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रविवार पर विशेष
रमेश चंद शर्मा*
गाँव में सनातन धर्म को मानने वालों के मध्य कुछ कुछ आर्यसमाज का प्रभाव साफ नजर आता था।गाँव में मन्दिर छोटे छोटे थे मगर श्रद्धा, विश्वास आस्था भरपूर थी। छुआछूत जैसे पाप के रहते, लोग इंसान को आदर सम्मान देते थे। परस्पर संबंध ज्यादा गहरे थे। एक दुसरे के बिना काम नहीं चलता, परस्परावलंबी व्यक्ति, समाज था। मतभेद, ऊँच नीच, छोटा बड़ा, गरीब अमीर, खरा खोटा, लडाई झगड़े, मारपीट के होते हुए भी समाज के तार अंदर से कहीं जुड़े रहते थे। गाँव बिरादरी अपनेपन का भाव, हमारे गाँव का है, हमें साथ रहना है, साथ जीना है, साथ मरना है की बात भुला नहीं पाते थे। व्यक्ति से बडा गाँव का मान माना जाता। फिर भी इसे सर्वगुण संपन्न समाज तो किसी भी तरह से नहीं ही कह सकते थे, अनेक बातें थी जो समाज का कोढ़ बनी हुई थी। संपर्क, संवाद, संबंध, संवेदना के बावजूद समाज एक नहीं नजर आता था।
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मानव से मानव का भेद कदम कदम पर अहसास करवाता, रोटी बेटी की बात तो दूर, भाईचारा, समता, साथ खाना, साथ बैठना मंजूर नहीं। हाँ, अपनी स्वार्थ पूर्ति, भोग के लिए किसी हद तक गिरने की तैयारी, तब सब अंतर क्षणिक समय के लिए कहीं गायब हो जाते। छुआछूत भी याद नहीं रहता। शारीरिक संबंध भी पाप नजर नहीं आता। भोग के बावजूद अपने को पवित्र मानने वाले लोग समाज में मौजूद रहे है।
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हमारे गाँव में दाई के काम की विशेषज्ञ श्रीमती शोभा ताई थी। जो निम्न मानी गई हरिजन जाति से आती थी।अनपढ़, बेपढ़ी लिखी, गंवार, अछूत, छू जाए तो नहाना पड़ता, मगर जापे के समय प्रत्येक परिवार में उनको ससम्मान, आदर के साथ बुलावा देकर बुलाया जाता। उस समय वह चौके चूल्हें तक को पारकर घर में प्रवेश करती तो किसी को कोई रुकावट नहीं लगतीI इसमें पंडितों के घर भी शामिल थे। गांव में उसने कितने बच्चों की नाल काटी होगी।
अपना मतलब निकलने के बाद वह फिर से अछूत बन जाती, मानी जाती। उसका घर के अंदर ही नहीं पोली, आंगन मे भी प्रवेश वर्जित हो जाताI उसको कुछ लेना है तो दूर खड़े होकर आवाज लगानी पडती। इसे समाज का दोगलापन नहीं तो क्या कहा जाए। मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं, समय समय की बात, बेहूदे नियम।इसे बदलने की जरूरत है। तू खुद को बदल, तू खुद तो बदल, तब तो जमाना बदलेगा। आज भी किसी ना किसी रूप में यह समाज में अंदर तक बैठा हुआ है। बदला नहीं, बदलाव चाहिए। आमूलचूल चाहिए।लगभग सभी क्षेत्रों में चाहिए।
एक यह भी शिक्षा
प्राथमिक शिक्षा पांचवीं कक्षा के बाद जो बच्चे पढाई में कमजोर रहते। उनको क्या तो किसी काम धंधे, खेती बाड़ी में लगाने की बात होती। या फिर जो निजी नौकरी पेशा की बात सोचते उनको पंडित जूथा राम की पाठशाला में भेजने की तैयारी की जाती। जहाँ मुनीमी मुंडी, हिसाब किताब, बही खाता, लाला लोगों की भाषा सिखाई जाति थी। नारनौल में इनका नाम बड़ा चलता था। यहाँ हमारे गाँव के भी कुछ बच्चे पढने जाते थे। इनका पढाने का अपना ही ढ़ंग था। गुरु सेवा को यहाँ कुछ ज्यादा ही महत्व दिया जाता था।पंडित जी कहें वाही कानून। इनके पढाये हुए मुनीम हमारे गाँव में भी थे। यह भी एक शिक्षा प्रणाली रही है। इस भाषा में मात्राओं का बहुत ही कम उपयोग किया जाता है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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