भारतीय जल दर्शन दृष्टि हमारे मुनि व मनीषियों की ज्ञान-पिपासा का एक सुव्यवस्थित ज्ञान सूत्र विन्दु है। सभी ने सृष्टि रचना की अपने-अपने मतानुसार व्यवस्था दी है। लेकिन जल-दर्शन के विषय में एक मत हैं कि जल ईश्वर की पहली रचना का प्रधान अंग है। बिना जल के सृष्टि का कोई अस्तत्व ही नहीं है। प्रलय ही प्रलय है। प्रलय काल में रसनेन्द्रीय, उसका विषय रस और स्नेह आदि जल के गुण जल में ही लीन हो जाते हैं तो सृष्टि रचना में सम्पूर्ण प्रकृति जलमय सजीव और जीवन्त दिखाई देती है। हमारे पूजनीय वेदों में जल को ईश्वरी तत्व, शक्ति के रूप में स्वीकारा गया है। ईश्वर तत्व के रूप में ही स्तुति की गई है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद और सामवेद में जल की प्रधानता स्पष्ट रूप से लिखित प्रमाण है।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद् धनम॥
हमारे पुराणों में जल तत्व की उत्पत्ति का जो वृत्तान्त है आज के वैज्ञानिक युग में भले ही नकारा जाता रहा हो, लेकिन सामाजिक जीवन शैली को प्रकृतिमय जीवन जीने की जीवन्त दृष्टि तो इन्हीं में समाहित है। हमारी सामाजिक संरचना के दृष्टांत इन्हीं पुराणों में वर्णित हैं जो ऋषि-मुनियों की वाणी का ज्ञान-प्रसाद स्वरूप है। जिसे भारतीय समाज ने स्वीकार किया और भारतीय जीवनशैली को समृद्ध और पल्लवित किया।
आज की आधुनिकता में हमारी जलमयी जीवनशैली के जीवन्त नदियों के किनारे भारतीय समाज का महाकुंभ पर्व जैसे उदाहरण दुनिया को आश्चर्यचकित करते रहे हैं। भारतीय जीवनशैली में “”जल” जन्म से लेकर मृत्यु- पर्यन्त का रिश्ता बना हुआ है। युग बदले, सभ्यताएं बदलीं, लेकिन भारतीय जल दर्शन जीवन्त रहा। भारतीय सामाजिक जीवनशैली में जल ईश्वर तुल्य है जिसके नित्य प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। सामाजिक क्रिया-कलापों में जल के सान्निध्य में जीवन्त समाज जल रूप जीता हुआ अपने प्रगति के रास्ते पर अग्रसर रहा।
वर्तमान समय में परिस्थितियां उलट गई दिखाई दे रही हैं। जल बाजार की वस्तु बन कर रह गया है। जबकि भारतीय जीवनशैली में जल के संरक्षण, जल के उपयोग, में कहीं भी बाजार व्यवस्था दिखाई नहीं देती थी। जल मनुष्य जीवन में सबसे अधिक और सबसे पहली मूलभूत आवश्यकता थी परन्तु उसका स्थान बाजार में नहीं भारतीय जीवनशैली में समाहित था। युग और सभ्यताओं के बदलने पर भी समाज में स्व-प्रवाहित रहा है।
आज हमारे जल पर दुनिया का बाजार नजर गढ़ाये हुए है बल्कि देश के अधिकांश भाग में जल बाजार के नियंत्रण में जा चुका है। जबकि बिना जल के आमजन जल की बूंद-बूंद के लिए मौहताज है, उसका कण्ठ सूख रहा है, प्राण-पखेरू असमय ही उड़ रहे हैं। हमारा राजतंत्र ‘जल जीवन” को बाजार की वस्तु बनाकर रोजगारोन्मुखी व्यवस्था कायम करने का ढोल दुनिया में पीटता दिखाई दे रहा है। दुनिया के बाजार को भी आमन्त्रित कर उत्साही होता नजर आता है। भला अपने जल रूपी जीवन को बेच कर किसी देश का आमजन या राजतंत्र सुखी रह सकता है, कदापि नहीं। उसे अपनी भूल पर पछताना होगा, अपनी जीवनशैली अपनानी होगी।
जलमयी जीवनशैली, प्रकृतिमय जीवनशैली व भारतीय जीवनशैली जिसमें भारतीय जल दर्शन समाहित हो, यही भारत के आमजन के कण्ठ की प्यास बुझाएगा, असमय प्राण-पखेरू को उड़ने से रोकेगा। देश में बढ़ता शहरीकरण एवं उससे प्रदूषित होती नदियों के प्रति समाज और सरकार की संवेदनहीनता से आपदा का रूप धारण कर चुकी है। हमें अभी सचेत होकर इस ओर ध्यान देना होगा। भारतीय जल दर्शन जीव जगत का प्राण है।
*लेखक विख्यात जल संरक्षक हैं। प्रस्तुत लेख आज कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में 9वीं अंतरराष्ट्रीय गीता कांफ्रेंस में व्यक्त किया गया उनका उद्गार है।