– डॉ. राजेंद्र सिंह*
हमारा बाजार करेन्सी नहीं श्रम के फल की अदला-बदली थी। अब खेती धन (करेन्सी ) बन गयी है। खेती को ’बाजार‘ केवल लाभ मूलक बनाता है। खेती में यह चलन पश्चिम से आया है। अब खेती-संस्कृति नहीं बची है। वृक्ष-खेती भी नहीं बची है। पहले वृक्षों के उत्पादन से ही जीवन चलता था।
अमेरिका में भी जब तक रैड इन्डियन थे, तब तक यहाँ की तरह ही वृक्षों, फलों-फूलों, पत्तों से जीवन चलता था। जब वहाँँ और यहाँ भी जमीन पर कब्जा करके बड़ा मालिक, जमीनदार बनने का भाव आया, तभी से खेती में विकृति हुई। फिर खेती जीवन नहीं, संस्कृति नहीं, समृद्वि भी नहीं बची। खेती बाजार ही बन गई। बाजार तो पैदा करने वाले ओर खाने वाले के बीच गुप्त दीवार बनकर लूटता है, दूरियाँ पैदा करता है। आज खेती में जो भी पैदा हो रहा है वह बाजार को ध्यान में रखकर ही पैदा किया जाता है। इसीलिए इसे खेती का बाजार कहते हैं।
स्वास्थ्य और जीवन की जरूरत मानकर खेती का काम करना अब किसान के लिए शुभ है, लेकिन जीवन चलाना कठिन है। खेती शुभ नहीं बची है। यह कहना कि सभी जगह ऐसा ही हो रहा है, सत्य नहीं है।
तरूण आश्रम, भीकमपुरा (राजस्थान) की नंगी -वीरान, बे-पानी भूमि पर खेती मजबूरी में शुरू की थी। क्योंकि हमारे पास जल पर्याप्त उपलब्ध नहीं था। हमें वर्षा-जल से ही खेती करनी थी। भूजल भी नहीं था। कुँए सूखे थे। जीवन हेतु अन्न, दाल, फल सब्जियाँ सभी कुछ अब खेती से ही मिल सकता था। इसीलिए खेती शुरू की थी।
वर्षा जल को पकड़ कर, तिल, बाजरा ,सरसां-चने की फसलें उगाना शुरू किया । समझ में आया हमे हरियाली चाहिए। इसलिए सीताफल, बिल्व पत्र, कचनार, जामुन ,बेर, अमरूद, रेहटा, कत्था, कैर -करोंदा, बीच में आम के पेड़, हिंगोट, आँवला, खेजड़ी, देशी बबूल, सुबवूल, खजूर, गूलर, नीम, बरगद, पीपल और शीशम ये सब आश्रम की जरूरत और वर्षा-जल, मिट्टी की उपलब्धता को ध्यान में रखकर 1988 में उगाये गये थे।
1995 मे आते- आते वृक्षों पर फल आने लगे। कचनार के फूलो की सब्जियाँ, आवला, रेहटा के फलों की सब्जिंया और अचार – बनने लगे। साथ ही जौ, गेहूँ, चना, सरसों, आदि भी पैदा करने लगे। अन्न-सब्जियाँ सभी हमारे आश्रम की जरूरत पुरी करने लगी। हमने यह सब अपने आस-पास के अनपढ़ किसानो से ही सीखा था। आखिर मैं भी मूलतः किसान ही हूँ। किसानी से सीखा हुआ ही यहाँ राजस्थान में मेरे काम आया।
मेरे दादा तो कहते थे, बाजार से केवल दवाई और नमक ही लाना चाहिए क्योंकि वह हम बनाना नहीं जानते हैं । शेष सब हम ही पैदा करते ओर बनाते हैं। हमारे खेत, घर पर ही गुड़, शक्कर, खाँड और बूरा बनती थी। खेती से सम्पूर्ण खाना तैयार हो जाता था। कपड़ा हमें हमारे जुलाहे अनाज के बदले देते थे। लकड़ी का काम, बढ़ई , लोहे काम लुहार, धर का बुलावा, बाल बनाने का काम नाई, मिट्टी के बर्तन कुम्हार ,सोने का काम सुनार सभी कुछ अदला-बदली में होता था।
