– रमेश चंद शर्मा*
जरा भी चूकते तो गहरी खाई में ही जाते
पंजाब के राज्यपाल श्री जयसुख लाल हाथी ने गाँधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष श्री आर आर दिवाकरजी को पंजाब सरकार का राज्य अतिथि बनाकर आमंत्रित किया। बाबा ने इसे स्वीकार किया। साथ में अपन को भी जाना है, यह संदेश मिला। श्री राधाकृष्णजी ने मेटाडोर का प्रबंध किया। मेटाडोर पूरे समय साथ ही रहने वाली थी। दिल्ली से चंडीगढ़, शिमला आदि जाने का कार्यक्रम तय हुआ। दिल्ली से चलकर राज भवन चंडीगढ़ पहुंचे। गेट पर पहुँचते ही स्वागत हुआ। अस्सी के दशक के प्रारम्भ का समय। पंजाब में हलचल शुरू हो गई थी। जिस कमरे में रुकना था वह राज भवन का विशेष कमरा था। ठीक एक माह पहले प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी इसी कमरे में ठहरी थी। राज्यपाल महोदय से दिवाकरजी की अच्छी दोस्ती थी। भोजन के समय राज्यपाल महोदय स्वयं साथ रहे। शाही ठाठ बाट का इंतजाम। भोजन मेज के चारों और अनेक लोग सेवा के लिए उपस्थित, बड़ा जोरदार लम्बा चौड़ा थाल। थाल में अनेक कटोरियाँ। धीरे धीरे भोज्य सामग्री परोसी जाने लगी। एक दो तीन चार पांच संख्या बढती ही जा रही थी, भव्य भोजन। गजब के महंगे बर्तन ऊपर से शानदार भोजन। राजशाही अभी जीवित है। इंतजाम देखकर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था। वैसे पंजाब में पौष्टिक, गरिष्ठ भोजन करने की तो परम्परा है ही। फिर यह तो राज भवन! फिर भोजन में गुजराती ढंग भी शामिल!
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राज भवन का आनंद लेने के बाद इन गर्मियों में शिमला की ठण्ड का आनंद भी उठाना था। हिमाचल के मुख्य मंत्री निवास के पास लगभग सामने ही पंजाब सरकार के अतिथि गृह में रहने की व्यवस्था थी। पूर्व राज्यपाल श्री दिवाकरजी के लिए पूरे सूट का इंतजाम किया गया था। हमें सफाई व्यवस्था के लिए नाम मात्र के कुछ रुपए देने होते थे। यहाँ भी सुंदर व्यवस्था थी। भोजन की भी व्यवस्था थी। दिवाकरजी को मशरुम की सब्जी पसंद थी। उस समय वह सहज ढ़ंग से हर जगह उपलब्ध नहीं होती थी। मॉल रोड पर एक रेस्टोरेंट था, वहां से मशरूम की सब्जी लेकर आते थे।
इसी मध्य अम्बाला केंद्र के साथी श्री देवीशरण देवेश शिमला आए। बाबा को शिमला के आस पास के कुछ स्थान घुमाने की योजना तय हुई। जब घूमकर वापिस आ रहे थे तो मेटाडोर के ब्रेक फेल हो गए। सामने ढलान थी, पहाड़ की ढलान अब क्या किया जाए, क्या होगा ? देवेशजी ने बाबा को संभाला और मैं ड्राईवर की बगल वाली सीट पर बैठकर सामने से आने वाली गाड़ियों को इशारा करने लगा। ड्राईवर को भी कुछ सूझ नहीं रहा था की क्या किया जाए। तभी पीछे से एक सेना के अधिकारी की गाड़ी आई और वे समझ गए कि हमारी क्या स्थिति है। उन्होंने बगल में आकर कहा की गाड़ी को पहाड़ी की और रखो। उनके निर्देशानुसार हम चले और उन्होंने जो प्रक्रिया बताई उससे हमारी गाड़ी को एक बड़े पत्थर से टकराकर झटके के साथ रुकवा दिया। तुरंत अधिकारी अपनी गाड़ी से उतरकर हमारे पास आए हम सबको मेटाडोर से उतारा। सबको संभाला और हमें अपनी गाड़ी से हमारे निवास स्थल तक पहुंचा दिया। बाद में मेटाडोर का भी प्रबंध किया गया। यह एक अलग ही ढ़ंग का अनुभव रहा। उस समय मौत को सामने नाचते हुए देखा। अगर अधिकारी समय पर नहीं पहुँचते तो हमारा ड्राईवर तो पहाड़ी के बजाय अपनी दिशा में ही मेटाडोर को चलाने के प्रयास में लगा था जो बहुत ही खतरनाक हो सकता था। जरा भी चूकते तो गहरी खाई में ही जाते। उस अधिकारी का आना, मार्गदर्शन करना, बाद में सबको संभालना, सहयोग देना सब कुछ अद्भुत रहा। हमारा ड्राईवर पहाड़ी पर गाड़ी चलाने का कोई भी, थोड़ा सा भी अनुभव नहीं रखता था। हम से ज्यादा तो उसके ही हाथ पाँव फूल गए थे। उसे देखकर हमारी भी हिम्मत पस्त हो गई थी। मगर फिर भी हम उसे ढाढ़स बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। अधिकारी के आने के बाद सब बदल गया। उनका अनुभव बहुत ही कारगर सिद्ध हुआ। वे तथा उनका ड्राईवर तो विशेषज्ञ थे, जिन्होंने हम सबको संकट से बाहर निकाला। इस घटना को छोड़कर यह प्रवास बहुत ही आनंददायक रहा। इस घटना ने भी पहाड़ के बारे में नया अनुभव प्रदान किया, सबक सिखाया।
गर्मी से राहत पाकर चंडीगढ़ होते हुए दिल्ली वापिस पहुंचे। पहाड़ पर वाहन चलाने वाला कोई भी साथी अनुभवी होना चाहिए। पहाड़ पर गाड़ी चलाते समय क्या क्या सावधानी, सतर्कता बरतनी है इसका उसको भान होना चाहिए। गाड़ी में क्या क्या आवश्यक सामग्री रखनी चाहिए। संकट के समय हिम्मत से काम लेना चाहिए। घबराने के स्थान पर संकट से बाहर निकलने के उपाय अपनाने चाहिए। इस अनुभव ने बाद की यात्राओं में बहुत मदद की, बहुत काम आया। कई यात्राओं में दिवाकर जी के साथ रहने का अवसर बना।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक है।