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जनता की आवाज़
– प्रशांत सिन्हा*
सरकार ने घोषणा किया कि कोयला खनन का निजीकरण किया जाएगा। जिससे कोई भी देशी या विदेशी कम्पनी कोयला खनन का आवेदन कर सकती है तथा उस कोयले को खुले बाज़ार अपने लाभ के लिए भेज सकती है। अभी तक कोयला खनन का अधिकार केवल सार्वजनिक सरकारी कम्पनियों तक ही सीमित था। मोदी सरकार कोरोना संकट से देश को उबारने के लिए और भारत को आत्मनिर्भर बनाने के प्रयास तो शुरू कर दिए हैं पर साथ ही यह भी ज़रूरी है कि किसी भी देश की सरकार को अपना रास्ता चुनने के पहले अपनी जन, ज़मीन, जल, जंगल और जानवर अर्थात पूरी पर्यावरण की चिंता करनी चाहिए। विकास ज़रूरी है किंतु वैसी विकास नहीं जिससे विनाश हो।
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सरकारों को सुनिश्चित करना होता है ख़राब आर्थिक स्थिति की हालत में कौन से क़दम उठाए जाएँ जिससे लोगों को रोज़गार मिल सके। क़ानूनों में कहाँ कहाँ परिवर्तन हो जिससे राजनीति और अर्थव्यव्स्था का भारतीय स्वरूप उभरे और आम आदमी की ज़रूरतें पूरी कर सकें। इन्हें देखते हुए ही शायद मोदी सरकार ने खनिज क़ानून ( संशोधन ) 2020 के तहत बड़ा बदलाव किया है।
आख़िर सरकार को ऐसे विधेयक की ज़रूरत क्यों पड़ी ?
सरकार का कहना है की अब तक कोयले का आयात होता था जबकि देश में प्रचुर मात्रा में कोयले का भंडार है। देश इस विधेयक के आने से निर्यात कर सकेगा। मोदी ने कहा कि हमारे देश में दशकों से कोयला क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा से बाहर रखा गया था। उन्होंने कांग्रेस पर इल्ज़ाम लगते हुए कहा कि कांग्रेस सरकार देश ने बंद पड़ी खदानों को लूटती थी। अब कोयला कोयला क्षेत्र में निवेश से हमारे ग़रीब और आदिवासी भाई बहनों के जीवन को आसान बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाएगा . 41 ब्लॉक के आवंटन पर 5 से 7 वर्षों में 33 हज़ार करोड़ का निवेश होगा जिससे 2 लाख 80 हज़ार नौकरी का सृजन होगा और इससे 20 हज़ार करोड़ का राजस्व मिलने की सम्भावना है।
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जो सरकारी कम्पनियों को कोयला खदानें आवंटित की गयी थीं उन्होंने निजी कम्पनियों को एम डी ओ (Mine developer & operator) नियुक्त किया था। यही खदानों के विकास एवं संचालन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। सभी तरह की स्वीकृति लेना, भूमि अधिग्रहण करना, खदानों को संचालन के नियुक्तियाँ एवं परिवहन की ज़िम्मेदारी एम डी ओ की होती है। अगर नए अधिनियम के बाद निजी कम्पनियाँ या विदेशी कम्पनियाँ इस क्षेत्र में आती हैं तो कोई नयी बात नहीं होगी। कामगारों पर भी फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला ।
इस कार्य प्रणाली को समझने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। सरकारी कोल इंडिया को तो कॉन्ट्रैक्ट मिलता था लेकिन खदानों की संचालन के लिए बहुत सारे लोगों की ज़रूरत पड़ती है। सरकार नियुक्तियाँ नहीं करतीं। क्योंकि स्थायी नियुक्तियाँ सरकार पर बोझ बनती है। फिर अस्थायी नियुक्तियाँ को स्थायी करवाने के लिए आंदोलन होते और कोर्ट में केस होते।
इन सब से छुटकारा पाने के लिए सरकारी कंपनी माइन डेवेलपर्स के रूप में निजी कम्पनियों को ठेका देती जो सरकारी कम्पनी की ओर से काम करती। इससे सरकारी कम्पनी को अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ता और काम भी पूरा हो जाता।
संक्षेप में नए अधिनियम से मौक़ा आया है जब वैश्विक कम्पनियों को भी भारत के कोयला क्षेत्र में निवेश करने का अवसर मिलेगा। ऐसा नहीं है कि वाणिज्यिक खनन की मंज़ूरी के बाद ही निजी कम्पनियाँ कोयला क्षेत्र में हस्तक्षेप करेंगी। निजी कम्पनियाँ पहले से ही इस क्षेत्र में काम कर रही हैं।
सरकार को दो बातों बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। एक है लोगों का विस्थापन और दूसरा है पर्यावरण पर असर।
प्रधानमंत्री ने कहा है इससे सभी लोगों का फ़ायदा होगा लेकिन गाँव और जंगलों में रहने वालों की चिंता लाज़मी है।उन्होंने सरकार के समक्ष माँग रखी है कि ग्राम सभा की अनुमति के बिना कोई कोयला ब्लॉक न बिके । ग्राम सभा की अनुमति मिलने पर कोयले की बिक्री और रॉयल्टी का एक बड़ा हिस्सा ज़मीन मालिक और ग्राम सभा को मिलना चाहिए। यदि खेती या जंगल की ज़मीन हो तो उस ग्रामीण परिवार नज़दीक में वैसी ही ज़मीन उपलब्ध कराई जाए तथा जलवायु परिवर्तन को धयान में रखते हुए खनन की सीमा निर्धारित की जाए। किसानों की ज़मीन को लेने की प्रथा को सोच समझ कर आगे बढ़ने की ज़रूरत है जिससे किसानों को खाद्य समस्या न उत्पन्न हो जाए। आज किसान थोड़ी सी ज़मीन पर अपने खाने की वस्तु को पैदा कर अपने परिवार का पालन पोषण करता है। वह ज़मीन भी यदि चला जाए तो उसकी ग़रीबी का अन्दाज़ नहीं लगाया जा सकता है।
भारत में प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। भारत को पेरिस स्स्म्झौतों की प्रतिबद्धताओ को पूरा करना है तो उसे अपने मौजूदा वन्य क्षेत्रों को दोगुना करना होगा। कोयला खनन से आस पास का क्षेत्र प्रदूषित हो जाता है । सरकार के सामने यह बहुत बड़ी चुनौती है। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जैव विविधता के लिहाज़ से जहाँ जहाँ संवेदनशील क्षेत्र है वहाँ कोयला खदानों के आवंटन नहीं होना चाहिए।
समाप्त होती प्राकृतिक सम्पदाएँ और संसाधन विनाश के सूचक हैं। इसलिए दूरगामी परिणाम को देखते हुए निर्णय लेने होंगे अन्यथा आगे आने वाले दशकों में प्राकृतिक संकलन-संसाधन और पर्यावरण संतुलन आदि सब लुफ़्त हो जाएँगे।
वैसे सरकार के लिए राह आसान नहीं है। झारखंड सरकार ने इसे रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में अर्ज़ी लगायी हुई है।
*लेखक नयी दिल्ली स्थित एक सामाजिक उद्यमी हैं ।यहां प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं ।
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