संस्मरण
– डॉ. संजय ओनील शॉ
मेरे पापा रॉबिन शॉ ‘पुष्प’ उर्फ़ पापू सबके लिए पापू थे। सभी उन्हें इसी नाम से संबोधित करते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न थे। उनका जन्म बीस दिसंबर उन्नीस सौ चौंतीस में मुंगेर में हुआ था। युवावस्था में वे फ़ुटबाल के नामी सेंटर फारवर्ड तो थे ही साथ ही साथ कैरम चैंपियन भी थे। हिंदी लेखन की तरफ उनका झुकाव बचपन से ही था पर गंभीर लेखन कॉलेज के हिंदी के प्रोफेसर साहब जिन्हें सभी ‘बाबा’ के नाम से पुकारते थे ने हिंदी में कहानी लिखने को प्रेरित किया। उनकी पहली कहानी ‘अखबार’ कॉलेज की पत्रिका में छपी थी। उनकी दूसरी कहानी ‘प्रतिद्वंदी’ अपने समय की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘धर्मयुग’ में 15 जनवरी 1957 में छपी थी।
पापू के लिए कोई बड़ा या कोई छोटा नहीं था। उनके लिए सभी बराबर थे। चूंकि उनकी लोकप्रियता बहुत अधिक थी अतः कोई भी कभी भी उनसे मिलने आ जाता था। सबके लिए हमारे ड्राइंग रूम से लेकर डाइनिंग टेबल तक का सफ़र बिलकुल सुगम था अर्थात् वे सभी को बड़े प्यार से अपने साथ बिठाकर खाना खिलाकर ही विदा करते थे। इसीलिए हमारे घर हमेशा एकाध व्यक्ति का खाना अधिक ही पकता था।
पापू का कहानी लिखने का तरीका बड़ा विचित्र था। जब भी उन्हें कुछ लिखना होता तो कागज़ कलम लेकर कमरे में बंद हो जाते और तबतक बाहर नहीं आते जबतक उनकी लेखनी ख़त्म नहीं हो जाती अर्थात् वो सबकुछ एक ही सिटिंग में ही लिखते थे। इससे भी ज़्यादा ख़ासियत यह थी कि वे सबकुछ बिलकुल स्पष्ट लिखते थे। कहीं भी कोई संशोधन नहीं रहता था मानो वह फाइनल कॉपी हो।
पापू से मिलने तरह-तरह के लोग आया करते थे। एक बार दो लड़के हमारे घर के गेट के सामने बहुत देर से खड़े थे पर वे अंदर नहीं आ रहे थे। जब पापू ने उन्हें देखा तो अंदर बुलाकर ले आये। बड़े लड़के ने कहा कि ये मेरा छोटा भाई है जो बड़े अच्छे स्केच और कार्टून बनाता है, ये आप जैसे लेखक को नज़दीक से देखना चाहता है। पापू ने उसे अपने पास बिठाया और अपने बारे में बताया कि लेखक भी आम इंसान जैसा होता है। उसे अपने बारे में बहुत कुछ बताया। उसकी स्केच बुक देखी और उसको कार्टून स्ट्रिप बनाने को प्रेरित किया। बीच-बीच में वह लड़का उनके पास आता रहता था और जल्द ही वह एक नामी कार्टूनिस्ट ‘नीरद’ बन गया।
इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कन्टेम्पररी आर्टिस्ट सुबोध गुप्ता पापू के मार्गदर्शन से आम आदमी से ख़ास आदमी बन गए। उनके बनए इंस्टॉलेशन दुनिया भर में देखे जा सकते हैं।
बॉलिवुड में आवाज़ की दुनिया के बादशाह अरविन्द मेहरा जब अपना भाग्य आजमाने मुंबई जा रहे थे तो रास्ते में ही उनका सारा सामान चोरी हो गया। पापू ने घंटों उनको हिम्मत दिलाई और हौसला बढ़ाया। सो एक बार फिर वे पापू का आशीर्वाद लेकर मुंबई रवाना हो गए। कर्म और भाग्य ने साथ दिया और उनको कामयाबी की बुलंदी तक पहुंचा दिया।
इसी तरह लेखक, पत्रकार, कवि, हर तरह के लोग पापू से सलाह लेने आते थे तथा पापू उन्हें कभी भी निराश नहीं लौटाते थे।
पापू फ़ुटबाल के बहुत अच्छे सेंटर फॉरवर्ड तथा कैरम खिलाड़ी थे। अपने समय में उन्हें कई फ़ुटबाल टीमों द्वारा बॉरो किया जाता था। वे हमेशा फ़ुटबाल के ज़बरदस्त प्रशंसक रहे। शायद ही कोई फ़ुटबाल मैच देखना छोड़ते थे। एक बार पटना के मोइनुल हक स्टेडियम में कोई महत्वपूर्ण फ़ुटबाल मैच था। अब उस मैच को देखने के लिए वो बेताब थे पर कोई साथी नहीं मिल रहा था। तभी उनका एक प्रिय रिक्शावाला शमीम रिक्शा लेकर चला आया और पूछने लगा कि उन्हें कहीं जाना है। पापू ने उससे पूछा कि फ़ुटबाल मैच देखने चलोगे। शमीम भी फ़ुटबाल प्रेमी था सो झटपट तैयार हो गया। उसने अपना रिक्शा हमारे घर के आँगन में लॉक किया और दोनों दूसरे रिक्शे से चल दिये मैच देखने।
