– डॉ राजेंद्र सिंह*
जल की तलाश में आये बंदरों ने तरुणाश्रम, भीकमपुरा को अपना स्थायी घर बना लिया है। क्यों ना बनाये? सौ बर्ष पहले यह क्षेत्र उन्हीं का तो था। आजादी के बाद के तथाकथित विकास के कारण लोगों और बंदरों दोनों के लिए ही वनोत्पादन उपलब्ध नहीं है। पहले बन्दरों के साथ-साथ आदमी भी जंगल में पैदा होने वाले उत्पादों से ही अपना जीवन चलाता था।
बीसवीं शताब्दी में आदमी ने ही अपने स्वार्थ के लिए जंगली जानवरों के घरों (जंगल) को उजाड़ना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप वे बेघर होकर मरने लगे। शेष बचे जंगली जानवरों से सरिस्का जैसे जंगलों में वे पुनः जन्मे। यहाँ पर भी जब इनकी जल, जंगल व खाद्यान्न की पूर्ति नहीं हुई, तो ये गाँवों में जाकर लोगों को ही मारने लगे।
सरिस्का के चारों तरफ तरुण भारत संघ ने जल, जंगल, जमीन संरक्षण के माध्यम से हरियाली बढ़ाने का काम किया, जिसका प्रभाव 1991 ई. में ही दिखाई देने लगा था। फलतः सरिस्का में जंगली जानवरों की संख्या बढ़ने लगी। तभी सरिस्का के बंदरों, लंगूर, नीलगाय आदि जानवरों को अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए आस-पास के गाँवों में पलायन करना पड़ा। सरिस्का के पश्चिम में सरिस्का की सीमा से जुड़े भीकमपुरा गाँव में स्थित तरुणाश्रम में 1991 ई. से ही बंदरों का निवास हो गया था। कभी-कभी लेपर्ड, हाइना, रोझ आदि जानवरों का भी आवास स्थल बनने लगा था। लेकिन तब ये आते-जाते रहते थे।
लंगूर तो अब भी 15 दिन से ज्यादा नहीं रुकते हैं। बंदरों ने भी पहले तो आना-जाना बना कर रखा था, पर अब पिछले दो साल से ये यहाँ स्थायी रूप से रहने लगे हैं। अब इनकी संख्या 500 से अधिक हो गई है। बन्दर अपने स्वभाव के अनुकूल नयी पत्तियाँ खाता है, इसलिए यह नये पेड़-पौधों के पत्ते, फल आदि कुछ भी नहीं छोड़ता। यह बहुत ही चालाक जानवर है, इसलिए चप्पल, मोबाइल, कपड़े आदि कुछ भी उठा ले जाता है। ये रसोईघर में घुस कर विध्वंस करते हैं। यहाँ इनके सैकड़ों नये बच्चे हो गये हैं।
मैं मानता हूँ कि प्राकृतिक रूप से तरुणाश्रम उन्हीं का घर है, हम ही उनके घर में रह रहे हैं। हमने पिछले चालीस वर्षों की अपनी मेहनत से उन्हीं के लिए एक बहुत सुन्दर हरा-भरा घर बनाया है। लेकिन वे अब अपने घर पर ही बोझ बन गये हैं। तरुण भारत संघ की धारक क्षमता 500 बंदरों को पालने लायक नहीं है। अब नये फलदार पेड़-पौधों व पपीते के पत्ते पूरे खा जाते हैं।
पहली बार जब ये यहाँ आये, तब इनकी संख्या 10-12 ही थी, लेकिन पिछले 38 वर्षों में इनकी संख्या बढ़ कर 500 से अधिक हो जाने पर अब ये अपने ही घर को उजाड़ने लगे हैं। समझ में नहीं आ रहा क्या करें ? और कैसे इन बंदरों के घर को उजड़ने से बचायें ?
पहले जब ये आते थे तो कुछ दिन ही रुकते थे, पानी- वर्षा के बाद वापस चले जाते थे। अब तो जाते ही नहीं हैं, तरुणाश्रम को अपना स्थायी घर ही बना लिया है। अश्रमवासी इनसे तंग आ चुके हैं। फिर भी इन्हें आश्रमवासियों पर दया नहीं आ रही है।
आश्रमवासियों ने इन्हें कभी भिखारी नहीं बनाया इन पर दया करके इन्हें कुछ भी खिलाया नहीं है । इन्होंने फिर भी आश्रम का सभी कुछ तोड़ना व खाना जारी रखा है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं।