संस्मरण
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
जर्मनी में शरणार्थी पुनर्वास के विषय में गंभीरता दिखाई दी है
“दुनिया की भू-संरचना खतरनाक मोड़ पर”, इस विषय में सबसे गंभीर चिंतनशील देशों में एक जर्मनी है। इस देश ने ही मानवता और प्रकृति का बराबर सम्मान किया है। जलवायु परिवर्तन ने दुनिया की भू-संरचनाओं, सामाजिक संरचनाओं, प्राकृतिक, आर्थिक, सभी को गंभीर संकट के रास्ते पर आगे बढ़ाने का काम किया है। इसीलिए दुनिया में विस्थापन बढ़ रहा है।
कोविड -19 के वायरस युद्ध ने अभी दुनिया में दवाई के लिए विश्व एकता कर दी है। यह कितने दिन टिकेगी? वह बिल्कुल ही अलग बात है। जल की कमी व अधिकता दोनों ही विस्थापन बढ़ा रहे है। यह बात जर्मनी में ठीक दिशा में शुरू हुई है। अन्य देशों में भी इसकी चिंता है, लेकिन फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन के वैज्ञानिकों और सरकारों में ज्यादा गंभीरता नजर आ रही है।
इस देश ने सीरियन, पैलिस्तीनी सभी जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों के लिए अपने देश की सीमाओं को खोल दिया था। बाद में जब इनके आकार से अधिक शरणार्थी यहाँ पहुँचे, तो इस देश की चिंता बढ़नी ही थी। इसलिए मुझे यहाँ की सरकार, विश्वविद्यालय एवं स्वैच्छिक सांस्कृतिक, सामाजिक संस्थाओं ने समय-समय पर जर्मनी बुलाया और सिर्फ ‘‘विस्थापन से प्रभावित जर्मनी का भविष्य’’ विषय पर चर्चा होती रही। साथ ही महात्मा गांधी की मूर्ति स्थापना कराके, उनके बताये रास्ते आज के संकट का समाधान हैं, इस पर भी चर्चा हुई।
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जर्मनी 2 जुलाई 2015 को प्रथम बार एक्वयाकोन के किस्टोफर के बुलावे पर गया था। तब मैं पूरे एक सप्ताह वहाँ रूका था। देश भर में यात्रा करके और शरणार्थियों, सरकारी अधिकारियों, मेयरों, राजनेताओं के साथ बातचीत हुई थी। मुझे जर्मनी में चार बार यहाँ की सरकारों के बुलाने पर जाना हुआ। उन्होंने मेरे सामने अफ्रीका, मध्य दक्षिण एशिया के, खासकर सीरिया से आने वाले शरणार्थियों के बारे में सुझाव माँगा। इन शरणार्थियों का दबाव जर्मनी के आर्थिक-सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक दुष्प्रभाव के साथ यहाँ की भू-संरचनाओं में भी बिगाड़ कर रहा है। इसको कैसे रोका जा सकता है, इस पर लम्बी बातचीत हुई। मैंने स्पष्ट उपाय सुझाये। जहाँ से विस्थापित होकर जलवायु शरणार्थी आ रहे है। वहीं पर काम करने की जरूरत है।
मैं, 2 जुलाई 2015 से 6 जुलाई 2015 तक जर्मनी के हैम्बर्ग, हनोवर और वहांँ के पुनर्वास शिविरों, तथा बर्लिन आदि बड़े शहरों में गया। सबसे अधिक समय हैम्बर्ग और हनोवर में सीरिया से आये शरणार्थियों के शिविरों में बिताया। उनसे उनके जर्मनी आने के रास्ते और कारणों पर अच्छी बातचीत हुई, बहुत से सीरियन शरणार्थियों का कहना था कि वे खेती करने वाले, प्रकृति के साथ जुडे़ हुए एक सांस्कृतिक देशवासी थे, लेकिन यूफ्रेट्स नदी सूख गई और वे बे-पानी हो गए। उसके बाद वे वहांँ से उजड़कर, सबसे पहले लेबनान होते हुए ग्रीस, स्लोवानिया और ऑस्ट्रेलिया पार करके जर्मनी पहुँचे। रास्ते में तीन साल लगे। आधे लोग तो रास्ते में ही मर गए, लेकिन अब उन्हें यहाँ पर रहने-खाने, चिकित्सा आदि की सुविधा मिलने लगी है। इसलिए वे यहाँ रुकेंगे।
