– डॉ. राजेंद्र सिंह*
भारत की जवानी की लाचारी, बेकारी, बीमारी, प्राकृतिक अतिक्रमण, प्रदूषण, शोषण की देन नही है। यह जल सम्मान, अनुशासित उपयोग पुनर्शाधन, पुनःचक्रण, पुनःउपयोग, पानी से प्राकृतिक पुनर्जनन प्रक्रिया के आस्था-विश्वास के खत्म होने से आरंभ हुई है। यह प्रक्रिया हिंसक है। प्रकृति का सम्मान नष्ट करने वाली है।
नदी जो सभी के जीवन को प्रवाह प्रदान करती है, आज उसको अतिक्रमण, प्रदूषण और जल शोषण ने बेकार नदी दिया है। नदी जो हमें अपना सर्वस्व देती है। उसी से अन्न ऊर्जा, जल, जीवन मिलता था। उसे बाँधकर उसके साथ शोषण करके, उससे ऊर्जा उत्पादन करने लगे है। पहले यही नदी माँ की तरह हमें अपने जल प्रवाह से जीवन, जीविका, जमीर, आनंद, आध्यात्म, सभ्यता, संस्कृति सभी कुछ मानव जीवन के लिए पोषणकारी बनकर देती थी। आज हम शोषणकारी बनकर सभी कुछ इसको लूटने लगे है। इसीलिए भारत की सभी नदी मर रही है। बीमार होकर संघन चिकित्सा की माँग कर रही है। इसके इलाज हेतु समाज और सत्ता सुन नहीं रही है।
सरकार आज केवल लाभ के लिए ही काम कर रही है, शुभ को भूल गई है। खाद्य, जलवायु, जीवन स्वस्थ्य सुरक्षा जो भारतीय संविधान ने सरकार की ,जिम्मेदारी निर्धारित कर रखी है, उसकी पालना नहीं कर रही है। सरकार अब लोक हित में नहीं, चंद उद्योगपतियों के हित में काम कर रही है। लोक सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर रही है। उद्योगपतियों के लाभ हेतु लोकसुरक्षा को समाप्त कर रही है।
जब भी सत्ता का प्रकृति पर हमला करने वालों की सत्ता होती है तो प्रकृति में मानवता की रक्षा करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। लूटपाट और रावणीय संस्कृति का आगमन हो जाता है। सोने का शहर बनाने वाला भाव प्रबल हो जाता है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी अभियांत्रिकी भी वैसी ही अतिक्रमण, प्रदूषण, शोषणकारी बन जाती है। ये हालात मानवता और प्रकृति का पोषण करने योग्य बचते नही हैं।
आज नारी-प्रकृति पर ही सबसे ज्यादा शोषण, अतिक्रमण, प्रदूषण की मार है। इसके कारण अब उत्पादन प्रकृति के साथ शोषण करके कराया जा रहा है। प्रकृति का अपना मूल स्वरूप नष्ट होने से गरीब-दलित-किसान पर इसका दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा है। वही अब लाचार बन रही है। आज प्रकृति लाचार है।
सरकार को नीर, नारी और नदी की आवाज सुननी चाहिए। आज भी हम जलवायु परिवर्तन के शिकार है। शिकारी ने अभी हमें जलवायु परिवर्तन शरणार्थी घोषित नहीं किया है। यह हमारे लिए शुभ है। जबकि दुनिया में अब जो नीर(जल संकट) से ग्रसित होकर अपना देश छोड़कर यूरोप के शहरों में जा रहा है, उसे जलवायु घोषित कर देते है। अभी भारतीयों को जलवायु शरणार्थी नहीं कहते है। लेकिन जल्द ही इस श्रेणी में आ सकते है। प्रकृति, नारी का शोषण तो हमारे देश को दुनिया में बहुत बदनामी पा चुका है। अब नदियों की भी बहुत बदनामी चारों तरफ सुनने को मिल रही है। अभी समय है कि, नीर, नारी और नदी की आवाज सुनकर इनके लिए सजगता और संवेदनापूर्ण कार्य आरंभ करे।
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भारतीय आस्था में मानवता और प्रकृति का बराबर सम्मान नहीं बचा है, इसलिए किसानी-जवानी-पानी की आवाज नहीं सुनी जा रही। भारत देश नीर-नारी-नदी का सम्मान करने वाला विश्व शिक्षक था। हमारा आचरण और व्यवहार कृतज्ञता से परिपूर्ण था। माँ जन्म देती, कष्ट सहती, लेकिन बदले में पैदा हुई संतान पर अतिक्रमण नहीं करती है। उसके स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखने का पूरा ख्याल रखती है। प्रदूषण से बचाती तथा शोषण भी नहीं करती है। आज लालची सरकार के द्वारा अतिक्रमण करने, सामाजिक संरचनाओं से लूट-फूट करने का विचार बहुत प्रबल हो गया है। जल का व्यारीकरण इसी विचार की देन है। सरकार जल का सम्मान समाज से छीन रहा है। जल, जंगल,जमीन पर अतिक्रमण करके बड़े उद्योगपतियों को दे रहे है।
अब राजनीति में प्रकृति और मानवीय मूल्यों का सम्मान नष्ट हो गया है। भारतीय राजनीति तो मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि मानकर, निर्मित संविधान से चलनी है। संविधान में प्रकृति और मानवता को बराबरी की संरक्षण व्यवस्था है। इस व्यवस्था को हमारे राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद भूल जाते हैं। कुछ वर्षों तक भारतीय राजनीति में इसका सम्मान करने वाली व्यवस्था को जीवित रखा था। अब अतिक्रमण करने वाले औद्योगिक घरानों का प्रभाव बढ़ गया है।
भारत को स्वावलंबी समृद्ध राष्ट्र निर्माण हेतु लालची विकास के नारे दिए गए। प्राकृतिक पुनर्जीवन के काम ही नीर-नारी-नदी का सम्मान करके काम करने वाली सरकार बनाने की बात भी हुई। प्रकृति तथा मानवता पर अतिक्रमण-प्रदूषण व शोषण करने वाली सरकार बनी। हमारी राजनीति में स्पष्टता, सरलता व सादगी की राह पर चलकर समृद्धि लाने के सभी वायदे झूठे निकले।
* लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं । प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं ।