– डॉ. राजेंद्र सिंह*
सत्याग्रहियों का कोई-दोस्त-दुश्मन नहीं होता है
भारत गाँवों का गणराज्य है, 70 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और खेती करती है। हम जानते है कि, कोरोना के समय जब सारी अर्थव्यवस्था डूब रही थी, तब एक मात्र कृषि ऐसा क्षेत्र था, जिसने जीडीपी में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की थी। सरकार द्वारा नए कृषि कानूनों के लाने पर किसानों में एक आशंका का वातावरण बना है। ज़रूरी है कि लोगों को इन कानूनों के प्रति स्पष्टता आ सके कि क्या देश को इन तीन कानूनों की आवश्यकता थी? क्या ये देश के लिए ठीक हैं?
इन कानूनों को पास करने से पहले इन का ड्राफ्ट लोगों के पास रखना चाहिए था। उन पर बहस होनी चाहिए था। लेकिन जब पूरा देश अपने घर में बंद था, तब यह बिल पास किए है। जबकि किसी किसान संगठन ने या किसी किसान ने इस प्रकार के कानून की मांग नहीं की थी। जब किसानों ने इस प्रकार का कानून माँगा ही नहीं, फिर क्यों ये कानून उस पर थोपे जा रहे हैं ?
विचार किसी व्यक्ति, संस्था (वो कितनी भी बड़ी हो) का मोहताज नहीं होता। विचार प्रवाह असीम होता है। सीमाएं, बाधाएं तोड़कर आगे बढ़ जाता है। विचार मुख्य है, व्यक्ति, संस्था नहीं। इस सरकार ने इस बिल के बारे में लोगों से राय क्यों नहीं ली? यह असंवैधानिक है। किसानों को आशंका है कि ये नए कानून उद्योगपतियों व सरकार की बनाई योजना है कि किसानों की फसलों पर कब्जा कर लें। उन्होंने 3/7 हटा दिया, समर्थन मूल्य को हटा दिया, कोर्ट भी नहीं जा सकते। हम विदेशी मॉडल अपना रहे हैं लेकिन वहाँ की सब्सिडी को क्यों नजर अंदाज करेंगे? क्या ये क़ानून बिल कॉर्पोरेट सेक्टर ने बनाए हैं? पहले कानून में 1957 का एक्ट है और 3/7 को हटा दिया गया है। आवश्यक वस्तुओं में से गेहूँ, चावल, आलू, प्याज आदि को हटा दिया। जब देश पर कभी भारी विपदा आती है, तब सरकार पीडीएस के द्वारा भोजन वितरित करती है और किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है। एक कानून में कहते है कि आप जहाँ चाहो अपनी फसल बेच दो, जबकि किसान के पास न साधन है, न पैसा है, तो फिर कौन लेकर जाते थे? वह ठेकेदार व बिचौलिए लेकर जा रहे थे। जो 5 का लेकर 50 का बेचते थे। अब इनकी जगह एफपीओ बनाने के लिए कहा गया। अब सिर्फ अडानी-अम्बानी जैसे लोग सिर्फ पैन कार्ड देकर यह बना सकते है। इनके के लिए कोई बैंक गारंटी नहीं चाहिए और पहले पैसे भी नहीं देना, क्योंकि तीन दिन बाद पैसे देना है। यदि उन्होंने खरीद कर ली और वो वहाँ से चले गए, तब भी इस कानून के अनुसार आप कोर्ट भी नहीं जा सकते।
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किसानों ने अपनी तरफ से भंडारन हेतु श्रम से उत्पादन करके सरकार को दिया है। फिर भी 15-20 साल में चार लाख किसानों ने आत्महत्या की, कहीं न कहीं तो यह हमारे चिंतन का सवाल है । 2004 में इसी चिंतन को लेकर कमीशन फॉर फार्मर, जिसके एम एस स्वामीनाथन चेयरमेन थे, तब उनसे कहा गया कि, ऐसा क्यों हो रहा है? जो किसान देश को खिला रहा है, फिर आत्महत्या क्यों कर रहा है? उन्होंने अपने सुझाव दिए, उसमें से एक था कि किसान को अपनी मेहनत की भी कीमत नहीं मिलती है और उसकी कीमत, उसकी लागत के साथ-साथ, 50 फीसदी उसको मुनाफा होना चाहिए। लेकिन वह रिर्पोट किसी ने भी लागू नही की।
यह कानून खुला बाजार के लिए लाया गया है। यह कोई आत्मनिर्भरता की बात नही है। चुनाव के समय लगभग सभी पार्टियों ने कहा कि किसान आत्महत्या रोकने के लिए कुछ करेंगे, लेकिन किया कुछ भी नहीं। स्वामीनाथन की रिर्पोट और सिफारिशों के आधार पर बिल की पालना नहीं हुई। वर्तमान में कोई भी समर्थन मूल्य हो नही दिया जाता है। क्योंकि वो न देने वाले व्यापारियों पर भी कोई सजा का प्रावधान नहीं है। किसानों के हालत सुधारने के नाम पर जो तीन कानून लाये गए उनका मुख्य उद्देश्य औद्योगीकरण करना हैं । इस कानून के अनुसार यदि कोई विवाद होता है, तो कोर्ट भी नहीं जा सकते, सिर्फ एसडीएम के पास ही जा सकते है। हमें क्या जरूरत है कम्पनियों को लाने की? सरकार से पांच बार वार्ता करने के बाद भी सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया है। इस कानून से सिर्फ जमाखोरी बढ़ेगी।
अब सरकार जिद पर अड़ गयी है कि यह तीन बिल वापस नहीं होंगे। जबकि किसान कह रहा है कि, जब तक यह बिल वापस नहीं होते तब तक हम वार्ता नहीं करेंगे। अब हमें बीच का रास्ता निकालना होगा। सिंह के अनुसार यह तीनों कानून काले है। सरकार को अपनी सदबुद्धि नही आ रही है। कानून वापस भी ले, तो उतना फर्क नहीं पड़ता लेकिन सिर्फ एमएसपी फसल खरीदी की गारंटी का कानून बना दे बस, तो अपने आप फसलों का पूरा दाम मिलने लगेगा।
यह सरकार बार-बार किसान को निराश कर रही है। सरकार को स्वामीनाथन कमेटी के विचारों की पालना करना चाहिए।यदि सरकार लिखित एमएसपी दे दे तो शायद किसान सरकार से बात कर लेगा। लेकिन यह सरकार तो उनमें भी फूट डालने का काम कर रही है। इस कानून से अपराध बढे़गा। न यह देश के पक्ष में है और न ही किसान के पक्ष में है। यह काला कानून है। इसे रद्द होना ही उचित है। 2018 में एक बिल किसान नेताओ, आंदोलनकारियों ने सरकार को दिया था। जिस पर तो शायद विचार भी नहीं हुआ। जो स्वामीनाथन की बातों को कहता था।
एक बात और कि महिलाओं की किसानी में पहले भी हकदारी बहुत कम है, जबकि वह किसान और किसानी दोनों को जन्म देती है। इसलिए किसानी पर पहला हक उन्हीं का बनता है। लेकिन अब इन नए कानून के कारण किसानी-जवानी-पानी और उत्पादन का ठीक दाम मिलने के प्रति संशय हो गया हैं।ठीक दाम न मिलने के कारण अब बहुत किसान और उनके परिवार उजड़ जायेंगे और कम्पनियों का हक हो जायेगा, ऐसा एक डर किसानों में पैठ गया है।
इतने दिनों से किसान दिल्ली में 4 डिग्री तापमान में भी खुले में सो रहे है। वह बड़ी तपस्या कर रहे है। कितना अनुशासन से वह यह तपस्या कर रहे है। मैं इस आंदोलन को ‘‘सत्याग्रह’’ के रूप में देख रहा हूँ। सत्याग्रहियों का कोई-दोस्त-दुश्मन नहीं होता है। किसानों की बात सरकार को मान लेनी चाहिए। सरकार कानूनों को रद्द करे। संवैधानिक-लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा किसानी-जवानी के हित में नया कानून बनाये। सरकार को सोचना चाहिए कि, किसी कारण से हिंसा न भड़क जाये। यदि कोई अपनी बात शांति से आदर से रखते है, तो उनको आदरपूर्वक सरकार को बात सुननी चाहिए।मरना, मारना, हिंसा ऐसे कदम कृपया कोई भी नहीं उठाए, इससे कोई भी आंदोलन कमजोर ही होता है। अति वर्जते। देश, किसान मजदूर कारीगर श्रमिक कामगार अन्नदाता के लिए मरना नहीं खुद भी जीना है और उनको भी जिंदा रखना है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यह लेख दिनांक 16 दिसंबर 2020 को समन्वयों का समन्वय, सर्वोदय समाज, भारत पुनर्निर्माण और जलबिरादरी द्वारा आयोजित ‘‘किसान कानून साक्षरता’’ वेबिनार में हुए सम्बोधनों पर आधारित हैं। इस वेबिनार में देशभर से कानून के जानकारों, आंदोलनकारियों, पर्यावरणविदों, गांधीवादी नेताओं जैसे एस. एन. सुब्बाराव, जलपुरुष डॉ राजेन्द्र सिंह, सरदार बी.एम.सिंह, मेधा पाटकर आदि ने भाग लिया था।