यहाँ मैं सीरिया से आये शरणार्थियों के तीन शिविरों में गया। वहां पुलिस की मदद से बातचीत कर पाया, क्योंकि मैं वहांँ हनोवर विश्वविद्यालय एवं हनोवर नगरपालिका का मेहमान था। मुझे वहांँ की सरकार ने सुनने के लिए बुलाया था। वो मेरे काम के बारे में जानती थी । राजस्थान में पानी की कमी के कारण विस्थापन करके हमारे गाँवो के बेरोजगार युवा शहरों में गये लोग, पानी आने पर शहरों से वापस गाँव में आकर खेती करने लगे हैं। इसी से प्रभावित होकर उन्होंने मुझे शरणर्थियों से मिलने बुलाया था। इस काम से वे बहुत खुश थे। इसलिए वहांँ के मेयर, मंत्री और बड़े अधिकारियों ने अपने सिटी हॉल में मेरा भाषण रखा था। वे मुझसे केवल वापसी माईग्रेशन के बारे में विविध सवाल पूछ रहे थे। मैं भी अपने अनुभवों के आधार पर जबाब दे रहा था। इन सवालों के जवाबों के अंत में मैंने कहा कि सीरिया में अभी युद्ध चल रहा है। जब वहांँ युद्ध रुक जायेगा और इन लोगों की वापसी के बाद अपनी ज़मीन पर काम व रोजगार सुनिश्चित करने वाली बात पक्की हो जायेगी, तभी सीरियन वापस अपने देश जा सकते हैं। यह जबाब देने से पहले मैं तीनों शिविरों से बात कर चुका था। इसलिए यह जबाब देना मेरे लिए आसान था।
जर्मनी में जाना सबसे सरल रहा। यूरोप के 21 देशों की यात्रा करके कह सकता हूँ। सीरिया, पेलिस्तीन, सोमालिया, ईथोपिया, सैनेगल, सूडान, साउथ सूडान, जिम्बाबे आदि के देशवासी बिन पानी उजड़कर सबसे ज्यादा जर्मनी, स्वीडन, फ्रांस में ही गए हैं ।
दूसरी बार 29 सितम्बर 2015 को प्रातः हनोवर विश्वविद्यालय में भाषण देने पहुँचा। मैंने हनोवर विश्वविद्यालय के तकनीक एवं इंजीनियरिंग विभाग में दो दिन लगातार भाषण दिया। यहाँ के विद्यार्थियों व शिक्षकों को अफ्रीकन व एशियन विस्थापन को कम करने हेतु कैसे काम किया जा सकता है? इस विषय पर लम्बी वार्ता हुई। मैंने विश्वविद्यालयों के शिक्षकों व विद्यार्थियों से सीधे सवाल पूछा कि एशियन व अफ्रीकन जलवायु परिवर्तन शरणार्थियों के विषय में आप क्या सोचते है? सभी ने खुलकर जबाब दिया कि यह सब हमारे भविष्य के लिए खतरा है। इससे बचना अत्यंत जरूरी है। इन सवालों की चर्चा में तय हुआ कि अभी तो ये लोग सीरिया से उजड़कर आये हैं, ऐसे में इन्हें बचा के रखना जरूरी होगा।
मोटे तौर पर इनके उजड़ने का मुख्य कारण जल की कमी है। जीवन की जरूरत को पूरी करने में अत्यंत कमी होना ही लाचार-बेकार बीमार बनाकर उजड़ना है। इस कमी को दूर करने के लिए हमें उनके देश में जल संरक्षण व प्रबंधन के कार्यों को बढ़ाने पर विचार करना चाहिए, तभी लाचार, बेकार व उजड़कर होने वाले विस्थापन को स्थाई तौर पर रोका जा सकता है। अन्यथा यह विस्थापन अब विश्व युद्ध को बुलावा दे रहा है। विश्वविद्यालय में भाषण पूरा होने के बाद यहाँ के विद्यार्थियों के साथ जलवायु शरणार्थियों से मिलने गया।
