– ज्ञानेन्द्र रावत*
बीते कुछ दिनों से देश में हिजाब के नाम पर बावेला मचा हुआ है। कर्नाटक में तो स्कूल-कालेज बंद करने पडे़ हैं । हालत यह हो गयी है कि अब यह मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक आ पहुंचा है। हुआ यह कि बीते दिनों कर्नाटक के एक शिक्षण संस्थान में एक संगठन विशेष के छात्र कहें या नौजवानों ने एक धर्म की छात्रा द्वारा हिजाब पहनने पर न केवल आपत्ति की बल्कि प्रदर्शन भी किया और उस छात्रा का विरोध किया। जयश्री राम के नारे भी लगाये। इसके प्रतिकार में उस छात्रा ने विरोध स्वरूप अल्लाह हू अकबर के नारे लगाये और हिजाब पहने जाने की बात भी बार बार दुहरायी। यहीं से बात इतनी बढ़ गयी कि यह मुद्दा पूरे देश में विवाद का विषय बना बल्कि पांच राज्यों के चुनावों में इसने आग में घी का काम किया। हालात यहां तक खराब हो गये कि कर्नाटक हाईकोर्ट तक ने यह कहकर कि सोमवार 14 फ़रवरी 2022 तक धार्मिक परंपराओं के आधार पर शिक्षण संस्थाओं में कपडे़ नहीं पहनें।
यहां इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि वह चाहे कर्नाटक हो या कोई अन्य राज्य, वहां के किसी भी शिक्षण संस्थान में छात्र-छात्राओं द्वारा अपने पारंपरिक पहनावे को पहनकर आने की जिद किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत तो नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा होगा फिर उसे अराजकता का नाम देना नितांत नासमझी और बेवकूफी ही कहा जायेगा। यहां विचारणीय यह है कि यदि शिक्षण संस्थान में छात्र-छात्राएं अपने अपने पारंपरिक परिधानों में आने लगे, कोई धोती-कुर्ता, कोई पेंट-शर्ट, कोई नेकर-शर्ट और फिर कोई साडी़-ब्लाउज-चोली, कोई घाघरा-लहंगा, कोई सलवार-कमीज में आने लगेगा, उस दशा में शिक्षण संस्थान शिक्षा के मंदिर नहीं, सांस्कृतिक केन्द्र बन जायेंगे।हां यह नितांत गलत और बेहद शर्मनाक है कि किसी व्यक्ति या महिला को भीड़ द्वारा उसे क्या पहनना है या क्या नहीं पहनना है, इसके लिए बाध्य किया जाये। किसी को भी इसके लिए बाध्य नहीं किया जा सकता और न ही किसी को यह अधिकार है। हां कर्नाटक की उस महिला की हिम्मत की दाद अवश्य देनी चाहिए। लेकिन हिजाब पहनने वाली उस छात्रा जो वहां चिल्ला चिल्लाकर हिजाब पहनने का दावा कर रही थी, उसके बारे में भी उसका विरोध करने वालों को जानकारी कर लेनी चाहिए कि उसका यह आचरण कहीं कुछ और तो नहीं कहता है। वह दावा तो हिजब पहनने का करती है, अल्लाह हू अकबर का नारा लगाती है जबकि क्या वह वास्तव में सामाजिक जीवन में पारंपरिक पहनावे की पक्षधर है और जैसा कि कहा जा रहा है और फोटो भी वायरल हो रहे हैं कि उसकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का फर्क है। और यदि यह सही है तो बिना वजह यह बावेला क्यों ?
