– रमेश चंद शर्मा*
कुछ स्थान तो तनाव, दंगे के लिए बदनाम भी रहे
साठ का दशक छात्र, युवा आक्रोश से भरा हुआ था। विशेषकर गाँधी शताब्दी के आस पास का समय छात्र असंतोष का दौर चल रहा था। गुजरात के अहमदाबाद में साम्प्रदायिक दंगा भी हुआ। विशेष मानसिकता के अंतर्गत दंगे फैलाये जा रहे थे। कुछ लोगों के लिए दंगा अस्त्र शस्त्र बना हुआ था। छोटी छोटी बात, अफवाह पर भी तनाव, मारपीट, पत्थरबाजी, हिंसा, आगजनी, दंगे का माहौल खड़ा हो जाना आम घटना बनती जा रही थी। एक समाज विशेष के लोग जिस बस्ती में ज्यादा रहते है वहां इस प्रकार की घटना करना, करवाना आसान होता है। नफरत, द्वेष, भेद, भय, अलगाव की आग इन स्थानों पर फैलाना, लक्ष्य बनाना, टारगेट करना कुछ ज्यादा सुविधाजनक, आसान होता है। कुछ स्थान तो तनाव, दंगे के लिए बदनाम भी रहे। इनमें समय समय पर बदलाव भी होता रहता है। दंगे की पीछे अनेक स्वार्थ, कारण छुपे रहते है। अपना उल्लू सीधा करने के लिए भी इनका प्रयोग किया जाता है। राजनीतिक लाभ के लिए भी इस का माहौल बनाया जाता है। सत्ता, संपत्ति, नेतागिरी, जमीन जायदाद, ताकत, अधिकार, नीचा दिखाने जैसे अनेक कारण है जो दंगे को पोषित करते है।
यह भी पढ़ें : शहरी जीवन: उस समय अगर कोई पाक नागरिक सामने हो तो न जानें क्या कर देते
दिल्ली, अहमदाबाद, मेरठ, अलीगढ, जमशेदपुर, चंबल, भागलपुर, देहरादून, भोपाल, नर्मदा, लातूर, कच्छ, बोडोलैंड, असम, उत्तराखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, आन्ध्र, गुजरात, बिहार, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडू आदि में अशांति/ हिंसा/ दंगा/ आपदा/ आन्दोलन/ घटना के समय शांति के प्रयास में अपन शामिल हुए। चाहे लोगों, चाहे सत्ता, चाहे प्राकृतिक, चाहे उद्योग, चाहे विकास के नाम, समूह विशेष आदि किसी के द्वारा भी हिंसा, तनाव, भय, भेद, अन्याय, आपदा, अशांति, मारपीट, नफरत, अलगाव, अफवाह, झूठ फैलाकर असामान्य माहौल बनाया गया तो अपन बिना झिझक उसमें अपनी क्षमतानुसार कूद पड़े। उसे सामान्य, शांत बनाने, मलहम लगाने, प्रेम, सद्भाव, न्याय की बात कहने के लिए, सत्य के साथ अपनी आवाज मिलाने। छात्र, युवा आक्रोश में थे। व्यवस्था के खिलाफ बोलने की हिम्मत रखते थे। गलत का विरोध करने में अपनी शान समझते थे। हंगामा खड़ा करना अपना काम समझते थे। छोटी छोटी बात पर भी धरना, हड़ताल, मारपीट, हिंसा, झगड़ा, नारेबाजी, पत्थरबाजी, आगजनी कर देना। अपने मुद्दे, दूसरों के मुद्दे, देश, समाज के मुद्दों पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे। उस समय बस सेवा को लेकर, बस भाड़े को लेकर, कर्मचारी के व्यवहार को लेकर, समय पर बस के नहीं आने पर हर रोज कुछ हंगामा खड़ा हो जाता था। कभी कभी तो नौबत यहाँ तक आ जाती कि बस को आग के हवाले ही कर दिया जाता। दिल्ली के छात्रों ने एक वर्ष में लगभग 100 बसों को बर्बाद किया। इस बर्बादी को रोकने के लिए दिल्ली परिवहन के अधिकारी एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की एक