विशेष स्तम्भ : किसानों की आवाज़ – 1
– राजकुमार सांगवान
नए कृषि कानूनों के औचित्य पर सवाल
झोझूकलां (हरियाणा): कोविड-19 जैसी विश्वव्यापी महामारी से हमारा देश भी अछूता नही रहा है। भारत जैसा विशाल आबादी वाला देश भी गम्भीर संकट काल, संक्रमण काल, आर्थिक मंदी और बेरोजगारी की चपेट में आ गया है। महा संकट काल के इस दौर में कृषि क्षेत्र ही एक मात्र साधन ऐसा रहा है, जिसने देश की अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाया है।
भय के इस वातावरण में 5 जून 2020 को सरकार कृषि सम्बन्धी तीन अध्यादेश लेकर आ गई। फिर सितम्बर 2020 में दो नए कृषि अध्यादेश और एक संशोधन बिल लेकर आ गई। सामान्यतः अध्यादेश उस स्थिति में लाये जाते हैं जब ऐसा करना राष्ट्रहित में बहुत आवश्यक हो और देश गम्भीर आपात स्थिति से गुजर रहा हो, जिसके चलते संसद का सत्र बुलाना असम्भव हो। भले ही हमारा देश महामारी के चलते संकट के दौर से गुजर रहा था मगर आपातकाल जैसी गम्भीर स्थिति नहीं थी और न ही इन कानूनों की आवश्यकता थी।
देश के 18 राज्यों में लगभग 600 किसान संगठन सक्रिय हैं जो समय समय पर किसानों की समस्याएं उठाते रहते हैं। अनेकों विद्वान कृषि विशेषज्ञ अपने आलेख और सुझावों के माध्यम से कृषि क्षेत्र की समस्याओं और किसानों की दुर्दशा का वर्णन करते रहते हैं। इन अध्यादेशों के लाने से पहले सरकार ने किसी से भी कोई विचार विमर्श नहीं किया। सरकार बार-बार दावा कर रही है कि यह कानून किसानों के हित में हैं, उनको आजादी मिलेगी और आय दोगुनी होगी। जबकि सभी किसान संगठन और कृषि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह किसान विरोधी हैं और इनके व्यापक दुष्परिणाम सामने आएंगे।
पंजाब के किसान निरन्तर आन्दोलनरत हैं, हरियाणा भी अछूता नहीं रहा है। देश के अनेकों भागों में विरोध के स्वर जोर पकड़ने लगे हैं। यहाँ तक कि आर एस एस से जुड़ा भारतीय किसान संघ भी अपना विरोध जता चुका है। 22 सितम्बर को प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री के नाम लिखे अपने पत्र में किसान संघ ने इन कानूनों पर आपत्ति जताई है और पुनर्विचार करने का आग्रह किया है।
देश के संविधान में संशोधन व नए कानून होते बनते रहे हैं। आमतौर पर किसी वर्ग विशेष अथवा समूह की ओर से ऐसा करने की मांग उठाई जाती है। आन्दोलन होते हैं, राजनीतिक पार्टियां समर्थन देती हैं, उनकी मांगो को पूरा करने का वादा करती हैं। चुनाव घोषणा पत्रों में स्थान मिलता है। संसद में मांग उठाई जाती है। पक्षकार संगठनों के प्रतिनिधियों से विचार विमर्श होता हैं। अध्ययन के लिए आयोग व समितियों का गठन किया जाता है। रिपोर्ट आने में वर्षों लग जाते हैं। फिर संसद में बिल लाया जाता है, लोकसभा और राज्य सभा में बहस होती है। बहुमत के बल पर लोकसभा में पास भी हो जाता है तो राज्य सभा में संख्या बल न होने के कारण पारित नहीं हो पाता। ऐसा अनेकों बिलो के साथ अनेकों बार हुआ है।
लोकसभा में सरकार के पास बहुमत था मगर राज्य सभा में विपक्ष के बार-बार चर्चा और मतविभाजन के आग्रह को दरकिनार करते हुए ध्वनि मत से पारित कर लिए गये। वर्तमान में पारित दो नए कृषि कानून-“कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020” और “कृषक (सशक्तिकरण और संरक्षण)मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा पर अनुबंध अधिनियम 2020” ।