इस घटना को चिन्हित करने का तात्पर्य यह है कि उन्हें किसी के भी साथ उठने बैठने से परहेज़ नहीं था. वे बड़े से बड़े व्यक्ति तथा सामान्य व्यक्ति से भी एक जैसा ही व्यवहार रखते थे. तभी तो वे सभी वर्गों में अत्याधिक लोकप्रिय थे।
पापू किसी भी राजनीतिक खेमे से नहीं जुड़े रहे और उन्होंने जीवन-पर्यन्त स्वतंत्र लेखन किया। उनके कार्य क्षेत्र का दायरा विस्तृत था. गोपाल सिंह नेपाली, नीरज, फणीश्वर नाथ रेणु, नागार्जुन, राजिंदर सिंह बेदी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अमृत राय, हरिवंश राय बच्चन, डॉ. धर्मवीर भारती, यशपाल, जैनेन्द्र कुमार, डॉ. राजेंद्र अवस्थी, अमरीक सिंह दीप, राजेंद्र यादव, हिमांशु जोशी, विष्णु प्रभाकर, कृश्चन्दर, शरद जोशी, फ़ादर कामिल बुल्के, डॉ. सरोजिनी प्रीतम, से. रा. यात्री आदि आदि उनके नजदीकी मित्र थे. नामों की संख्या तो इतनी है कि यदि एक-एक करके नाम याद करें और लिखते जाएँ तो पूरा पृष्ठ भर जाए. अतः जिनके नाम मैं नहीं लिख पाया उनसे शत-शत क्षमा याचना।
इतना ही नहीं, आचार्य रजनीश (ओशो) भी उनके पुराने मित्रों में से एक थे। उन्होंने तकरीबन हर विधा पर काम किया- कहानी, कविता, व्यंग्य, लघु-कथा, उपन्यास, संस्मरण, नाट्य-लेखन, फिल्म (कथा, नाटक एवं गीत) आदि आदि। वे रेडियो तथा दूरदर्शन के ‘ए’ ग्रेड लेखकों की सूची में भी थे। उनकी रचनाएं कई भाषाओं में अनुवादित भी हो चकी हैं जैसे बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, उर्दू, अंग्रेजी, मैथिली आदि।
उन्होंने बिहार की प्रथम लघु फीचर फिल्म का निर्माण भी किया। कई फ़िल्मी हस्तियों के साथ उनकी अच्छी पहचान थी जैसे शत्रुघ्न सिन्हा, चित्रगुप्त, असित सेन, आशा भोंसले, श्याम सागर, रामायण तिवारी इत्यादि। उन्होंने कई पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया जैसे ‘हंसोड़’ (हास्य-व्यंग मासिक पत्रिका), रांची, ‘मसीही आवाज़’ (मासिक), (नेशनल क्रिश्चियन काउन्सिल ऑफ़ इंडिया, रांची), ‘चित्र साधना’ (फिल्म साप्ताहिक) पटना, ‘शिक्षा डाइजेस्ट’ (साहित्यिक मासिक पारिवारिक पत्रिका) पटना, ‘महादेश’ (साहित्यिक मासिक पत्रिका), पटना। इनके अलावा ‘युवक’ (मासिक) गोपाल सिंह नेपाली विशेषांक (आगरा) तथा ‘ज्योत्स्ना’ (मासिक), ‘उर्दू कथाकार’ अंक-1 तथा अंक-2 (पटना) के अतिथि सम्पादक भी रहे। इनके जीवन एवं लेखन पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बन चुकी है – ‘पुष्पगाथा’।
हमारे घर हमेशा आम लोगों से लेकर तकरीबन हर क्षेत्र के विद्वान् आते रहते थे। उनके साथ हर प्रकार की बातचीत होती रहती थी। हल्की फुल्की मज़ाकिया बातों से लेकर गंभीर चर्चाएँ भी होती थीं। ऐसे में अनेकों छात्र, लेखक, कवि तथा पत्रकारों का भी तांता लगा रहता था जो उन बातों को बड़े ध्यान से सुनते और बहुत कुछ सीखने की कोशिश भी करते। भले ही हमारी उम्र उस वक्त कम थी फिर भी मैं और मेरा भाई सुमित बढ़-चढ़कर उनकी बातचीत में शरीक रहते थे।