संयुक्त समिति बनाई गई। जिसको इस समस्या के समाधान का रास्ता खोजना था। अपन भी इसके एक सदस्य रहे। बातचीत के अनेक दौर चले। अनेक सुझाव दिए गए। जिनमें से एक प्रमुख सुझाव था की छात्रों के लिए साढ़े बारह रुपये में मासिक आल रूट पास बनाया जाए। अन्य सुझावों के साथ यह भी लागू हुआ। इससे काफी फर्क पड़ा। इससे पहले दूरी के अनुसार निश्चित रूट एवं बसों का कम से कम तीन रूपये से पास बनना शुरू होता था। दूरी के हिसाब से रकम बढती जाती थी। सीधे रूट की बस ना होने पर निश्चित स्थान पर बदलने की सुविधा भी होती थी। पास में रूट, बस नम्बर भी लिखे रहते थे। पास धारक निश्चित रूट पर निश्चित बस नम्बरों का ही प्रयोग कर सकता था। थोडा भी इधर उधर होने पर इसे लेकर आपसी तनाव बनता था जो बढ़ते बढ़ते मारपीट, पत्थरबाजी, आगजनी तक पहुँच जाता था।बस तो एक मुद्दा था। इसके अलावा अनेक मुद्दे थे।
छात्र संघ का चुनाव, वैचारिक समूहों का टकराना, होस्टल का मामला, परीक्षा के सवाल, वर्चस्व की लडाई, कैन्टीन, पानी जैसी सुविधा, शुल्क, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के कानून के साथ देश दुनिया में जो चलता उसके मुद्दे भी जुड़ जाते। चीन, पाकिस्तान के युद्ध के कारण उनके दूतावासों पर विरोध में हुए प्रदर्शनों में दिल्ली के छात्रों ने खूब हिस्सा लिया। इन प्रदर्शनों में लाठीचार्ज, अश्रुगैस, पत्थरबाजी, तोड़फोड़ होना सामान्य बात थी ।इनमें सभी तरह के छात्र, अध्यापक शामिल होते। कुछ शांति से अपनी बात रखने के पक्ष धर तो कुछ हंगामा, तोड़फोड़, मारपीट के पक्ष धर। कभी कभी छात्रों में आपसी ही मारपीट शुरू हो जाती। दिल्ली विश्वविद्यालय में लंबे समय तक परम्परा रही की पुलिस का प्रवेश बिना आज्ञा के नहीं होता था। पुलिस बल का बहुत कम प्रयोग होता था। कैम्पस में कोई बाहरी व्यक्ति अपनी मनमानी करते हुए घबराता था। कुछ मर्यादा थी जिसका पालन भी होता था। धरना, प्रदर्शन, उपवास के लिए बहुत रोक टोक नहीं थी। उपकुलपति के कार्यालय पर बरामदे तक भी आप धरना, प्रदर्शन, उपवास कर सकते थे। बातचीत के रास्ते आज से ज्यादा खुले थे। अधिकारी, शिक्षक, छात्र के मध्य सम्पर्क, संवाद आज से ज्यादा आसान था। यह बात अलग है की उस समय अधिकतर छात्र इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। सक्रिय छात्रों के लिए यह ज्यादा सहज था।
अंकों की मारधाड़ भी आज जैसी नहीं थी। गुड सैकिंड डिविजन अर्थात पचास प्रतिशत अंक आने पर भी संतोष होता था। प्रथम वर्ग के लिए साठ प्रतिशत अंक आने पर तो वाह वाह। सत्तर, पिचहत्तर प्रतिशत आने पर तो शानदार माना जाता। आजकल नब्बे प्रतिशत वाले को भी जब निराश हताश देखते है तो अपना समय याद आता है। आजकल तो शिक्षण संस्थाओं का पूरा माहौल ही बदल गया है। शिक्षा और स्वास्थ्य व्यापार बना दिए गए है। वो भी लाभ कमाने के लिए नहीं बल्कि लोभ पूरा करने के लिए। इन दोनों क्षेत्रों में तुरंत आमूल चूल बदलाव की आवश्यकता है।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक है।