खनन के चलते ख़त्म होता नदियों का जीवन
बुंदेलखंड, जो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के 14 जिलों तक फैला हुआ है, बिंध्य पर्वत श्रृंखलाओं के बीच में घिरा हुआ एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक क्षेत्र है। यह क्षेत्र नदियों के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां केन, बेतवा, बगैन, धसान, यमुना, पैसुनी, जामनी, सिंध, घरारा, पहुज, सोनार, बिना, बागे, उर्मिल जैसी प्रमुख बड़ी नदियाँ बहती हैं। दुर्भाग्य से अभी जिला स्तर पर छोटी नदियों का राजस्व रिकॉर्ड नहीं है, उनको दूसरे तरीके से नाला बता दिया गया है। ये नदियाँ न केवल इस क्षेत्र की जीवन रेखा हैं, बल्कि यहाँ के लोगों की आजीविका, कृषि और जल आपूर्ति का प्रमुख स्रोत भी हैं। इन नदियों में पाई जाने वाली उच्च गुणवत्ता की लाल बालू, जिसे स्थानीय लोग “लाल सोना” कहते हैं, आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। हालांकि, इन नदियों में होने वाले खनन के कारण नदियों की जीवन रेखा खतरें में आ गई है, और क्षेत्रीय पर्यावरणीय संकट गहरा रहा है।
नदियों में खनन की शुरुआत
सन 2000 से पहले तक बुंदेलखंड में बालू का खनन बहुत सीमित और स्थानीय स्तर पर ही होता था। लोग अपनी घरेलू जरूरतों के लिए बिना किसी मशीनरी का इस्तेमाल किए बालू का खनन करते थे। लेकिन 2000 के बाद इस क्षेत्र में बालू खनन में तेजी आई, और मशीनरी का उपयोग बढ़ने लगा। जेसीबी, पोकलैंड जैसी बड़ी-बड़ी मशीनों ने नदियों के सीने को चीरना शुरू कर दिया और नदी के किनारे की उपजाऊ ज़मीनों को भी नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया में नदियों का गहराई में 20-20 फीट तक खुदाई की गई, जिससे इन नदियों का प्राकृतिक प्रवाह और जीवन चक्र पूरी तरह से प्रभावित हुआ।
नदी के किनारे के समाज पर असर
इस बढ़ते खनन ने नदी किनारे रहने वाले समुदायों की आजीविका पर गंभीर असर डाला है। पहले जिन समुदायों का जीवन नदियों के जल और बालू पर निर्भर था, वे आज बेरोजगारी और प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर रहे हैं। खासकर, नदी के किनारे बसे किसान और मजदूर, जिनकी रोजी-रोटी नदी से जुड़ी थी, अब बिना काम के हो गए हैं। नदी किनारे किसान भी हैं और कुम्हार भी, मछुआरा भी और ढीमर भी | नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से लेकर कुँए तक में जल का संकट हुआ | नदी से जुड़कर पेट पालने वालों का आसरा ख़त्म हुआ तो मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा | नदी से बालू निकालने के लिए ठेकेदारों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, और नदियों का अत्यधिक खनन स्थानीय जलवायु को भी प्रभावित कर रहा है। यही कारण है कि बुंदेलखंड में अंधाधुंध बालू और मौरंग खनन से नदियों की जल धाराएं थमती जा रही है।
नदियों का गिरता जल स्तर
खनन के कारण नदियों का जल स्तर निरंतर घटता जा रहा है। नदी की जल धारा को नुकसान पहुँचाने के कारण जल स्रोत भी बंद हो रहे हैं, जिससे नदियों के आसपास के गाँवों में पानी की भारी किल्लत हो रही है। पर्यावरणविद संजय सिंह के अनुसार, “बुंदेलखंड में नदियों में हो रहे खनन के दुष्प्रभावों के कारण नदी के किनारे के गाँवों का जल स्तर बहुत नीचे जा रहा है, जिससे कृषि उत्पादन में कमी आ रही है और किसानों की मुश्किलें बढ़ रही हैं।” इसके अतिरिक्त, मिट्टी में आद्रता की कमी हो रही है, जो न केवल कृषि के लिए, बल्कि पूरे पर्यावरण के लिए हानिकारक है।
सरकार की भूमिका और अवैध खनन