जहां तक शिक्षण संस्थाओं का प्रश्न है, शिक्षण संस्थाओं के नियम-कायदे और ड्रेस कोड का अनुपालन भी जरूरी है। इसका भी ध्यान रखा जाना जरूरी है। साथ ही शिक्षण संस्थान के प्रशासन का भी यह दायित्व है कि वह अपने नियम-कायदे और ड्रेस कोड का सख्ती से अपने संस्थान में पालना कराये। इसके लिए संस्थान में बाहरी अराजक तत्वों को मनमानी करने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती कि बाहरी छात्र संस्थान में घुसकर गुंडागर्दी करें और ड्रेस कोड की पालना कराने हेतु दबाव डालें। हां शिक्षण संस्थान के बाहर व्यक्ति क्या पहनता है,अपने माथे पर क्या लगाता है, महिला सिंदूर लगाती है या घूंघट करती है या नहीं, इसके लिए उसे बाध्य तो नहीं किया जा सकता। यह तो उसकी स्वेच्छा पर निर्भर करता है कि वह क्या पहने और क्या नहीं।
शिक्षण संस्थानों में ड्रेस कोड इसलिए बनाया गया था कि शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राएं वह चाहे अमीर हों या गरीब सभी एक समान दिखें। तात्पर्य यह कि उनके बीच कोई भेदभाव नहीं रहे । ड्रेस कोड की महत्ता के पीछे का अर्थ यह है कि उस ड्रेस को पहनने वाले व्यक्ति की पहचान क्या है। असलियत में शिक्षण संस्थान में किसी धर्म विशेष की पहचान वाले वस्त्र पहनने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। अब सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस, सेना, गार्ड या रक्षक, स्वास्थ्य विभाग में डाक्टर-नर्स आदि-आदि आवश्यक सेवाओं में कार्यरत मुस्लिम महिलाएं क्या हिजाब और बुर्के में रहेंगी और उस दशा में वह अपने दायित्व का निर्वहन कैसे कर पायेंगीं। हमें यह ध्यान में रखना होगा कि हमारा देश विभिन्न धर्मावलम्बियों, संप्रदायों, जातियों, पंथों, भाषा और संस्कृतियों वाली विविधताओं से भरा है। विविधता में एकता हमारी विशेषता है। यही हमारी खूबसूरती को दर्शाता है। गौरतलब यह है कि इसी विविधता में मानसिक एवं जीवन के चहुंमुखी विकास, अनुशासन और जीवन को सुलभ बनाने की खातिर ही वह चाहे शैक्षिक संस्थान हों या प्रशासनिक-सामाजिक या स्वयंसेवी संस्थाओं हेतु एक जैसी वेशभूषा का नियम बनाया जाता है ताकि पहचान बनी रह सके। यह कटु सत्य है कि समान वेशभूषा समान वातावरण में अनेकों प्रयोजनों की दृष्टि से लाभकारी है, इसे नकारा नहीं जा सकता।
इसमें दो राय नहीं कि कर्नाटक की हालिया घटना को सिर्फ और सिर्फ पांच राज्यों के चुनावों के मद्देनजर सियासी एजेंडा साधने की गरज से बढा़वा दिया जा रहा है ताकि हिजाब के बहाने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा सके। इसमें किसी एक धर्म या वर्ग विशेष को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए दोनों ही जिम्मेवार हैं। वे यह नहीं सोचते कि ऐसा करके वह देश को कहां ले जा रहे हैं। क्या भरत, गांधी, बुद्ध, महावीर के इस बेहतरीन देश को तालिबान बनाना चाह रहे हैं। ऐसा कर वह देश को तबाह करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।
विडम्बना यह है कि ऐसा करने वालों को हिजाब, नकाब और बुर्के का फर्क समझ लेना चाहिए। सबसे बडी़ बात यह कि हिजाब में सिर्फ और सिर्फ सिर और कान ढके होते हैं। चेहरा नहीं। वह तो सिर पर बांधे जाने वाला स्कार्फ ही है। हिजाब, नकाब और बुर्के में जमीन आसमान का फर्क है। हिजाब पहनने वाली छात्राओं का कहना है कि वह स्कूल में तो स्कूल ड्रेस ही पहनती हैं। हिजाब तो लोगों की गंदी निगाहों से बचने के लिए पहनती हैं। इसमें हमें सुविधा होती है तो दूसरों को क्यों परेशानी होती है। और अब तो स्कूटरों-मोटर साइकिलों पर मुंह पर दुपट्टा या स्कार्फ बांधे देखा जाना आम है। इसमें हिंदू-मुसलमान का तो सवाल ही कहां उठता है। आजकल अपनी सुविधानुसार लड़कियां स्कार्फ बांध लेती हैं और अब यह आम हो गया है। वह बात दीगर है कि उसे हिजाब नाम दे दिया जाये।अब जरा हिजाब की वजह से चर्चा में आयी मुस्कान की सुनें। उसका कहना है कि हिजाब सिर पर बांधे जाने वाला स्कार्फ है। मैं क्लास में स्कूल ड्रेस पहनती हूं। वहां बुर्का उतार देती हूं और सिर्फ हिजाब पहने रहती हूं। इस बारे में आजतक मुझसे न तो मेरे सहपाठियों, टीचर्स और न ही प्रिंसीपल ने कुछ कहा। फिर बाहर वालों को क्या लेना-देना। हमारे सहपाठियों के बीच धर्म को लेकर कभी कोई बात नहीं हुई। अब सवाल तो अहम यह है कि आज अगर इन पहनावे के ठेकेदारों या तथाकथित पहरेदारों को हिजाब से तकलीफ है तो यही कल ईसाई लड़कियों के स्कार्फ और सिख लड़कियों के पगडी़ पहनने पर सवाल नहीं उठायेंगे, इसकी कोई गारंटी है क्या? सवाल यह है कि स्कूल न तो पुलिस है, न सेना, वह तो शिक्षा का केन्द्र है, शिक्षा का मंदिर है, वहां इस तरह का घृणित माहौल पैदा करना संकीर्ण और विघटनकारी मानसिकता का परिचायक है। ऐसी मानसिकता को देश हित में है, इसका किसी भी दशा में समर्थन नहीं किया जा सकता।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।