शिवनाथ झा*
पटना के गाँधी मैदान से अशोकराज पथ रास्ते रानीघाट तक कई सैकड़ों वर्ष पुराने बरगद-पीपल के पेड़ थे। परन्तु, चाहे बुजुर्ग पेड़ हो या बुजुर्ग माता-पिता; अगर उन्हें उस उम्र में भी अपने संतानों को कहना पड़े की उन्हें क्या चाहिए, वे अपने जीवन की इन लम्हों को कैसे जीना चाहते हैं तो उस शिक्षा का क्या महत्व? उस शिक्षित व्यक्ति का क्या वजूद जो उसका सन्तान है चाहे बेटी हो या बेटा – विचार जरूर करें।
वर्तमान समाज की मानसिकता के बारे में तो आप सभी ज्ञानी-महात्मा हैं ही, प्रत्यक्षदर्शी भी हैं और अनुभव कर्ता भी; लेकिन साठ के दशक के मध्य से अस्सी के दशक के अन्त तक, कोई पच्चीस + वर्षों में पटना को जो मैं देखा, महसूस किया और वह मुझे जाना, आज भी दोनों के मानसिक पटल पर कभी नहीं मिटने वाली लकीरों, तथ्यों के रूप में उल्लेखित है। यही कारण है कि विगत दिनों जब हमारा उस ज़माने का सबसे प्रिय मित्र, शरण देने वाले वृक्ष का पार्थिव शरीर पटना के अशोक राजपथ पर गिरा, तो उन वृक्षों के बारे में हाल-चाल लेना जरुरी हो गया जो उसके हम-सफर थे, और मेरा अपने जीवन-यात्रा के प्रारंभिक दिनों में हाथ थामा था।
सन 1968- से 1975 तक पटना के गाँधी मैदान से पटना विश्वविद्यालय के अन्तिम छोर , यानि पटना लॉ कालेज होते हुए, रानी घाट तक कोई 280 लोगों के घरों में मैं अखबार डालता था। आज भी मेरी तरह भारत में अनेकानेक अखबार बेचने वाले लोगबाग होंगे। लेकिन, आज ब्रह्म-स्थान स्थित 150+ वर्ष पुराने पीपल वृक्ष के गिरने से पटना के गाँधी मैदान से रानी घाट तक, वे सभी वृक्ष मानस पटल पर तैरने लगे, जैसे कह रहे हों – “यशुभाई !!! मैं भी था !! मैं भी आपकी उस जीवन-यात्रा का चश्मदीद गवाह हूँ।”
मैं दिल्ली में होते हुए भी उन दिनों रास्तों में स्थित लगभग सभी पेड़ों से पिछले 96-घंटों से वार्तालाप कर रहा हूँ। पुरानी बातों को यादकर मुस्कुरा रहा हूँ। मुझे नहीं मालूम आपको अपनी जीवन यात्रा शुरू करते समय के कौन-कौन पेड़ याद है जिसने आपको चिलचिलाती धूप में या मुसलाधार बारिश में मदद किया था। खैर।
आइए, आपको एक यात्रा पर ले चलते हैं। पटना के गाँधी मैदान से अपनी 22-इंच की साईकिल के आगे हैंडिल पर और पीछे कैरियर में जब 280 अख़बारों को लेकर (उम्र के साथ क्रमशः) अपने गंतव्य की ओर प्रात: मंदिर में घंटी बजने या फिर मस्जिद में अज़ान पढ़ने या गिरिजाघरों में घंटा बजने या गुरुद्वारों से वाहे गुरूजी का आवाज आने से पहले सर्वप्रथम डॉ एस के बोस, तत्कालीन प्राचार्य, बी एन कालेज के घर पर पांच अखबार – आर्यावर्त, इन्डियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप और जनशक्ति देने रुकता था, तो साइकिल को सहारा देने हेतु उनके घर के मुख्य द्वार पर, सड़क के दाहिने तरफ वह विशालकाय नीम का वृक्ष विराजमान रहता था । जैसे उसे मेरी समय-सारिणी पता हो। और हो भी कैसे नहीं – आखिर पटना विश्वविद्यालय के एक विख्यात महाविद्यालय के प्राचार्य के देख-रेख में पला-बढ़ा था न। उस ज़माने में शिक्षकों का शैक्षिक-आध्यात्मिक चरित्र भी बहुत मानवीय होता था, संवेदनशील होता था। वहां अखबार देकर, इस नीम के वृक्ष को मुस्कुराकर धन्यवाद देते आगे निकल जाता था।
