– डॉ जगदीश चौधरी*
फरीदाबाद: बड़खल झील के प्राकृतिक व पारिस्थितिक तंत्रा की विशिष्टता को समझे बिना, इसका संरक्षण मात्रा पर्यटन तक ही सीमित नहीं है। असलियत में यह हमारे जीवन और स्वास्थ्य से भी जुड़ा सवाल है। यही नहीं जैव विविधता के संरक्षण से भी जुड़ा है। इसलिए बड़खल पर की जाने वाली कोई भी कार्यवाही उसके जीवन का स्वरूप न बिगाड़े यह सवाल हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।
गौरतलब है कि एक समय यही बड़खल यमुना की उपत्यिका के रूप में, प्रवासी और स्थानीय पक्षियों, जलीय जीवों को प्राकृत वास भी प्रदान किया करती थी। यमुना की उपत्यिका एवं स्थानीय वातावरण के अनुरूप यहां जो प्रवासी एवं स्थानीय पक्षी बसेरा डाले रहते थे, वह एक तो यहां के वातावरण से भलीभांति परिचित रहते थे, दूसरे इसी वजह से वह हमारे मित्र पक्षी सिद्ध होते थे। खासियत यह कि यहां रोजी पोस्टर भी आती थी और गौरैया जैसे पक्षी भी काफी संख्या में बसेरा बनाए रखती थी। यह दोनों पक्षी प्रजातियां टिड्डी दल को परास्त करने में अहम भूमिका निभाती थीं और उनके प्रकृति विरोधी भक्षण को शून्य बनाती थीं। आज इसमें बगुला प्रजाति की संख्या बढ़ाना नहीं, अपितु मित्र पक्षियों के आगमन को सुगम बनाने की बेहद जरूरत है जो वातावरण को दूषित करने वाले कीटों का भक्षण कर सकें। बड़खल के विकास में प्रकृति का प्रारूप न बिगड़े, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
सरकार ने बड़खल की झाड़ियों को काटने की योजना बनाई या फिर नीम-पीपल जैसे उपयोगी पेड़ों को भी काटने की। सरकार ने तो झाड़ियों की आड़ में नीम-पीपल जैसे शतायु एवं पक्षी प्रिय वृक्षों को भी काट दिया है। इससे बड़खल का कल्याण होगा या सिर्फ ठेकेदारों का, यह बात सहज समझ में आ जाती है। ये वृक्ष जो प्रति संरक्षण का प्राथमिक बिंदु हैं जल के मित्र हैं, पक्षी आवास हैं, बड़खल की सांस हैं, स्वास्थ्य हैं, उनको क्यों काट दिया गया है? यह समझ से परे और दुर्भाग्यपूर्ण है। यह किस दृष्टि से बड़खल को बचाने और उसके संरक्षण की योजना का विज्ञान है और कौन से जल विशेषज्ञों ने ऐसी सलाह दी, यह सवाल आज भी समझ से बाहर है कि आखिर उनका मंतव्य क्या है? साथ ही यह भी कि इन झाड़ियों, कीकर और पेड़ों को काटने का ठेका कितने में दिया है और इसके मूल्यांकन का गणित क्या है? यह भी जानना जरूरी है और इससे हुई आमदनी भी क्या और कितनी होगी और उसे सरकारी खजाने में भी जमा किया जाएगा या नहीं या फिर केवल राजस्थानी मुरंड, जो इस हेतु मंगाई जा रही है, का ही खर्चा लिखा जायेगा? यह सवाल भी अनसुलझा है।
जैसा कि ज्ञात है कि सरकारी योजना में बड़खल में मुरंड डालने की योजना है। मुरंड या मुरंडा एक ऐसी मिट्टी है जो कि छोटे कंकड़ों के गलने से चूने के रूप में बदलने से बनती है। सीमेंट से तो पानी रिस भी सकता है परंतु मुरंड से नहीं। इसलिए इस पर कोई वनस्पति भी नहीं होती। क्या इन योजनाकारों को ऐसी जानकारी भी है कि इस मिट्टी का स्वभाव व मूल प्रवृत्ति प्रसार की है, राजस्थानी मिट्टी का स्वभाव भूगर्भ के अनुसार होगा । बड़खल में इस मिट्टी को डालना किसी भी दृष्टि से नम भूमि संरक्षण के अनुरूप नहीं है और वह उसको बढ़ावा भी नहीं देगी । इससे न तो कभी भूजल बढ़ेगा और फिर इन हालात में झील की सततता और प्रतिसंरक्षण की बात बेमानी होगी ? यह इस योजना में शामिल विशेषज्ञों की विद्बता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
बड़खल ने सदैव अपने आपको क्षेत्रीय नहीं, अपितु राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया है। इसका इतिहास गवाह है-पारम्परिक जल संचय प्रणालियों के संरक्षण और रख-रखाव का इतिहास विशेष रूप से बल्लबगढ़ के आस-पास लगभग-1200 साल पुराना तो है ही। तोमर वंश के अनंग पाल ने सन्-1020 में जिस जगह दिल्ली बसाई थी, वह स्थान बल्लबगढ़ तहसील क्षेत्रा में शामिल थे- बड़खल उस समय में प्रमुख जल संचय केंद्र थी, पुरातत्व की दृश्टि से भी महत्वपूर्ण थी। बड़खल के कारण जल संचय की विस्तृत व्यवस्था थी। आस-पास के नगरवासियों को भी अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता था।
