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सप्ताहांत विशेष
– रमेश चंद शर्मा*
छोटे छोटे बच्चों के सपने बहुत बड़े बड़े होते है। सोते, जागते, उठते, बैठते, खेलते, कूदते, नाचते, गाते हर समय वे सपनों की उडान भरते रहते है। कभी चंदा मामा बन जाता है, ‘चंदा मामा दूर के, पुए खिलाए गुड़ के, आप खाए थाली में, मुन्ने को दे प्याली में, प्याली गई टूट, मुन्ना गया रूठ, नई प्याली लायेंगे, मुन्ना को मनाएंगे’। कभी चंदा की पतंग बनाकर आकाश में बिना मंजा डोरी के उड़ाना। कितना मजा आता जब हमारे साथ साथ चंदा भी दौड़ता नजर आताI सभी कहते मेरे साथ ही दौड़ रहा है।सभी का अपना चंदा मामा, दुनिया के सभी बच्चों का चंदा मामा। ऐसा अपना चंदा मामा।
गाँव की अपनी जिन्दगी में सहज ढंग से कलाकारी, हस्तकला देखने सीखने का मौका मिल जाता है, आपकी रूचि होनी चाहिए। साथ बैठो और देखो, करो, सीखो। सहायक बनकर शुरू करो और गुरु बनकर निकलो। खेल ही खेल में अपन ने भी चारपाई बनानी सीख ली, वो भी दो कडिया, तीन कडिया, चार कडिया, छह कडिया वाली।विशेष पलंग बनाने में तो समय, मेहनत बहुत लगता जिसमें, उल्टा सीधा वेद चलताI ऐसे पलंग एक बार बन गए तो पीढ़ी दर पीढ़ी चलतेI आमतौर पर यह सूत या सन, जूट की रस्सी से बनाए जाते थेI दादा बनाए पोते बरतें।
गाँव में कताई, बुनाई का काम होता था। चर्खा लगभग हर घर में चलता थाI मोटा सूत काता जाता। खड्डी पर बुनाई होती। खेश, चद्दर, तौलिया, मोटा कपड़ा जिसे डोटई कहा जाता था। सूत कातने पर आप अपनी रूचि का कपड़ा बनवा सकते थे। खड्डी जमीन में गड्डा बनाकर बनाई जाती थी। कपडा बुनने वाले को इस गड्डे में बैठकर कपडा बुनना पड़ता। सूत को मांडी लगाकर ताना बनाया जाता। जिसे ताना ड्रम, चक्कर पर लपेटा जाता और बुनाई शुरू होती, ताना बाना से कपड़ा तैयार। गाँव का भोजन, गाँव का कपडा। स्वावलम्बन की राह।
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सबसे अच्छी बात यह थी की हमारे गाँव में खुले आम शराब पीने की हिम्मत कोई नहीं करता थाI लोग पीते थे, मगर छुपकर और गलियों में नहीं आते थे। हुक्का, चिलम, सुल्फी में तम्बाकु, बीडी का प्रयोग बहुत लोग करते थे। बीडी का निर्माण गाँव में ही चाचा रविदत करते थे। तेंदू पत्ता बाहर से बोरा भरकर मंगवा जाता। बच्चे बड़े उत्साह से उसे देखते और कभी बनाने में हाथ भी आजमाते। इसमे हाथ की ही मेहनत लगती थी।मशीन का प्रयोग नहीं होता था। बीडी बनाने के लिए तेंदू पत्ता, लोहे की एक पत्ती जिससे एक माप के पत्ते काटे जा सकें। एक सूप, छाज जिसमें रखकर कटे हुए पत्ते में तम्बाकु भरकर मोड़ा जा सके, फिर पतले धागे से बांधना। बहुत सारी बीडी तैयार होने पर, अंगीठी पर छलनी में बीडी रखकर सेकना।
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बढ़ईगिरी, लकड़ी का काम भी गांव में खूब होता था। लकड़ी के खिलौने, खेती के औजार, काम आने वाली लकड़ी की चीजें, सामान, हल, औरना, किल्ली, संटी, बैलों का जुआ, बैलगाड़ी, पीढ़ा, पटा, पलंग, चारपाई, खटोला, खिड़की, दरवाजा, टांड, अलमारी, मंढ़ा, तौरण, तख्ती, दवातखाना आदि।
