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परिवार, विश्व में सुख-शांति का आधार
-पूनम माटिया*
कोरोना के कारण भारतीय संस्कृति की ओर विश्व तेजी से बढ़ रहा है। वैश्विक-एकता के लिए प्रधानमंत्री मोदी भी प्रयासरत हैं। भारत को यदि विश्व-गुरु बनना है, तो भारत को शिक्षक की भूमिका में रहना होगा और इसलिए पहले अपना घर संवारना आवश्यक है।
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भारत में करोना-पीड़ा में परिवार कैसे संगठित रखा जाए-इस बिंदु पर प्रकाश डालते हुए मुख्यवक्ता पूर्व राज्यपाल, गोवा, समाज सेवी, पत्रकार एवं प्रख्यात साहित्यकार डाॅ. मृदुला सिन्हा ने हाल ही में भागीरथ सेवा संस्थान तथा सद्विचार मंच, गाजियाबाद के संयुक्त तत्त्वावधान में एक विशेष ई-संगोष्ठी – ‘‘परिवार, विश्व में सुख-शांति का आधार’’ में अपने उद्बोधन में कहा कहा कि ‘‘स्त्री-सशक्तिकरण नहीं बल्कि परिवार-सशक्तिकरण संस्कार एवं समाज ध्येय होना चाहिए।’’
विश्व की सुख-शांति का परिवारिक सुख-शांति ही आधार है, क्योंकि विश्व भी एक परिवार है। ‘‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दुख भाग भवेत’’ यदि मनुष्य पशु, पक्षी, ताल-तलैया, पौधे सब सुखी हैं, तो ही हम सुखी हैं।
परिवार को चिंतकों-दार्शनिकों ने आधारभूत इकाई माना है। संपूर्ण परिवार स्वस्थ होना चाहिए। बड़े परिवार में एक अतिथि का सत्कार सहजता से हो जाता है। यदि कोई मेहमान एक भरे-पूरे परिवार में अचानक आ जाए, तो उसके खाने की परेशानी नहीं होती, क्योंकि एक संयुक्त परिवार में इतना खाना तो निकल ही आता है। लेकिन दूसरी ओर ऐसा भी परिवार होता है जहाँ गिने-चुने लोग होते हैं और उतना ही खाना बनाया जाता है, कोई अचानक आ जाए तो आने वाला खुद ही कहता है- ‘‘नहीं जी हम तो खा कर आए हैं।’’ मेहमान की चिंता गाँव में आस-पड़ोस के लोग भी किया करते थे, क्योंकि वह भी वृहद् परिवार का अतिथि होता था।
संयुक्त परिवार में अक्सर ऐसा देखा जाता था कि दो-तीन माताएँ ऐसी होती थीं, जिनके छोटे बच्चे होते थे, तो एक के व्यस्त या बीमार होने पर कोई दूसरी माँ उस बच्चे को दूध पिला दिया करती थी। परिवार को संस्कार का केंद्र माना गया है। उपनयन संस्कार में घर की औरतें अक्सर ऐसे लोकगीत गाती थीं, जिसमें पिछली सात पीढ़ियों को याद किया जाता था और उन्हें बुलाकर आशीर्वाद लिया जाता था।
किस्से-कहानियों के माध्यम से अपने वक्तव्य को रोचक व् ग्राह्य बनाते हुए मृदुला जी ने यह बात भी रेखांकित की कि हमारे गांव की बेटी सब की बेटी होती थी और परिवार का लक्ष्य भी एक ही होता था कि आगे आने वाली पीढ़ियों तक परिवार का नाम चले। परिवार में नारी को अर्धांगिनी कहा गया और यह भी कि वह अपने दायित्व पूरा करते-करते अधिकार प्राप्त कर जाती है। अनपढ़ गंवार कुली को भी पता था कि औरत वह खूंटा होती है, जिससे पूरा परिवार बंधा होता है।
वेदों में भी यह कहा गया है कि औरत जिस घर में ब्याह कर जाती है, वहाँ वह साम्राज्ञी होती हैं। दो परिवार, जो शादी के बंधन में बंधते हैं, वे बराबरी के होते हैं। इसलिए ही समधी और समधन कहा गया। मृदुला जी ने यह भी कहा कि महिलाओं को बराबरी के दंगल में नहीं फंसना चाहिए, क्योंकि महिलाओं का हाथ तो ऊपर है, देने वाला हाथ है, बराबरी के चक्कर में क्यों अपने हाथ को झुकाया जाए।
कर्तव्य की लागत लगाकर अधिकार अर्जित करो अर्थात अधिकारों को छीना या मांगा नहीं जाता, बल्कि अर्जित किया जाता है। अंदर की संवेदना की धारा को सूखने नहीं देना चाहिए। यह तथ्य उन्होंने अपने एक गीत की कुछ पंक्तियों द्वारा उकेरा, जिसमें बताया कि माता तो ममता से ओतप्रोत होती है और संवेदना हृदय का आभूषण होता है, सब अपने ही हैं- यही भाव लेकर आगे चलना चाहिए। शादी-विवाह में यह बात विशेष ध्यान रखने वाली होती है कि लड़की के मां-बाप उसके नए घर अर्थात ससुराल में अधिक ताका-झांकी या दखल न दें। दही-जमाने के उदाहरण से इस बात पर जोर डाला कि जैसे एक निश्चित अवधि के बाद दही स्वयं जम जाता है, उसी तरह नए रिश्ते में बार-बार लड़की के माता-पिता को घुसना नहीं चाहिए। बेटी को पढ़ा लिखा कर, गृहिणी के गुण सिखा कर जब ससुराल भेजा जाता है तो बार-बार टोकाटाकी करने की आवश्यकता नहीं। आगे उन्होंने यह कहा कि यदि घर में सम्मान मिलता है, तो बाहर भी मिलता है। संस्कारों का बीजारोपण परिवार में ही होता है। बहुत ही स्वयंसेवी संस्थाएँ परिवार के महत्त्व को रेखांकित करते हुए परिवार को बचाने की बात करती हैं। परिवार को कैसे बचाएँ, इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