पिता श्री ने रासायनिक खेती शुरू की थी। खेती में जब तक मेरे दादा जीवित रहे तब तक दवाई नहीं लगती थी । घर में काम आने वाली दवाई भी खेती से आती थी । गर्मी से बचने के लिए प्याज और आम काम आता था। सर्दी से बचने हेतु अदरक,मसूर की दाल, काली मिर्च, तेज-पत्र आदि तथा खांसी जुकाम, बुखार सब का इलाज खेती में था। बड़ी बिमारी हेतु वैद्य जी आकर दवाई देते थे, हम उन्हें अनाज देते थे। वैद्य भी आरोग्य रक्षण का काम बाजारू नहीं, जजमान बनकर करते आये थे। भारत में चिकित्सा भी आरोग्य रक्षण के साथ होती थी।
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मेरे पिता जी ने दादा को स्वर्ग सिधारते ही भूजल शोषण करने वाला टूयबवैल खेती मे लगाया था। इस क्षेत्र मे और गाँँव मे यही सबसे पहला था। फिर सरकारी खाद्य, दवाई (रसायनिक खाद और जहरीली दवाईयां ) उपयोग करना शुरू कर दिया था। इसमें उन्हें बहुत घाटा होने लगा। बिजली का बिल महँगा हो रहा था। खाद्य व दवाई पर छूट थी, लेकिन बाद में महँगी होने लगी थी। खेती के घाटे से मेरे पिता जी दुखी थे।
आज स्वादिष्ट पकवान बनाने और खाने का मजा ही नहीं बचा है। आनन्द रहित अन्न खाना व दाना-पानी तथा बढ़ती कर्जदारी ने मेरे पिता जी को चिन्तित किया था। शायद इसीलिए वे मुझे किसान नही बनने देना चाहते थे। जब कि मेरे मन में किसानी करना ही था, वे मुझे चिकित्सक बनाना चाहते थे। मैंने आयुर्वेद स्नातक पास किया था। वैधक की पढ़ाई के बाद मैने वैधक का काम ऐसा किया, जिससे लोग बीमार ही नहीं होवें। वैसी खेती करना सिखाया, वैसा ही पानी भी पिलाया, जिससे लोग आरोग्य रहें। इसीलिए मैं अपने मन से ही भारत सरकार की नौकरी छोड़कर खेती और पानी के काम में लगा।
राजस्थान के अलवर जिले की थानागाजी तहसील के किशोरी-भीकमपुरा गाँव में अपनी बिना रसायनिक खाद के 38 साल से देशी बीज औेर देशी दवाई वाली खेती में जुटा हूँ। मैं तो अपनी बाजार मुक्त खेती में सफल हूँ। जब आश्रम में कुछ अधिक सब्जियाँ होती हैं तो हम गाँवां में घर – घर में भेज देते हैं। वे हमें बदले में अनाज या श्रम देते हैं। हमारी खेती में हमें बिजली का बिल तो सरकार को ही देना पड़ता है। अन्यथा कोई अन्य खर्च हमें नहीं करना पड़ता है। सब काम हम स्वैच्छिक रूप में करते हैं।
हमारी मिट्टी भी अच्छी नहीं थी। पानी भी नहीं था। आज हमारी खेती ने ही उसी मिट्टी को अच्छा बना दिया है। अनाज और सब्जियाँ भी है। इस सब के पीछे मूल चिन्तन था; धरती को धारणी मान कर उसे ही ठीक रखना। मिट्टी मे नमी ,जीवाश्म बनाकर रखना। सृष्टि की सृजन शक्ति को समझ कर सहेजना है, इसी से समृद्वि लाना है।
गर्मी में जल का वाष्पीकरण रोकने हेतु वृक्षों के नीचे ही सब्जियाँ पैदा करना। विविध वृक्ष, विविध सब्जिंया एक ही स्थान पर पैदा करना, यह हमारा चलन बन गया। इसमे जैव विविधता का हमारी खेती को पुरा योगदान रहा। लाभ कमाना लक्ष्य नहीं था। जैव विविधता वाली खेती ने धरती में जीवाश्म और नमी बनाने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्षा की कमी अकाल आदि का भी बुरा असर हमारी वृक्ष खेती पर नहीं हुआ। वृक्ष-खेती ही अकाल – बाढ़ का ईलाज भी है। हमारे जीवन को सुखी समृद्व बनाने का रास्ता भी यही है।