हनोवर में शरणार्थियों का बड़ा शिविर था। मेरे भाषण के सत्र में शरणार्थियों के देशों के विद्यार्थी भी मौजूद थे। वे ही मुझे शरणार्थियों से मिलाने के लिए लेकर गए थे। मैंने इनके साथ प्यार से पूछा की वे यहाँ कैसे हैं ? अच्छे है! ठीक है! बेहतर है! कई लोगों ने अलग-अलग जबाव दिये। उन्हीं की भाषा को अनुवाद करके मेरा साथी मुझे बता रहा था। क्यों आये? भूखे, प्यासे मरते हुए आये हैं। यहाँ क्या करोगे? सरकार जो करवायेगी वही करेंगे। हमें खेती, फूल, सब्जियों को पैदा करने का काम आता है। सरकार जो भी हमसे करायेगी, करने की छूट देगी तो ही करेंगे। अभी तो सरकारी चार दीवारी में बंद हैं।
तीसरी बार 2 अक्टूबर 2015 को जर्मनी के हनोवर शहर में महात्मा गांधी के जन्मदिन पर जर्मन सरकार, हनोवर की नगर निगम तथा हनोवर विश्वविद्यालय ने मेरा एक संयुक्त भाषण रखा था। इसका विषय था- “जल संरक्षण द्वारा विस्थापन रोकना”। मध्य एशिया एवं अफ्रीका में जल संरक्षण द्वारा विस्थापन रोकने हेतु राजस्थान (भारत) का अनुभव संबंध विषय पर बोलते हुए मैंने कहा कि ‘‘जर्मन सरकार शरणार्थियों को अपने देश में आने से रोकना चाहती है, तो जहाँ से ये लोग आ रहे हैं उन देशों में जल संरक्षण का काम और उनकी तत्काल जरूरत पूरी करने के लिए उन्हें वहीं पर काम करना चाहिए। शरणार्थियों के पुनर्वास पर जितना खर्च जर्मनी में हो रहा है, उससे उनकी सहायता उनके मूल स्थान पर कर दी जाये, तो उनका विस्थापन रुकना सम्भव है।सीरिया में युद्ध जल के कारण शुरू हुआ है। वहाँ उन्हें जल मिले तो युद्ध रुके और बहुत से लोग अपनी जमीन पर वापस लौटना शुरू कर देंगे।”
चौथी बार 26 नवंबर 2017 से 30 नवम्बर 2017 तक जर्मनी के हनोवर विश्वविद्यालय तथा जर्मनी सरकार ने डेन्जर लैण्ड स्केप को रिज्यूनेट लैण्ड स्केप बनाने हेतु यूरोप के टेक्नोलॉजी और विकास तथा क्लाइमेट से संबंधित बहुत ही विविध किस्म के शिक्षकों व विद्यार्थियों ,वैज्ञानिकों, सरकारी बड़े योजनाकारों को यहाँ बुलाया था। मुझे पूरे डेढ़ घंटे का समय बोलने तथा 30 मिनट का समय सवाल-जबाव के लिए दिया गया था। चार दिन में कई बार सवाल जवाब का संवाद हुआ।
आज शहरों की भू-संरचनाओं पर जनसंख्या बढ़ने के कारण संकट बढ़ रहा है। इस संकट के समाधान के लिए हमें मोटे-तौर पर भारत के राजस्थान के सामुदायिक ज्ञानतंत्रों के कामों से सीख मिल सकती है। हमने जिस प्रकार राजस्थान में पानी और मिट्टी के संरक्षण का काम किया है उससे मिट्टी का कटाव रुका है। अब उन नदियों की भू-जल पुनर्भरण द्वारा भू-संरचना पुनर्जीवित होकर हमारी केवल उन्हीं नदियों में मिट्टी का जमाव भी नगण्य हो गया है।
मैंने अपनी प्रस्तुति में जो काम हमने पिछले 30-40 वर्षों में किया था, उसके प्रभाव को बताने और दिखाने का प्रयास किया। इसलिए यूरोप, जहाँ के लोग भाषण सुनते समय तालियाँ नही बजाते, उन्होंने भी इस प्रस्तुति को देखकर, तीन बार ताली बजाकर कहा कि “जलवायु परिवर्तन अनुकूलन का यही एक रास्ता है। इसी के द्वारा हम धरती को हरी-भरी बना सकते हैं। लेकिन ऐसा काम यूरोप में नहीं होता। यहाँ तो मशीनों के द्वारा समाधान खोजते हैं। इसलिए प्रस्तुति तो बहुत अच्छी है लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकेंगे। यह हमारे सीखने के लिए ही है।” यह हमें करने की प्रेरणा जरुर देता है। हमारी अगली पीढ़ी ही भारत से सीखेगी।