परिवार के विघटन का दोषी अक्सर लड़की वालों को या लड़की को ही ठहराया जाता है, इसलिए विवाह को, परिवार को बचाए रखने में लड़की के परिवार की अहम भूमिका होती है। लोकगीतों के माध्यम से उन्होंने फिर बताया कि जब नवविवाहिता लड़की छोटी-सी शिकायत अपने मायके में भाई से करती है, तो भाई किस तरह उसे अच्छी सीख देता है। वह कहता है- ‘‘जिससे तुम्हारी शादी हुई है, उसे ‘पर-पुत्र’ कहना छोड़ दो, क्योंकि कुछ ही दिन में वह तुम्हारा प्राण हो जाएगा।’’
अपने व्यवहार से परिवार को बाँध कर रखना महिलाओं और पुरुषों, दोनों की जिम्मेदारी है। बहुत महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने यह कही कि जैसे हर कोर्स, हर पद के लिए प्रशिक्षण होता है वैसे विवाह का कोई प्रशिक्षण नहीं होता विशेषकर आज की परिस्थिति में जब संयुक्त परिवार छोटे होकर एकल परिवार बन गए हैं। पढ़ाई और कैरियर की बात करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘वैसे तो सारा आकाश बेटियों के लिए खुला है, हर क्षेत्र, हर कैरियर में उनका स्वागत है; लेकिन उनको यह भी याद रखना चाहिए कि माँ भी उनको ही बनना है, पुरुष को यह वरदान प्राप्त नहीं है।’’
आजकल कैरियर और कंपटीशन के दौरान शादी-विवाह का प्रशिक्षण नहीं हो पाता, दूसरे घर जाकर कैसा व्यवहार करना है, इसका प्रशिक्षण नहीं हो पाता और न ही यह बात बच्चों के दिमाग में आती है, विशेषकर लड़कियों के। ऐसे में परिवार का टूटना आम बात हो गई है, ‘दांपत्य की धूप-छाँव’ नाम की अपनी पुस्तक में मृदुला जी ने बताया है कि शादी के बाद केवल खुशियाँ ही नहीं होतीं, उतार-चढ़ाव भी आते ही रहते हैं। संबंध-विच्छेद यदि होता है, तो केवल पति-पत्नी और बच्चों की ही नहीं, पूरे परिवार की हानि होती है। उन्होंने यह भी कहा कि जो बच्चा दादी-नानी की गोद में पलता है, वह अधिक संवेदनशील होता है और जब दादी-नानी द्वारा अपने पोता-पोती का प्यार से नहलाना, मालिश करना, खाना बना कर खिलाना आदि किया जाता है, तो वह परिवार को जोड़ने का प्रयास में वह लगी रहती हैं। आगे उन्होंने कहा कि विवाह दो परिवारों का मिलन है। संस्कार, व्यवहार, कुंडली का मिलाना यह सब एक हिस्सा है दोनों परिवार के आपसी संबंधों को प्रगाढ़ करने का। बिना कानून परिवार नहीं चलता।
आजकल अक्सर यह देखा गया है कि लडकियां परिवार से अलग रहना पसंद करती है; पर यह बात समझने की है कि शादी के बाद सास-ससुर या अन्य बुजुर्ग साथ हों तो पति-पत्नी के व्यवहार पर नजर रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें समझाते-बुझाते भी हैं।
मृदुला जी के अनुसार घर में कम-से-कम दो बच्चे तो होने ही चाहिए; क्योंकि जब वे आपस में प्यार करते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं, छीना-झपटी, रूठना-मनाना करते हैं, मिलकर खेलते-खाते हैं, तो वे जीवन जीना सीखते हैं। चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह से वृद्धाश्रम बढ़ते जा रहे हैं, उस तरह से पालना-घरों का बढ़ना भी देखा गया है।अगर वृहद संयुक्त परिवार न हो जो कि आजकल मुश्किल भी हैं, तो कम-से-कम तीन पीढ़ियाँ तो साथ रहें।
एक अलग बिंदु पर रोशनी डालते हुए मृदुला जी ने कहा-पिछले 10 वर्षों में मैंने नारा दिया कि नारी सशक्तिकरण की बजाय परिवार का सशक्तिकरण होना चाहिए। परिवार में नारी, पुरुष, वृद्ध और बच्चों सबका सशक्तिकरण होना चाहिए; ताकि परिवार एक सुगठित इकाई बनकर समाज, देश, विश्व में शांति स्थापित कर सके।
*कवि, लेखिका, संचालिका
अध्यक्ष, अंतस् (साहित्यिक, सामजिक एवं सांस्कृतिक संस्था)
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आपके विचार बहुत सही लगे
आज के पारिवारिक परिवेश मे यह बहुत अनिवार्य है तभी समाज एवं देश प्रगति करेगा
Wow…what a detailed description of Mridula ji’s presentation and discussion on family ‘s responsibility and the role of a bride .
Thanks dear poonam for sharing it with us.