उत्तर भारत में डल झील के बाद बड़खल झील ही लोगों की पसंदीदा जगह रही है और हरियाणा राज्य के भौगोलिक मानचित्र की पहचान भी बन कर राज्य के गौरव को बढा या है। परंतु आज जिस प्रकार से बड़खल के विनाश का काम चल रहा है,इससे लगता है कि इसमें कोई राष्ट्रीय तो क्या राज्य स्तरीय भी अनुभवी लोगों की सलाह नहीं ली गई है। केवल क्षेत्राीय योजनाकार जिनकी विशेषज्ञता कंक्रीट के जाल बिछाने और सीवर बनाने की ही रही है, वे आज इस बड़खल के शिल्पकार बन रहे प्रतीत होते हैं। इसकी प्रबंध योजना उन लोगों के हाथ में क्यों है जो इस दिशा में काम करने वालों के मार्ग में अवरोध पैदा करते रहे हैं? इससे साबित होता है कि बड़खल की हत्या के जघन्य अपराध की ओर यह तथाकथित योजनाकार बढ़ रहे हैं ।
इन योजनाकारों ने सीमेंट और सरिया की दीवारें खींचना शुरू कर दी हैं और पैदल पथ को चौड़ा करने के लिए उन नीम,पीपल,ढाक के पेड़ों को भी काट दिया गया है जो अभी सैकड़ों वर्ष जीते। ऐसी योजनाओं का आधार बड़खल का जल बढ़ाना है या सिर्फ जेबों का धन बढ़ाना? यह एक यक्ष प्रश्न है।ऐसी विचार शून्यता आज की अभियंत्रिकी शिक्षा और व्यवहार को दर्शाता है।एक प्राकृतिक झील को अप्राकृतिक उपचार का विज्ञान कौन से शास्त्र में सततता का सूत्र बताता है? पृथ्वी पर अभी ऐसा शास्त्र लिखे बिना ही इन योजनाकारों ने पढ़ लिया प्रतीत होता है ।
अब बड़खल को पानीदार बनाने का ऐतिहासिक फार्मूला स्मार्ट सरकार ने ढूंढ निकाला है। इतिहास में पहली बार एक ऐसा सीवर ट्रीटमेंट प्लांट बनाया बन रहा है जिसमें इधर से सीवर डलेगा और उधर से शुद्ध मिनरल वाटर निकलेगा और यह प्रयोग विश्व में पहली बार बड़खल पर ही होगा क्योंकि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय की बगल में यमुना में सीवर से गिरने वाले मिनरल वाटर ने यमुना जी को कितना चमकाया है यह तो हम देख ही चुके हैं। अब बड़खल में भी देखेंगे जिस प्रकार दिल्ली में यमुना जी में सीवर के शुद्ध जल के बाद अब वहां रोजाना मेला लगता है और लाखों लोग रोजाना यमुना जी में डुबकी लगाते हैं, आचमन करते हैं और सूर्य नमस्कार करने के बाद बोतलों में यमुना जल भरकर अपने घरों में ले जाते हैं ताकि शुभ कार्यों में प्रयोग ला सकें, उसी प्रकार अब बडखल में सीवर के मिनरल वाटर में लोग तैराकी करेंगे, नाव चलाएंगे और घर भी भर कर ले जाएंगे। अब इस चमत्कार के लिए हम सब प्रतीक्षा करें क्योंकि यह स्मार्ट फरीदाबाद की स्मार्ट बडकल में जादुई छड़ी घूमने ही वाली है जिसके बाद यह फरीदाबाद के भूजल को सिंचित करेगी, पेड़ पौधों से लहलहाएगी, पक्षी कलरव करेंगे, साइबेरिया के पक्षी आकर यहां सेर करेंगे, जैव विविधता सर्वाधिक फलेगी-फूलेगी और इससे बढ़ कर भारत की सबसे साफ, सुंदर और सुगंधित झील होगी।
आज बडकल की हत्या के गुनहगार राज, समाज और सभी गूंगे बहरे नागरिक होंगे। भगवान सबको सद्बुद्धि दें और इस तथाकथित स्मार्ट शासन की स्मार्ट बड़खल की योजना से बड़खल को बचाएं। बड़खल का पुराना प्रारुप बना रहे ऐसी ही प्रबंध योजना बनाई जाए। इस प्रबंध योजना में पक्षी विशेषज्ञों की विधिवत राय ले ली जाए। मात्रा प्रशासनिक आदेश जन सहभागिता की परिचायक नहीं होते हैं। विषय विशेषज्ञों की राय ली जाए जिसमें जल, वृक्ष, भूगर्भ एवं अन्य विशेषज्ञों को जोड़ा जाए। बड़खल झील तो राष्ट्रीय स्तर पर नम भूमि संरक्षण के रूप में जल एवं पक्षी संरक्षण के रूप में विख्यात रही है। इसका पुराना इतिहास, प्रकृति संरक्षण केवल प्रकृति प्रेम की भावनाएं ही वापस लौटा सकती हैं।
*शिक्षाविद एवं विश्व जल परिषद् के सदस्य। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।