बाजारू खेती उजाड़ती है, जैसे मुझे उजाड़ा। मेरे पिता श्री की खेती में समृद्वि होती तो वे मुझे किसान ही बनाते। उनके जीवन में बाजारू खेती ने कष्ट पैदा किया था। इसलिए उन्होने मुझे खेती से बाहार निकालना ही उचित समझा था। मेरी शादी करके मुझे गाँव से बाहार निकाल कर सरकार में काम करने को मजबूर किया था। यह मेरी रुचि के अनुकूल नहीं था। फिर भी मैनें सरकारी काम किया था।
प्रत्येक समृद्ध पिता अपने पुत्र को भी समृद्ध बनाता है। मेरे समृद्ध दादा मेरे पिता को भी समृद्व किसान ही बनाना चाहते थे। बाजारू खेती की कंगाली के जमीनदार किसान मेरे पिता मुझे कंगाल नही बनने के सदैव स्वप्न देखते थे। मैं भी अपने पुत्र के विषय में यही विचार करता हूँ। वह बाजारू खेती की उच्चतम पढ़ाई पढ़कर, अब कम्पनी की नौकरी छोड़कर आया है। मैं उसको बाजार-मुक्त खेती का शुभ-लाभ सिखा रहा हूँ, जब हम खेती का शुभ मूल्य आँककर लाभ को दो नम्बर पर रखकर खेती करते हैं, तभी खेती हमारे जीवन में समृद्वि लाती है।
बाजार ही खेती को आज उपयोग कर रहा है। खेती बाजार-मेले- हाट को जब उपयोग करेगी तो खेती उत्पादन मे जो मजदूरी लगती है वह भी अच्छे से मिलेगी। खेती का उत्पादन श्रमिकों को सस्ता ही मिलेगा। बाजार को खेती की भलाई हेतु उपयोग किया जा सका तो अच्छा होगा। आज तो बाजार ही खेती को भारी पड़ता है।
आज मनरेगा जैसे अधिनियम ने मजदूर को श्रम की चोरी करना सिखा दिया है। उनके स्वाभिमान को नष्ट कर दिया। चोरी करने वाला श्रमिक हमेेशा डरता है। अनुशाषित श्रमिक श्रम कर के स्वाभिमान से जीता है। निर्भय होकर काम करने वाला श्रमिक अच्छा और स्वस्थ रहता और जीता है।
आज की खेती में बड़े बाजार तो ब्याज (सूद) व चोरी से लाभ – लालच की पूर्ति करना ही सिखाता है, जबकी खेती तो सदाचार सिखाती है। धरती-प्रकृति से लेना है। अपने पसीने से खेती को वापस लौटाना है। किसान जीने के लिए अन्न-पानी हेतु जितना प्रकृति का शोषण करता है, उतना ही या उससे ज्यादा किसान अपने पसीने से धरती प्रकृति का पोषण करता है। इसी का नाम खेती है। यह खेती अब लोभ-लालची बन गई है तो किसानी भी मर गई है। आज बाजारू सभ्यता छायी है। जब खेती संस्कृति आयेगी, तभी बाजारू सभ्यता जायेगी।
आजकल सभी कुछ बाजारू है। इसी लिए मैं बाजारू सभ्यता वाली खेती को अपनी खेती नहीं मानता हूँ। मैंने तरुण आश्रम में वृक्ष-खेती शुरू की है। इस सदी में हम पुनः वृक्ष खेती पर आयेंगे। यही हमारी अरण्य संस्कृति है, यही हमारी खेती है। इसलिए तो हम खेती को संस्कृति कहते हैं।
खेती संस्कृति पोषक होती है। आज की सभ्यता शोषक है। दोनों के बीच जंग है। इस जंग मुक्ति का एक मात्र उपाय है; वृक्ष खेती। वृक्ष सूरज की किरणों से प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तेज करके मानवहित में प्रकृति मय अधिक तेजी से लेन देन करते हैं। खेती में मानवीय जीवन सदैव प्रकृति मय रहता है। जहां मशीन से खेती होती है, वह खेती नहीं, किसान और जमीन की लूट है।