मण्डी के आढ़ती और किसान का वर्षों पुराना संबंध रहा है। सरकार समयानुसार इस व्यवस्था में आवश्यक नियम बनाती रही है। मार्केट कमेटी की स्थापना भी इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है। वर्ष 1996 में प्रथम बार न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया गया था जो प्रतिवर्ष बढ़ाया भी जाता रहा है। मार्केट कमेटी, आढ़ती और किसान के परस्पर समन्वय से किसान संतुष्ट था। यद्यपि यह व्यवस्था भी पूर्ण रूप से दोष मुक्त नही है। किसान के शोषण और अनियमितताओं की संभावना सदा बनी रहती है। फिर भी वह परम्परागत मण्डी को अपनी कृषि उपज बेचने का उपयुक्त स्थान मानता है। अब तक केन्द्र सरकार ने कृषि उपज की बिक्री से सम्बंधित 2003 और 2017 में माॅडल एक्ट बनाये थे। राज्य सरकारों को अनके अनुसार अपने मार्किट कमेटी कानूनों में संशोधन करने को कहा जाता रहा है। अब तक कृषि उपज केवल उन मंडियों में बेची जा सकती थी जो राज्य सरकार की ओर से अधिसूचित की जाती थी। इनको व्यवस्थित रखने के लिए सरकार को टैक्स लगाने का अधिकार था। रजिस्ट्रेशन और लाइसेंस लेना अनिवार्य था। नए कानून ने एक ही झटके में राज्य की मंडियों का अस्तित्व समाप्त कर दिया।
नए कानून के अंतर्गत केवल पैन कार्ड के माध्यम से कोई व्यक्ति, कम्पनी अथवा फर्म कहीं से भी कृषि उपज खरीद सकेगी और कोई टैक्स भी नहीं देना पड़ेगा। इससे यह संकेत मिलना स्वाभाविक है कि सरकार धीरे-धीरे पंजाब, हरियाणा और कई अन्य राज्यों में न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त करना चाहती है। यही सिफारिश कृषि लागत और मूल्य आयोग पिछले कई वर्षों से अपनी रिपोर्टो में करता आ रहा है। शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट भी यही है। इसीलिए इस कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारन्टी नहीं दी गई। समर्थन मूल्य न मिलने पर किसान न्यायालय में चुनौती नहीं दे सकता। यह केवल प्रशासनिक आदेशों पर निर्भर रहेगा।
एक राष्ट्र, एक बाजार की अवधारणा के अंतर्गत नए कानून में बड़े व्यापारियों अथवा प्रायोजकों को पर्याप्त कानूनी अधिकार दिए गये हैं। किसान व खरीददार के बीच उत्पन्न विवाद के निपटारे के लिए सुलह बोर्ड की व्यवस्था दी है, जिसमें एस डी एम- डीसी आदि प्रशासनिक अधिकारी होंगे जो बड़ी कम्पनियों अथवा सरकार के हितों का ध्यान रखेंगे न कि किसान का।
यह कानून किसान-मजदूर, मण्डी व्यापारी, असंगठित क्षेत्र के कर्मी, मार्किट कमेटी के कर्मचारी व ट्रांसपोर्ट के क्षेत्र में बेरोजगारी बढ़ाने वाला है। गाँवों को मंडी तक सड़कों से जोड़ने का मार्केटिंग बोर्ड का निर्माण कार्य बंद हो जाएगा। इस कानून के अंतर्गत व्यापारियों और एफपीओ (किसान उत्पादक संगठन) को एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडी के बाहर से खरीद की अनुमति दी है और तीन दिनों के भीतर उपज की खरीद का भुगतान करने की बात कही गई है।