अगले दिन फिर 28 नवम्बर को वहां के शिक्षकों व विद्यार्थियों के साथ दुबारा से बातचीत हुई और उन्होंने जर्मनी, स्पेन, वियाना आदि देशों में इस प्रयोग के मूल सिद्धांतों से सीखकर वहां की एग्रो एकोलॉजिकल क्लाइमेट डाइवरसिटी को सम्मान देकर कुछ प्लान करना चाहिए। मैंने यहाँ के शिक्षकों व विद्यार्थियों से यह भी कहा कि आपकी शहरी भू-संरचनाओं को बिगाड़ने का मूल कारण विस्थापन द्वारा बढ़ता दबाव है। अफ्रीका और मध्य-दक्षिण पश्चिम-एशिया के लोग बड़ी संख्या में विस्थापन करके आपके यहाँ आते हैं। वे आने से तभी रुकेंगे जब उनके यहाँ रोजगार, खेती, पशुपालन आदि सब के लिए समृद्ध जल उपलब्ध होगा। जल की कमी के कारण लोगों को अपना जीवन चलाना बहुत कठिन हो रहा है। इसलिए वे लोग अपने देशों से उजड़कर, जलवायु परिवर्तन शरणार्थी बनकर यूरोप की तरफ आते है। फिर यूरोप में आकर बस जाते हैं। इससे उनकी जनसंख्या का दबाव आपके शहरों पर बढ़ता ही है। इसलिए आपको इस बढ़ते विस्थापन के मूल कारणों पर शोध करना चाहिए और जल्दी से जल्दी यह पता लगाना चाहिए कि यूरोप आने वाले शरणार्थी कैसे अपने देश में रुक सकते है? मेरी इस बातचीत से लोग प्रसन्नचित्त हुए । कई लोगों ने मुझे शरणार्थी शिविर दिखाने की पेशकश की मैं वहाँ गया भी। मेरे द्वारा उठाये गए सवालों की सत्यता उन्होंने परखनी प्रारंभ करी।
यहाँ के इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट के निदेशक डिच बहुत ही रुचिवान शिक्षक हैं। ये आधुनिक वैज्ञानिकों से थोड़ा अलग हैं। इन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि जल्दी से जल्दी इस दिशा में शोध कार्य शुरू करेंगे। उन्होंने हमारी जल यात्रा में कुछ दूर पदयात्रा भी की। मैंने वहांँ के शिक्षकों व विद्यार्थियों को इस प्रत्यक्ष काम में जोड़ा। वहांँ एक विद्यार्थी जिसका नाम भूमिका था, वह उत्तराखंड की रहने वाली थी। उसने तरुण भारत संघ में आकर, हमारा काम बहुत अच्छे से देखा और वापस लौटकर इस दिशा में कार्य शुरू भी किया।
30 नवम्बर को डेविच डिच, भूमिका और इनके कई साथी सुबह-सुबह मुझसे मिलने आये। पूरी यात्रा का लक्ष्य जल-युद्ध से दुनिया को बचाना है। इसी यूरोप की बिगड़ती संरचना के संकट से दुनिया को बचाना है। यह प्राकृतिक पोषण की तकनीक और इंजीनियरिंग से ही संभव है। मेरी यही बात सुनकर भूमिका बहुत उत्साहित हुई। जर्मनी के शिक्षक-विद्यार्थी सभी ने विस्थापन रोकने की दिशा में सार्थक कार्य करने का अपना संकल्प मुझे बताया। मैं भी उत्साहित हुआ और अपने कार्यों में शरणार्थियों से बातचीत करने में सक्रिय हो गया। ज्यादातर बेपानी होकर उजड़कर आये है, यही शरणार्थी बता रहे थे।
जर्मनी में शरणार्थी पुनर्वास के विषय में गंभीरता दिखाई दी है। अभी तक इन्होंने इनका अपने ही देश में पुनर्वास किया है। जहाँ से ये आ रहे है, विस्थापित देशों से इनका विस्थापन रूके इस हेतु काम नहीं हो रहा है। हमारी यात्रा में कुछ छोटे-छोटे प्रयास किये है। इनका प्रभाव अभी दिखा नही; आगे आने वाले समय में प्रभाव दिखाई देगा।
*लेखक जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।