बी एन कालेज परिसर के बाद सड़क पर महामहिम कुत्तों को नमस्कार करते आगे बढ़ते जाता था। उस दिनों भी वहां कुत्ते थे, आज भी भरे पड़े हैं। हाँ, बदलाव इतना अवश्य हुआ है कि उन दिनों कुत्तों को मालिक-मालकिन की गोद में खेलने-खाने-सोने का अवसर नहीं के बराबर था। खैर मुझे क्या।
आगे बढ़ते साइकिल महेन्द्रू घाट की ओर स्वतः मुड़ जाती थी। एक चाय वाले मेरे ग्राहक थे। कोई 35+ वर्ष के रहे होंगे। वे एक मिस्त्री भी थे। वे प्रदीप अख़बार मुझसे लेते थे। उन दिनों पांच नए पैसे दाम थे प्रदीप अखबार के। हमारी मुलाकात एक दिन सुबह सुबह बस अड्डे पर हुयी थी जब वे डाल्टेनगंज वाली बस लेने वहां आये थे। मुझे देख वे अखबार ख़रीदे और नित्य एक अखबार देने को कहा – वे इसलिए हमसे आकर्षित हुए क्योंकि मैं पटना के टी के घोष अकादमी में पढ़ता था और उनका बेटा मिलर स्कूल में।
उनकी दूकान सड़क के दाहिने तरफ थी। यहाँ कोई छः-सात विशालकाय नीम और पीपल के वृक्ष थे । नीचे मोटर-गाड़ियों के लिए मिस्त्री की दुकानें। यहीं लड़कियों के लिए एक विख्यात स्कूल है – संत जोसेफ़ कान्वेंट। इस स्कूल से और इन पेड़ों के छाया तले न जाने कितने हज़ार-लाख पटना की छात्राओं अपनी भविष्य के सपने संजोये होंगे ।
महेन्द्रू घाट से विश्वविद्यालय की ओर जाने वाली सड़क अशोक राजपथ पर पटना चिकित्सा महाविद्यालय परिसर तक वृक्षों की संख्या सड़क पर नहीं के बराबर थी। हाँ, चिकित्सा महाविद्यालय परिसर में अधिकाधिक पेड़ थे – मूलतः नीम, बरगद और पीपल का। इस परिसर के अंदर चिकित्सकों द्वारा अपने-अपने आवासीय परिसर में आम, लीची, निम्बू, केला, इत्यादि के पेड़ लगाए गए थे।
चिकित्सा महाविद्यालय से आगे जब निकलता था को बिहार यंगमेंस इंस्टीच्यूट के सामने सड़क के दाहिने तरफ मुझे अपने स्कूल के एक शिक्षक श्री राम नरेश झा साहेब को चार अखबार देने होते थे। ये जिस मकान में रहते थे वह दवाई का एक गोदाम था। इस मकान के ठीक सामने, यानि सड़क की बायीं ओर बिहार यंगमेंस इंस्टीच्यूट के प्रवेश द्वार पर एक नीम का पेड़ था। इसी नीम के पेड़ के नीचे एक छोटा सा मंदिर भी था।
चूँकि उन दिनों मंदिरों का व्यापारी करण नहीं हुआ था, धर्म के नाम पर आस्था का बंटवारा नहीं हुआ था – क्योंकि इस मंदिर में समाज के सभी वर्गों के लोगों को, उनके बच्चों को नमन करते देखता था जो आगे या तो पढ़ने के लिए जाते थे या फिर यंगमेंस इंस्टीच्यूट में टेबुल-टेनिस खेलने।
उस ज़माने में लोग खेल को खेल भावना से ही खेलते थे। खैर, यहाँ भी मेरी साइकिल की रक्षा महामहिम नीम का वृक्ष ही करता था। सड़क से दाहिने सडकों पर, जहाँ पचासो ग्राहक मेरे थे, छोटे-मोटे पौधों या वृक्ष नहीं के बराबर था , सिवाय, खजान्ची रोड के तिमुहानी पर जहाँ एक रास्ता अशोक राजपथ की ओर निकलती थी, एक बी एम दास रोड के तरफ और एक नया टोला के लिए।
जो रास्ता नया टोला जाता था, इस तिमुहानी से कोई पांच सौ कदम पर एक महान व्यक्ति के जन्मभूमि को नित्य नमन करता था – पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्य मंत्री श्री विधानचन्द राय साहेब के जन्मस्थान को। राय बाबू टी के घोष विद्यालय में ही पढ़े थे और मैं भी उन्ही के उसी स्कूल में। इस तिमुहानी पर विशाल पीपल का पेड़ था और वृक्ष के नीचे पवन पुत्र हनुमान जी का मंदिर।