लगता है सरकार ने गन्ना किसानों के उदाहरण को ध्यान में नहीं रखा, जिन्हें 14 दिनों के भीतर भुगतान करने का वादा सरकार नहीं निभा पा रही है। इसके लिए किसानों को न्यायालय की शरण में जाना पड़ता है। तब जाकर साल डेढ़ साल में आधा अधूरा भुगतान हो पाता है। लेकिन इस कानून के अंतर्गत किसान न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटा सकता। देश के प्रधानमंत्री से लेकर, कृषि मंत्री और सरकार के सभी नेता कह रहे हैं कि देश के किसान को पहली बार आजादी मिली है। मगर यह स्पष्ट नहीं बता पा रहे कि सितम्बर 2020 से पहले किसान कौन सी बेड़ियों में जकड़ा था जिन्हें काटकर मुक्त कर दिया।
देश का किसान सदा से स्वतंत्र रहा है। वह अपनी उपज को कहीं भी बेचने के लिए ले जाता रहा है। जिन प्रदेशों में जो अन्न, दालें, फल और सब्जिया नहीं उगाई जाती वहां दूसरे प्रदेशों से यह वस्तुएं आती रहती हैं। राजस्थान और उत्तर प्रदेश का किसान हरियाणा की मण्डियों में अपनी पैदावार बेचता रहा है। स्थानीय मंडी से बाहर हजारों किलोमीटर दूर बन्दरगाहों तक जा कर अपनी उपज को बेच सकने की बात एक दम झूठ व भ्रामक है। हमारे देश में 86 प्रतिशत किसान पांच एकड़ से कम जोत वाले हैं, उनके पास न तो इतनी पैदावार है और न ही संसाधन। वह तो निकटतम मंडी तक भी नहीं पहुंच पाता। उसे सालभर की अपनी उधारी भी चुकानी होती है और घरेलू आवश्यकतायें भी पूरी करनी होती है। वह अपनी फसल अक्सर छोटे-मोटे स्थानीय व्यापारियों को खेत में ही बेच देता है। छोटा किसान सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य से हमेशा वंचित रहता है। बड़ा किसान भी अक्सर अपनी उपज को समर्थन मूल्य से कम रेट पर बेचने को विवश होता है क्योंकि सरकारी खरीद की प्रक्रिया बहुत धीमी और देर से शुरू होती है तथा भुगतान में भी महीनों लग जाते हैं। देश में मात्र 6 प्रतिशत किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिल पाता है। 70 प्रतिशत किसानों को इसकी जानकारी ही नहीं है।
दूसरा कानून अनुबंध आधारित खेती समझौते से सम्बंधित है। इसके बारे में भी कहा जाता है कि यह छोटे और सीमांत किसानों का जीवन बदल देगा। दो पक्षों के बीच अनुबंध आधारित काम में कमजोर पक्ष हमेशा घाटे में रहता है। यहां बड़ी कम्पनियों और छोटे किसान के बीच खेती करने के समझौते की बात कही जा रही है। यह खेती बड़ी कम्पनियों की शर्तों पर होगी। मुनाफा कमाने वाली खरीद एजेंसियां किसानों को मण्डी जैसी सुविधाएँ मुफ्त में प्रदान करेंगी यह सम्भव नहीं है। निश्चित तौर पर किसानों से अतिरिक्त सुविधा शुल्क वसूला जाएगा। उत्तर प्रदेश में गन्ना अधिनियम 1953 के अंतर्गत 40-50 हजार छोटे एवं सीमांत किसान गन्ना उत्पादक सहकारी समितियों के माध्यम से चीनी मिलों के साथ अनुबंध खेती कर रहे हैं। यद्यपि यह वैधानिक समझौता दोनों पक्षों द्वारा स्वीकृत व हस्ताक्षरित है, फिर भी भुगतान आमतौर पर न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही सम्भव हो पाता है।