फसली खेती 60 दिन से 160 दिन की योजना होती है। वृक्ष-खेती में 6000 दिन से 60000 दिन की योजना बनानी पड़ती है। बड़ी समय अवधि की योजना बनने पर सदैव सृष्टि की समृद्वि योजना बनती है। इसलिए भारतीय खेती को भारत का आर्थिक शुभ-लाभ वाला आधार बनाने हेेतु अन्न, फल, सब्जियाँ सभी कुछ वृक्ष खेती की योजना बनाना और चलाना चाहिए।
अभी सरकार खेती में योगदान देने हेतु कई खेती योजना चला रही है। ये सब खेती में अरुचि पैदा करने वाली योजना है। भारत की खेती बचानी और बनानी है तो वृक्ष खेती पर आना ही पड़ेगा। यही आज की रूचि और समृद्वि का रास्ता बनायेगी।
वृक्ष खेती महिला-पुरुषों को स्वस्थ रोजगार के अवसर सृजित करती है। सभी को समता, सादगी के रास्ते सम्मान से जीना सिखाती है। सभी को काम और जीवन में सम्मान दिलाने वाली वृक्ष-खेती को अपनाने वाला काम ईमानदारी और सदाचारी तरीके से मनरेगा के तहत कराया जा सकता है। इसे कराने वाले लोक सेवक, लोक सेवा कर्मी तैयार करके उन्हें वृक्ष खेती द्वारा काम कराने को साध्य मानकर करायें, तो ही मनरेगा में भष्ट्राचार का स्थान सदाचार लेगा। श्रमिक सम्मान से काम करेंगे। बदले में रोजी-रोटी कपडा,मकान वृक्षां की छाया सभी कुछ पा सकेंगे। स्वाभिमान और समृद्वि से जीवन जी सकेंगे।
अपना फसल-चक्र वृक्षों के साथ जोड़कर बनाने का काम ही अपने उत्पादन की उचित दाम पर खरीद गारंटी प्राप्त करना है। वृक्ष-खेती के उत्पादन से जितना जल बचे, उतना अधिक दाम सरकार को आगे देने का विचार आने वाले समय में करना ही होगा।
किसान और प्रकृति की समृद्धि लाने वाले कानून की आज जरुरत है। तभी भारत में कंपनी राज रुकेगा। कंपनी राज को रोकने से ही किसान व प्रकृति की साझी समृद्धि बनेगी। किसान उद्योग नहीं, संस्कृति का आधार है। अब व्यापारियों का राज है। इसे प्रकृति और किसान के साझे पोषण की बात समझ नहीं आती है। इन्हें तो अतिक्रमण, शोषण, प्रदूषण करना ही समझ में आता है। ये इसी को विकास कहकर चल रहे है। यह विकास नहीं है, विस्थापन बिगाड़ और विनाश है। इसी से मुक्ति पाने वाला भारत पुनर्निर्माण है। यह मानवता के पुनर्जनन के साथ प्रकृति पुनर्जनन में विश्वास रखता है। इसीलिए अकाल-बाढ़ मुक्ति के उपाय खोजता है।
यह रास्ता ही खेती-किसानी समृद्धि का रास्ता बनाता है। मुझे वृक्ष-खेती के काम में बहुत सफलता मिली है। इसमें खर्च कम, शुभ-लाभ अधिक है। अतः इसे ही अब अपनाये, इस हेतु संगठित-समझ बनाने की जरूरत है। वृक्ष-खेती जमीन के कटाव रोककर जल प्रवाह को धीमा बनाकर, मिट्टी में नमी बनाकर रखती है। इससे हरियाली बढ़ती है, हरियाली बादलों को बुलाकर बरसाती है। जिससे सुखाड़ मिटता है। जल प्रवाह धीमा होने से भूजल पुनर्भरण होता है। उसमें वर्षा जल बहकर एक स्थान पर इकट्ठा नहीं होता है। जिससे मिट्टी का जमाव नदी में नहीं होता, क्योंकि खेतों-पहाड़ों से जब कटाव रूकता है, तब पानी के साथ मिट्टी नदी बहकर आती है, तो नदी का तल साफ गहरा बना रहता है। तब गाँवों व शहरों की बनावट में पानी नहीं भरता है। भारत को बाढ़-सुखाड़ मुक्ति का यही एक मात्र रास्ता वृक्ष खेती है।
* लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।