खजांची रोड जब अशोकराज पथ से मिलता था, सामने ख़ुदा बक्श पुस्तकालय के पास भी नीम का एक विशाल बृक्ष था। इसके बाद अशोकराज पथ पर पटना कालेज के मुख्य द्वार से 20-कदम पहले ब्रह्म-स्थान में ही पीपल का पेड़ था जो विगत दिनों अपने अस्तित्व को उखाड़कर फेंक दिया। यह पेड़ सन 1974 आंदोलन का चश्मदीद गवाह था। यह जानता था की तत्कालीन नेताओं ने छात्र-छात्राओं के एक विशेष वर्ष को, जो प्रदेश-देश की राजनीतिक पार्टियों से सम्बन्ध रखते थे, को बरगलाया है, उकसाया है – स्वहित के लिए। इस क्रांति को जयप्रकाश नारायण नेतृत्व कर रहे थे।
जय प्रकाश नारायण के “सम्पूर्ण क्रान्ति” के गर्भाधान से बिहार में कुकुरमुत्तों के तरह राजनेता पैदा लिए, मन्त्री बने, मुख्य मंत्री बने। पटना के सर्पेन्टाइन रोड से दिल्ली के राजपथ तक लोगों ने बिहार के लोगों को बरगलाया। बिहार की जनता को बरगलाते हुए, कोई खेतीहर मजदूर से बिहार की सम्पूर्ण जमीनों के मालिक बन बैठे, तो कोई किसी सरकारी आउट-हॉउस से दिल्ली-कलकत्ता-मुंबई-चेन्नई-का
उन कुकुरमुत्तों जैसे राजनेताओं की ”कहनी-करनी” में फर्क को बर्दाश्त नहीं कर सका वह पेड़ । मनुष्य तो मनुष्य – क्या गरीब, क्या निरीह, क्या अस्वस्थ, क्या अशिक्षित, क्या नंगे, क्या भिखमंगे समाज के सभी तबकों के लोगों को पिछले कई दशकों से ये राजनेतागण धोखा देते आ रहे है, यह पेड़ बर्दाश्त नहीं कर सका उन असहाय लोगों की पीड़ा। इस पेड़ और पेड़ के नीचे “ब्रह्म” को साक्षी मानकर पाटलिपुत्र के लोगों से कई हज़ार-लाख वादे किये थे ये नेतागण, कितने सपने दिखाए थे – परन्तु किसी भी वायदे को पूरा नहीं कर सके। अन्ततः यह पेड़ अपना अस्तित्व मिटा देना ही श्रेयस्कर समझा। कल तक लोगों की इच्छाएं -आकांक्षाएं पूरा होते देखने की आस को जमीन से कोई 100-फीट ऊंचाई से अपनी नजर से दशकों से देखता रहा; विगत दिन स्वयं को जमीन पर लाना श्रेयस्कर समझा – आज की पीढ़ी इस पेड़ के दर्द को नहीं महसूस कर सकती है।
ब्रह्म स्थान पेड़ की छाया में पला-बड़ा हुआ हूँ। सबसे पहले इस पेड़ से रूबरू हुआ था अपने बाबूजी के साथ जब वे इसी पेड़ के छाँह तले “बुक सेन्टर” नामक पुस्तक दूकान में कार्य करते थे। साल सन 1965 था। यह दूकान उस समय दास स्टूडियो के बगल में था। बाद में एक और किताब की दूकान थी। फिर खाली स्थान और उसके बाद टी के घोष अकादमी। उस दिन मुझे तनिक भी एहसास नहीं हुआ की आज जिस पेड़ के नीचे खड़ा हूँ, इसने सभी दृष्टिकोण से मुझे अपने शरण में ले लिया है। तभी तो मैं अपने जीवन का बहुमूल्य समय इस पेड़ के सान्निध्य में बिताया। इसके जड़ से कोई 200-कदम पर लिफ्ट चलाया नोवेल्टी एंड कंपनी में, इसी सड़क पर वर्षों अखबार बेचा। जब भी मन में कोई कौतुहल, बेचैनी होती थी , इस विशाल पीपल के पेड़ के नीचे बने एक छोटे से बरामदे पर बैठकर बजरंगबली से, ब्रह्म से अन्तःमन से बातचीत जरूर करता था। समय सभी घाव को भर देता है, ब्रह्म और बजरंगबली भी हमेशा मेरे जीवन के सभी बिघ्न-बाधाओं को हरते गए।
बिहार ही नहीं, विश्व के किसी कोने में अगर कोई भी व्यक्ति रहते होंगे और वे पटना कालेज या पटना विश्व विद्यालय के छात्र-छात्राएं रहे होंगे; इस ब्रह्म-स्थान को देखे ही होंगे। आज से कोई 157 वर्ष पूर्व 9 जनबरी, सन 1863 में स्थापित पटना कालेज का मुख्य द्वार अशोक राज पथ पर खुलता है तो दाहिने हाथ, करीब 20-कदम पर सड़क के बीचोबीच यह पीपल का पेड़ था जिसके नीचे ब्रह्म थे। आज तक किसी ने भी इस पीपल के पेड़ की एक टहनी भी तोड़ने/काटने की हिम्मत नहीं की थी ।