लेकिन यह कानून तो न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से ही बाहर है। जब हजारों किसान मिलकर भी चीनी मिल मालिकों का मुकाबला नहीं कर सकते तो एक साधारण किसान बड़ी कम्पनी से कैसे लड़ेगा। कृषि मंत्री कहते हैं कि फसल में थोड़ी बहुत कमी के कारण भाव का नुकसान नहीं होने दिया जायेगा। मगर कानून के प्रावधानों में इसका उल्लेख कहीं नहीं है। इसके विपरीत कानून की धारा 6(2) खरीददार एजेंसी को फसल की नमी, चमक व गुणवत्ता को जांचने-परखने का अधिकार देती है। जो किसान के हित में नहीं है। यदि खराब फसल को भी पूरे भाव में खरीदना है तो निरीक्षण का अधिकार किस लिए दिया गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का जिक्र किसी भी कानून में नहीं किया गया है। इससे स्पष्ट है कि इसे धीरे-धीरे समाप्त किया जाना है।
सरकार ने व्यापारियों और प्रायोजकों को तो कानूनी सुरक्षा प्रदान कर दी। मगर किसानों के हितों की सुरक्षा और एम एस पी को जारी रखने के लिए प्रधानमंत्री को बार-बार जुबानी आश्वासन देने पड़ रहे हैं। किसान मंडी व्यवस्था अथवा छोटे व्यापारियों, आढ़तियों से तो लड़-झगड़कर, धरना-प्रदर्शनों के माध्यम से अपने हितों की सुरक्षा कर लेता है, मगर बड़े व्यापारिक घरानों से लड़ना उसके लिये आसान नहीं हैं क्योंकि यह लड़ाई असमान है।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि कोई किसान अपने प्रदेश से किसी दूसरे प्रदेश में अपना अनाज बेचने के लिये ले जा रहा है तो रास्ते में जांच-पड़ताल के दौरान उसे अपने को किसान होने का प्रमाण देना होगा। इसके लिए उसे अपनी जमीन के कागजात साथ लेकर चलना होगा या फिर पहले से इलेक्ट्राॅनिक तरीके से अपलोड करवा कर यह सिद्ध करना होगा कि सारी पैदावार उसी के खेत की है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह सुविधा बहुत कम उपलब्ध होती है।
उपरोक्त के अतिरिक्त एक अन्य तीसरा संशोधन विधेयक 2020 पारित किया गया है। वर्ष 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम पारित किया गया था, जिसमें आम आदमी के भोजन के रूप में प्रयुक्त होने वाले खाद्यान्नों- गेहूँ, चावल, दलहन, तेल, प्याज, आलू, टमाटर आदि का स्टाॅक रखने की सीमा तय की गई थी, उससे अधिक जमा रखना कानूनी अपराध माना जाता था। वर्तमान में किये गये संशोधन के बाद तय सीमा समाप्त हो गई और उक्त खाद्य सामग्री आवश्यक वस्तु नहीं रह गये हैं। इसलिए अब जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से इनकी आपूर्ति होने की सम्भावना नहीं है। इस प्रकार इन गैर आवश्यक वस्तुओं की खरीद की संभावना धूमिल है। जिसका अर्थ है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने पर भी उसकी उपयोगिता नही रह जाएगी। यह कानून बड़े व्यापारियों को किसानों की स्थिति का लाभ उठाने का अवसर देता है।
अब बड़े-बड़े गोदामों और कोल्ड स्टोरों के मालिकों व व्यापारियों को जितना चाहे उतना अनाज और फल-सब्जियों जमा रखने की खुली छूट मिल गई है। फलस्वरूप कृत्रिम कमी दिखाकर बाजार को नियंत्रित करना आसान हो गया है। वास्तव में यह कानून कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए लाये गये हैं। किसानों ने ऐसे कानूनों की कमी मांग ही नहीं की। किसान तो स्वामीनाथन रिपोर्ट के अनुसार सभी कृषि उपज का समर्थन मूल्य और खरीद की गारन्टी मांग रहा है।
*लेखक हरियाणा के झोझूकलां के एक किसान हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।