चमड़े का सामान भी गांव में बनता था। चप्पल, जूतियां, थैला, थैली, हंटर, चीडस, डोल, रस्सी के साथ काम आने वाली चीजें। मरे हुए जानवरों का चमड़ा निकालने के लिए गांव के बाहर से व्यक्ति आता था और वह चमड़ा निकालकर ले जाता।
गांव में छप्पर बांधने के अच्छे कारीगर थे। जिनके बांधे, बनाए गए छप्पर सालों साल चलते। हमारे यहां भी एक नया छप्पर बनाया गया। जिसके बनवाने में अपन ने एक बार की पूरी अपनी गर्मी की छुट्टियां उसी में लगा दी थी। यह गांव के बाहर की ओर रास्ते के पास बना था। अपनी छुट्टियों का ज्यादा समय इसी में बितता। सोना, खाना पीना, नहाना धोना, पढ़ना लिखना, खेलना कूदना, काम काज सभी यहीं पर होता। रात को अकेले यहीं सोना। इससे जुड़े अनेक प्रसंग है। कुछ तो बड़े ही मजेदार भी हैं।
गर्मियों की रात में भी देर रात में हल्की ठंड हो जाती। इसलिए ओढ़ना पड़ता था। बगल में लाठी, बैटरी टार्च रखकर सोता था। एक रात में ओढ़कर सोया पड़ा था कि अचानक आवाज सुनाई दी। गांव में यह अनेक बार सुना था कि पहली कुछ आवाजों पर जवाब नहीं देना चाहिए छलावा हो सकता है।बुरी आत्मा हो सकती है। अगर जवाब दिया तो प्राण गंवाने पड़ सकते हैं। यह बात दिमाग में आई और सतर्क होकर चुपचाप पड़ा रहा। जिधर से आवाज आ रही थी, उस ओर करवट बदली और अधखुली आंखों से देखने का प्रयास किया कि एक मुछों वाला काला सा आदमी एक हाथ में लाठी, तो दूसरे हाथ में भैंसें की डोरी पकड़े आवाज दे रहा है। अपनी सारी निडरता रफूचक्कर हो गई। तरह-तरह के ख्याल मन मस्तिष्क में घूमने लगे। पसीना आने लगा, घबराहट भी हुई, क्या किया जाए। मरता क्या नहीं करता सोच कर, आखिर में अपनी लाठी जो बगल में रहती थी उसको उठाया और अचानक उछलकर उस पर वार करने का प्रयास किया, वार खाली गया। वह थोड़ा पीछे हटा, इसी मध्य आवाज आई, राहगीर हूं, राह पूछनी है। अपने दम में दम आया। मन में चल रही फिल्म बंद हुई, और अपन सामान्य बनने, दिखने के प्रयास में लगते हुए कहा कि बैठो, पानी वानी पी लो। सामान्य स्थिति बहाल होने पर अपन ने माफी मांगी, कहा कि मैं गलत समझ गया था। उसको रास्ता बताने से पहले पानी, गुड़ दिया। कुछ देर बातचीत की। वह काली गाय खरीद कर लाया था। ठंड ठंड के समय ही रास्ता तय कर अपने गांव पहुंचना चाहता था। ऐसी स्थिति में बाद में अपनी बेवकूफी, डर पर खूब हंसी आती।
हमारे साझे के स्थान पर एक कच्ची मिट्टी का कोठा और वो भी दो मंजिला था। ऊपर के हिस्से को मेडी कहा जाता था। उसके सामने तीन बड़े नीम के पेड़ होते थे। गर्मी में भी इनमें ठंडक महसूस होती। चौमासा आने से पहले और बाद में इनकी मरम्मत पर विशेष ध्यान दिया जाता।
मिट्टी के बर्तन बनाने का काम पडौसी गांव सेका में होता था। वहां से मिट्टी का बना जो भी सामान लाना हो, ला सकते थे।
हमारे छोटे वाले गांव में साबुन बनाने का काम भी होता था, जिसकी बिक्री नारनौल में एक रेहड़ी पर होती थी। यह कारखाना चैयरमेन बाबूजी के यहां चलता था। चमड़े को सीजाने का काम कोजिंदा गांव में होता था। चमड़े के पानी से भरी बड़ी बड़ी मस्कें लकड़ियों के ढांचे पर लटकी रहती। जिनके पास से गुजरने पर भंयकर बदबू आती। बाद के वर्षों में सेका गांव में चमड़े का एक कारखाना भी बना था।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।[the_ad_placement id=”sidebar-feed”]