पटना कालेज से संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा, राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, दूसरे मुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिन्हा, हिंदी साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर, प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार, सीबीआई के पूर्व निदेशक त्रिनाथ मिश्रा जैसे होनहार छात्र निकले हैं। अपने ज़माने में यह कॉलेज शिक्षा का लाइट हाउस था। यह ब्रेन कैपिटल था। पड़ोसी राज्यों से ही नहीं बल्कि हिमालयी क्षेत्रों से भी लोग उस समय यहां पढ़ने आते थे। बात सत्तर की दशक की है, यानि सन 1974 का आंदोलन ।
यहाँ से मेरी साइकिल पटना कालेज परिसर में प्रवेश लेती थी परिसर में स्थित आवास में रहने वाले छात्र-छात्राओं को अखबार देने। कालेज में प्रवेश के साथ मुख्य द्वार पर स्थित सुरक्षा-कर्मी के लिए बने कमरे के सटे पीछे दो विशालकाय पीपल पेड़ हुआ करते थे । जिसमें एक पेड़ की टहनियां ब्रह्मस्थान के पेड़ की टहनियों से 24-घंटे मेल-मिलाप करती थी। दुख-दर्द बांटती थी। यह छोटा मैदान हुआ करता था।
कालेज में प्रवेश के साथ जो सड़क आगे जाती थी वह मुख्य खेल मैदान के दाहिने कोने पर, जहाँ रास्ता अंग्रेजी विभाग की ओर निकलता था, दो बुजुर्ग पीपल के वृक्ष थे। अंग्रेजी विभाग के तरफ जाने वाले रास्ते पर भी दो और पीपल के वृक्ष थे, जो पटना कालेज की स्थापना के बाद लगे थे।
सीधी जाती सड़क, जो पटना कालेज के प्रशासनिक भवन के तरफ जाने वाली सड़क पर बाये तरफ दो और पीपल के पेड़ थे जहाँ आम-तौर पर छात्र-छात्राओं का जमघट होता था।
वजह भी थी – एक तो छात्रों के लिए “व्यायामशाला” और छात्राओं के लिए “मुख्य कॉमन-रूम” – दूसरा कॉमन-रूम अंग्रेजी विभाग के तरफ था। यहाँ से, यानि पटना कालेज परिसर के इस स्थान से पेड़ों का सिलसिला शुरू होता था – विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, जिसमें पीपल, बरगद तो था ही, आम, लीची, जामुन, बेर, कदम, पलास इत्यादि के बड़े-बड़े पेड़ थे।
हमारी यात्रा यहाँ से कृष्णा घाट स्थित प्राध्यापकों के आवासों से, लड़कियों छात्रावास होते हुए पटना साइंस कालेज के रास्ते, इंजीनियरिंग कालेज, लॉ कालेज होते रानी घाट तक होती थी। पेड़ों की उपस्थिति पटना कालेज परिसर से रानीघाट तक थी। इसमें नए पेड़ों को छोड़कर, जिनकी आयु 40- वर्ष से 70 वर्ष रही होगी ; अधिकांश पेड़ 200+ वर्ष पुराने थे। वजह भी था – गंगा तट पर स्थित होना, जमीन का नमी होना। कहते हैं न – ऊंचाई प्राप्त करने के लिए जड़ को जमीन के अंदर, बहुत अंदर रखना होता है।
परन्तु तकलीफ इस बात की है कि अपने अंकुरण से पौधा – पेड़ – वृक्ष बनने के दौरान किसी ने कभी इसका सुध नहीं लिया। ये सभी वृक्ष प्राकृतिक चरित्र से इतने सबल थे, की कभी किसी की इन्हें जरुरत भी नहीं हुयी । लेकिन आज के लोगबाग सोचते हैं “कभी इसने बताया नहीं क्या चाहिए इसे” – अब उन्हें कौन समझाए की जो माता-पिता अपने संतानों को जन्म देती है, पालती-पोसकर बड़ा, शिक्षित करती है; अब अगर उन शिक्षित संतानों को भी कहना ही पड़े की बुजुर्ग माता-पिता को क्या चाहिए ? तो उस शिक्षा का क्या महत्व? उस शिक्षित व्यक्ति का क्या वजूद ?
विचार जरूर करें।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं