्याण के विभिन्न पहलुओं के बीच अंतर्संबंध पर केंद्रित है।
वेटलैंड महत्तवपूर्ण ताजा पानी प्रदान करते हैं, 1,00,000 से अधिक प्रजातियों की मेज़बानी करते हैं। वे मानवता को बनाए रखते हैं जिसका उदाहरण आर्द्रभूमि के खेतों में उगाए गए चावल से मिलता है जो तीन अरब लोगों के लिए मुख्य भोजन है और वैश्विक भोजन में 20 फीसदी का योगदान देता है।
यह माना जाता है कि आर्द्रभूमि दुनिया में काफी महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र है। एक तरह से दुनिया के हर पारिस्थितिक तंत्र की तुलना में यह बहुत महत्वपूर्ण है, तो वहीं मानव सभ्यता के विकास में भी वेटलैंड की बहुत बड़ी भूमिका रही है। दुर्भाग्य है कि अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों की तरह ही पिछले कुछ समय से कई वेटलैंड हमने बर्बाद ही किए हैं।
वेटलैंड भूमिगत रिचार्जिंग मे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये एक तरह का फूड स्टोरेज भी होते है। ऐसे में इनकी पारिस्थितिकी का लाभ उठाते हुए इन क्षेत्रों में खेती बाड़ी की भी संभावनाएं पैदा होती हैं। जल आपूर्ति के रुप में ये क्षेत्र बहुत बड़ा योगदान देते हैं। इनकी जल गुणवत्ता को भी बेहतर माना जाता है। यह क्षेत्र मत्स्य पालन ऊर्जा संसाधन के लिए भी उपयुक्त है।
आज हम दुनिया के वेटलैंड का बड़ा हिस्सा खो चुके हैं और परिस्थितियों को देखें तो पाएंगे कि हर मिनट एक हेक्टर वेटलैंड गायब हो रहा है। किसी न किसी रुप में हमने इन्हें घेर दिया है और एक लंबे समय के लिए अपनी ही आर्थिकी व पारिस्थितिकी को क्षति पहुंचाई है।
भारतीय वन्य जीव संस्थान के आंकड़ों के अनुसार पिछले पांच दशकों में सत्तर से अस्सी फीसदी एकल ताजे पानी के दलदल, झीलें और गंगा के बाढ़ के मैदान में पाए जाने वाले वेटलैंड की हालत अत्याधिक खराब हो चुकी है। अभी हमारे देश में करीब 50 फीसदी वेटलैंड बचे हैं और ये प्रति वर्ष 2 से तीन फ़ीसद की दर से खो रहे हैं। वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर के वर्ष 1995 के आंकड़ों के अनुसार, 147 वेटलैंड साइट्स खतरे में है जिनमें करीब 32 फीसद साइट्स खत्म हो चुकी है और इनका मुख्य कारण इनका दोहन व मानवीकृत व्यवधान है। इनमे 22 फीसद वेटलैंड साइट्स मानव बस्तियों के कारण खत्म हो गयीं और 19 फीसद मानवों द्वारा किए गए अतिक्रमणों से खत्म हो रही हैं। साथ ही 23 फीसद क्षेत्र कृषि के लिए जल निकासी के चलते खत्म हो गए। 20 फीसद वेटलैंड इसलिए खत्म हो गए क्योंकि उद्योग और उनसे जुड़े प्रदूषण के कारण ये अब अन्य उपयोगों में आ गए।
इसके अलावा हरित क्रांति के तहत वेटलैंड का बहुत बड़ा हिस्सा खेती बाड़ी में परिवर्तित कर दिया गया। एक अन्य अध्ययन में पता चला है कि वेटलैंड का काफी हिस्सा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के चलते हाशिए में चला गया। एक और अध्ययन के अनुसार भारत की पचास हजार बड़ी और छोटी झीलें प्रदूषण के कारण मृतप्राय: हो चुकी है।
इतने नुकसान के बाद भी हम गंभीर नही हुए हैं। ऐसे में अगर इसके लिए कोई नीति निर्माण नही होता है तो आने वाले समय में जिस तरह से हमने वनों व पानी को खोया है उसी प्रकार वेटलैंड भी कम दिखेंगे।