पापू की पचास के अधिक प्रकाशित पुस्तकें हैं। उनको कई सम्मान तथा पुरस्कार मिले जैसे 1965- उदीयमान साहित्यिक पुरस्कार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, बिहार सरकार, 1980- कला एवं साहित्यिक सेवा के लिए विशेष सम्मान, मंथन कला परिषद्, खगौल, 1986- हिंदी सेवा तथा श्रेष्ठ साहित्यिक सृजन के लिए ‘सारस्वत सम्मान’, 1987- ‘विपुला’ एवं ‘चतुरा’ (तेलगु मासिक) द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में ‘अग्निकुंड’ (कहानी) पुरस्कृत, 1987-शिव पूजन सहाय पुरस्कार, राजभाषा विभाग, बिहार सरकार, 1994- विशेष साहित्य सेवी सम्मान पुरस्कार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, बिहार सरकार, 1994- साहित्य में विशेष योगदान के लिए सम्मानित, नवचेतन साहित्य, संस्कृति एवं समाज कल्याण परिषद्, बाढ़ (पटना), 1994- बिहार के साहित्यकारों की कृतियों को संपादित एवं प्रकाशित करने की दिशा में किये गए कार्यों के लिए ‘मुरली सम्मान’, शब्दांजलि, पटना, 1999- हिंदी कथा-साहित्य की संमृद्धि महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए राजभाषा विभाग, बिहार सरकार द्वारा ‘फणीश्वर नाथ रेणु पुरस्कार’, 2002- ‘मसीही हिंदी साहित्य-रत्न-सम्मान’ से काथलिक हिंदी साहित्य समिति (भारत के काथलिक बिशपों की हिंदी समिति) द्वारा इलाहाबाद में ‘मसीही हिंदी साहित्य-रत्न पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
पापू हमेशा साहित्य की सेवा करते रहे। धनोपार्जन में उनकी विशेष रूचि नहीं थी। जूनून तो था सिर्फ हिंदी साहित्य को बढ़ावा देने का। तभी तो श्री राजेंद्र यादवजी पापू के बारे में कहते थे- “मैं मानता हूँ कि पुष्पजी हमारे समय के उन महत्वपूर्ण कहानीकारों में से हैं जिनके नाम के बिना हिंदी कहानी का इतिहास पूरा नहीं होता है।”
उनके पाठकगण अक्सर उनसे सवाल करते- “रॉबिन शॉ पुष्प कौन हैं?” तो पापू जवाब देते- “ जब कोई सोच शबनम की नाज़ुक बूँद की तरह कलम की नोंक पर स्याही बनकर बस जाती है तब कागज़ पर उतरते हैं अक्षर, अक्षर बन जाते हैं शब्द, शब्द बन जाते हैं पंक्तियाँ और यही पंक्तियाँ किताबों में हो जाती हैं दर्ज़, जब आप किताबों के पृष्ठ पलटियेगा तो हर पृष्ठ पर आपको रॉबिन शॉ पुष्प मिलेगा। आपकी असली और सही मुलाक़ात किताबों के पृष्ठों पर ही रॉबिन शॉ पुष्प से होगी”। पापू को कभी भी पाठकों की कमी नहीं रही. उनका एक बड़ा पाठकवर्ग अभी भी विद्यमान है।
पापू अक्सर कहा करते थे- “जीवन एक गुल्लक है और हर दिन एक सिक्का. आज मैंने खर्च किया एक दिन।”
पापू एक अच्छे हस्त-रेखा पढ़ने के साथ-साथ कुंडली भी देखने में माहिर थे और बड़ी सटीक भविष्यवाणियाँ भी करते थे। उनसे तो हस्त-रेखा विशेषज्ञ और कुंडली पढ़ने वाले भी अपने बारे में पूछने चले आते थे। जब उनकी उम्र उन्यासी वर्ष हो गई तो उन्होंने उल्टी गिनती गिननी शुरू कर दी और कहने लगे थे कि अब इतने महीने और इतने दिन बचे हैं। और 31 अक्टूबर 2014 के अखबार जागरण में खबर छपी- पत्नी बेटे का हाथ पकड़कर रॉबिन बोले ‘अब मुझे जाने दो’। 30 अक्टूबर 2014 को वे हम सबको छोड़कर चले गए. रेडियो दूरदर्शन पर निधन का समाचार आते ही लोग स्तब्ध रह गये. उनके अंतिम दर्शन के लिए लोगों का तांता लग गया। अखबारों तथा पत्रिकाओं के पृष्ठ उनकी मृत्यु के समाचारों से भर गये। इस कलम के सिपाही को लोगों ने अश्रुपूरित आंखों से अलविदा कहा। दैनिक हिन्दुस्तान के श्री अवधेश प्रीत कहते हैं- “… क्योंकि, पुष्पजी जब जिए, रिश्तों के लिए जिए, जब टूटे, रिश्तों के लिए टूटे। एक वाक्य में कहूंगा- रिश्तों में जीने वाले कथाकार का नाम है- रॉबिन शॉ पुष्प।”