जबकि बुंदेलखंड के लोग अवैध खनन के खिलाफ कई बार आवाज़ उठा चुके हैं, लेकिन इस मुद्दे पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ दिखाई देती है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) में भी कई बार अवैध बालू खनन की शिकायतें की गईं, लेकिन नदियों से अप्राकृतिक तरीके से हो रहे खनन पर कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की गई। यह एक कड़वी सच्चाई है कि बुंदेलखंड के राजनीतिक दलों की सरकारों के सहयोग से यह खनन प्रचुर मात्रा में हुआ है, और इसके परिणामस्वरूप नदियाँ धीरे-धीरे मरने के कगार पर पहुँच चुकी हैं। केन और बेतवा जैसी नदियाँ अब मृतप्राय हो चुकी हैं, जहाँ हर दिन बड़ी संख्या में ट्रक बालू को निकालकर ले जाते हैं। अवैध खननकर्ता बिना नदी की धारा की चिंता किये,नदी की जलधारा रोककर लिफ्टर से बालू निकाल रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि नदियों पर वैज्ञानिक ढंग से खनन किया जाये तो इसका लाभ पारिस्थितिकी एवं जनमानस दोनों को होता है, लेकिन नदियों पर चल रहे इस तरह के खनन से नदी और पर्यावरण दोनों को नुकसान उठाना पड़ रहा है।
स्थानीय संघर्ष और हिंसा
खनन के इस खेल में स्थानीय किसानों और खनन माफियाओं के बीच संघर्ष लगातार बढ़ता जा रहा है। ठेकेदारों और माफियाओं द्वारा जबरन जमीनों का कब्जा लिया जा रहा है और खेती को नष्ट किया जा रहा है। बालू निकालने के लिए हजारों किसानों के खेत रौंदा डाले गए। फसलें उजाड़ दी गईं। बांदा जनपद के मरौली गांव के किसान राम करन का कहना है कि ठेकेदार ने उनकी 5 बीघे खेत से जबरन रास्ता निकल लिया है, जो केन नदी के बालू खंड-2 तक जाएगा। इसका कोई एग्रीमेंट नहीं है, कोई मुआवजा नहीं मिला है। इस संघर्ष के कारण स्थानीय समाज में हिंसा भी बढ़ रही है। कई बार खनन के विरोध में स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन किए, लेकिन दबंगों और माफियाओं के डर से वे अपना विरोध खुलकर नहीं कर पाते। इस स्थिति का लाभ उठाकर माफिया खनन के इस कारोबार को बढ़ावा दे रहे हैं।
नदियों के संरक्षण की जरूरत
पूर्व सांसद गंगा चरण राजपूत का कहना है कि यदि इसी तरह से नदियों से बालू का खनन होता रहा, तो बुंदेलखंड में जल संकट और भी गंभीर हो जाएगा। “बुंदेलखंड बिना पानी का रेगिस्तान बन जाएगा, और यदि इस पर रोक नहीं लगी तो यह क्षेत्र पूरी तरह से सूख जाएगा,” वे कहते हैं। उन्होंने सरकार से नदियों के संरक्षण के लिए कठोर कदम उठाने की अपील की है। बुंदेलखंड का स्थानीय समाज नदियों के संरक्षण के लिए आवाज़ उठा रहा है और सरकार से नदियों से हो रहे अप्राकृतिक खनन को रोकने की मांग कर रहा है।
बुंदेलखंड में नदियों से होने वाला खनन न केवल स्थानीय समाज के लिए, बल्कि पर्यावरण और भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी खतरनाक साबित हो रहा है। रेत खनन से नदियों का तंत्र प्रभावित होता है और खाद्य-श्रृंखला नष्ट होती है। रेत – खनन में इस्तेमाल होने वाले सैंड-पंपों के कारण नदी की जैव-विविधता पर भी असर पड़ता है। इससे भू-कटाव बढ़ता है और भूस्खलन जैसी आपदाओं की आवृत्ति में वृद्धि हो सकती है। साथ ही प्राकृतिक रूप से पानी को शुद्ध करने में रेत की बड़ी भूमिका होती है। रेत खनन के कारण नदियों की स्वतः जल को साफ कर सकने की क्षमता पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। । नदियों के अविरल बहाव, जल स्रोतों की रक्षा और जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए इस खनन पर तत्काल रोक लगाना आवश्यक है। इसके लिए सरकार, समाज और पर्यावरण विशेषज्ञों को एक साथ मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए सतत खनन नीति का निर्माण और क्रियान्वयन करना बेहद जरूरी है, ताकि बुंदेलखंड में नदियाँ और उनके जल स्रोत पुनः जीवन से भर सकें। केवल तब ही इस क्षेत्र का भविष्य सुरक्षित और समृद्ध हो सकेगा।
*लेखक झाँसी के निवासी हैं और बुंदेलखंड में कार्यरत परमार्थ समाज सेवी संस्थान से जुड़े समाजसेवी हैं।